विज्ञान

इंटरनेट युग में जीवन का 'गेमीकरण'

फेबियन आर्ल्ट और हांस-युर्गेन आर्ल्ट की पुस्तक ‘गेम्फिक्शेन ऑफ लाइफ एंड दी गेमिंग सोसायटी: दी लुडिक सेंचुरी, 2023 की समीक्षा

Arun Kumar Gond

क्या अपने कभी सोचा है कि जब हम सुबह उठते ही मोबाइल देखते हैं, तो हम यह सोचकर मोबाइल उठाते शायद कुछ नया जानकारी या खबर हो। लेकिन ऐसा नहीं है अब मोबाइल हमारी रोजमर्रा की जिंदगी को एक खेल की तरह बना रही है।

जैसे- हमारी फोटो पर कितने “लाइक” आए, कितने लोगों ने “कमेंट” किया, कितने लोगों ने हमारी “स्टोरी देखी”, किसी ऐप में काम करने से कितने “पॉइंट्स”, “स्टार” या “इनाम” मिले, हमें कौन-सा “बैज” मिला। हर चीज में अब तुलना होती है, जैसे कौन कितना अच्छा कर रहा है। ये सब अब ज़िंदगी को एक खेल जैसा बना रहे हैं।

फेबियन आर्ल्ट और हांस-युर्गेन आर्ल्ट की पुस्तक ‘गेम्फिक्शेन ऑफ लाइफ एंड दी गेमिंग सोसायटी: दी लुडिक सेंचुरी, 2023’ पढ़ने के बाद यह साफ हो जाता है कि हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जिसे लेखक “लुडिक सेंचुरी” यानी खेल-केंद्रित सदीकहते हैं। “लुडिक सेंचुरी” का मतलब; ऐसा समय जहां हमारी ज़िंदगी के हर हिस्से को एक खेल की तरह देखा जा रहा है। पढ़ाई, नौकरी, सोशल-मीडिया या फिटनेस हर जगह स्कोर, बैज, रैंक और इनाम मिलने लगे हैं। असल जीवन भी अब एक गेम बन चुका है।

पहले जहां खेलने का समय तय होता था, जैसे दोपहर को स्कूल के बाद बच्चे गली-मोहल्ले, बागीचे या खेत के किनारे गिल्ली-डंडा, कबड्डी, कंचे, खो-खो, लुका-छुपी या पिट्ठू जैसे खेल खेलते। इन खेलों में हंसी-मजाक होता, कभी हार होती तो कभी जीत परन्तु सब मिलकर खेलते, कोई नंबर या इनाम नहीं, बस खेल खेलने का अपना अलग ही मजा था। इन खेलों में शरीर चलता था, मन हँसता था और दोस्ती गहरी होती।

अब वो सब धीरे-धीरे मोबाइल स्क्रीन में सिमट गया है। अब मोबाइल, कंप्यूटर और डिजिटल साधनों ने हमें हर समय और हर जगह खेलने की आजदी दे दी है। और अब तो हमारे रोजमर्रा के काम भी एक तरह के खेल बन गए हैं; जैसे सोशल-मीडिया पर लाइक पाना, फॉलोअर्स बढ़ाना, बैज और रैंक अर्जित करना। ये सब असली ज़िंदगी के “स्कोर” बन चुके हैं।

लेखक कहते हैं कि खेल अब सिर्फ़ टाइम पास नहीं रहा, बल्कि एक ऐसा ढाँचा बन गया है जिससे लोग सीखते हैं, सोचते हैं और व्यवहार करते हैं। अब स्कूल भी खेल जैसे तरीके से पढ़ाते हैं, कंपनियां ग्राहकों को जोड़े रखने के लिए गेमिंग जैसी तरकीबें अपनाती हैं। हम सब अब एक ऐसे दौर में हैं जहां जिंदगी भी खेल बन गई है, और खेल जिंदगी पर असर डाल रहा है। सवाल ये है – क्या हम खेल को खेल रहे हैं, या खेल हमें चला रहा है? लेखक बताते हैं कि समाज के भीतर एक खेल का विशेष स्थान होता है, जिसे हम “लुडिक स्पेस” कहते हैं।

यह स्थान हमारी रोजमर्रा की ज़िंदगी से अलग होता है; जहां खाने, रहने, कपड़े, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी जरूरतों को पूरा करने के लिए मेहनत करनी पड़ती है, लेकिन खेल का स्थान हमें इन सभी जरूरी कामों से थोड़ी देर के लिए मुक्ति देता है, एक ऐसी दुनिया में ले जाता है जआं न कोई ज़िम्मेदारी होती है और न ही कोई बाध्यता। यही वजह है कि बचपन और खेल का गहरा रिश्ता होता है, क्योंकि बच्चे न तो सामाजिक नियमों को जानते हैं, और न ही जरूरी काम कर सकते हैं। उनके लिए खेल ही ज़िंदगी का पहला अनुभव होता है।

आज का कंप्यूटर केवल काम करने की मशीन नहीं रही, यह एक दोस्त की तरह खेलता है, एक खिलौने की तरह आनंद देता है और एक खिलाड़ी की तरह जवाब भी देता है। कंप्यूटर और डिजिटल गेम्स ने हमारी सोचने और जीने की दुनिया को बिल्कुल बदल दिया है। उदाहरण के लिए; जब कोई बच्चा मोबाइल पर ऑनलाइन गेम, पबजी या फ्री फायर खेलता है, तो वह सिर्फ उंगलियां नहीं चला रहा होता, बल्कि वह तेज निर्णय ले रहा है, अनजान स्थितियों से जूझ रहा है और जीत-हार को महसूस कर रहा है। यहीं से कंप्यूटर खेल “व्यवहार” को भी प्रभावित करते हैं। बच्चा खेल के जरिए धैर्य, योजना बनाना, हार से उबरना और बार-बार कोशिश करना सीखता है।

हर बात, हर तस्वीर, हर खेल—सब हमारी कल्पना पर टिका होता है। और यही कल्पना हमें नई सोच, नया खेल, और कभी-कभी धोखा भी देती है। कभी बच्चे आम की गुठली को चाकू की तरह चलाते थे, लकड़ी की छड़ी को तलवार मानकर लड़ते थे- यानी कल्पना से खेलते थे। आज वही कल्पनाएं स्क्रीन पर उतर आई हैं, जिन्हें हम वीडियो गेम्स कहते हैं।

यह खेल केवल मन बहलाने का जरिया नहीं रहा, बल्कि समाज में तकनीकी और सांस्कृतिक बदलाव का भी प्रतीक हैं। जैसे-जैसे जूते, घड़ियाँ और कपड़े समय, जरूरत और स्वाद के अनुसार बदलते गए, वैसे ही वीडियो गेम्स ने भी अपनी अनेक किस्में बना लीं- एक्शन, एडवेंचर, रणनीति, रोल-प्लेइंग और कैज़ुअल गेम्स। आज मोबाइल और इंटरनेट ने गेम को किसी एक कमरे या टीवी सेट तक सीमित नहीं रखा- बस/ट्रेन में बैठा व्यक्ति भी गेम खेल सकता है, और खेत में कम करता किशोर भी। यही वीडियो गेम्स की असली सुंदरता है- यह हर “उम्र”, हर “वर्ग” और हर “परिस्थिति” में एक समान रूप से जगह बना चुके हैं।

आधुनिक जीवन में कार्य, प्रदर्शन और पहचान के जो स्वरूप उभरे हैं, वे केवल नियमों और योग्यता तक सीमित नहीं रहे; अब “कैसे किया गया” भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना “क्या किया गया”। यह बदलाव कार्य-स्थलों में एक प्रकार के खेल-तत्त्व (लुडिक एलिमेंट) को जन्म देता है, जो आत्म-अभिव्यक्ति और प्रस्तुति का मेल ही सफलता का मापदंड बनता जा रहा है। लेकिन यह खेल सभी के लिए समान नहीं होता- यह सांस्कृतिक पूँजी, सामाजिक पृष्ठभूमि और अभिव्यक्ति की क्षमता पर निर्भर करता है, जिससे असमानताएं और अधिक मजबूत होती जाती हैं।

इसी के समानांतर, समाज में सफलता को अब प्रयास या क्षमता से नहीं, बल्कि केवल “परिणाम” से आंका जाता है। परिणाम अच्छे हों तो वे व्यक्ति की प्रतिभा माने जाते हैं, न हों तो उसका दोष ठहराया जाता है। यह भाग्य, संयोग और सामाजिक स्वीकृति का एक अजीब खेल बन गया है, जआं हार को छिपा लिया जाता है और जीत को पूजनीय बना दिया जाता है।

लेखक:

अरुण कुमार गोंड, शोधार्थी, समाजशास्त्र विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज उत्तर प्रदेश