विज्ञान

टोक्यो ओलंपिक का असली “गोल्ड” मिलेगा खेल विज्ञान को

इस ओलंपिक में जितनी बड़ी संख्या में खिलाड़ी होंगे, उतनी ही संख्या में खेल विज्ञान विशेषज्ञ होंगे

Anil Ashwani Sharma

कोरोना के साए में आखिरकार जापान की राजधानी टोक्यो में आगामी 23 जुलाई से ओलंपिक खेलों का आयोजन होने जा रहा है। यह तो सभी जानते हैं कि खेलों में पदक की जबरदस्त होड़ होती है। ऐसे में यह बात ध्यान देने वाली है कि आखिर दुनिया के महान खिलाड़ी तैयार कैसे होते हैं? डाउन टू अर्थ खेलों के इस गूढ़ विज्ञान को समझने के लिए खेलों में विज्ञान की अहमियत पर एक श्रृंखला शुरू करने जा रहा है। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की पहली कड़ी।

आगामी 23 जुलाई से 9 अगस्त के बीच जब टोक्यो में खेलों का महाकुंभ 'ओलंपिक' खेला जा रहा होगा, तब इन खेलों में मिलने वाला स्वर्ण पदक वास्तव में इस बार “खेल विज्ञान” ही जीतेगा। क्योंकि इस बार के महाकुंभ में यहां आने वाले दुनियाभर के 200 से अधिक देशों के लगभग 11 हजार से अधिक खिलाड़ियों के खानपान, रहनसहन और उनके प्रशिक्षण के लिए इतने ही खेल विज्ञान को समझने वाले विशेषज्ञ भी साथ होंगे। हालांकि हर बार विशेषज्ञ आते थे, लेकिन इतनी बड़ी संख्या में नहीं होते थे। क्योंकि इस बार का ओलंपिक सदी की सबसे भयावह बीमारी कोरोना के साए में होने जा रहा है। ऐसे में इस बार उसी देश के खिलाड़ी अधिक सफल होंगे, जिनके पास अधिक सक्षम खेल विज्ञान को समझने वाले विशेषज्ञ होंगे।

इस संबंध में मेट्रो अस्पताल में कार्यरत स्पोट्र्स साइंस के विशेषज्ञ डॉ. दिनेश समुझ बताते हैं कि टोक्यो में हजारों कैमरे एथलीटों पर केंद्रित होंगे लेकिन प्रत्येक धावक, तैराक या जिमनास्ट के पीछे वैज्ञानिकों की एक विशेषज्ञ टीम होगी, जो प्रतियोगिता में खिलाड़ियों को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रखने व उनकी क्षमता की पूर्ण सीमा तक प्रदर्शन करने में सक्षम बनाएगी।

यही नहीं, ओलंपिक खेलों में खेल विज्ञान के संबंध के महत्व को बताते हुए अंतराष्ट्रीय पर्यावणीय पत्रिका “नेचर” के अनुसार कुछ वैज्ञानिक इस बात की जांच कर रहे हैं कि कैसे एक एथलीट का शरीर विज्ञान उन्हें उत्कृष्टता प्राप्त करने में सक्षम बनाता है और इस सुखद स्थिति को कैसे प्रोत्साहित किया जा सकता है। 

उदाहरण के लिए, “धीरज रखने की अवधि” जैसी बातें मैराथन जैसे ओलंपिक खेल में काफी महत्व रखती हैं। क्योंकि इस खेल में यदि आपके पास धीरज नहीं है तो आप इस प्रतियोगिता को कभी नहीं जीत सकते। इसके अलावा अमेरिका में शोधकर्ता बेसबॉल जैसे खेलों में अविश्वसनीय गति से फेंकी गई गेंद पर प्रहार करने के पीछे के विज्ञान की खोज कर रहे हैं। कुछ कोच अपने खिलाड़ियों को खेलों में बढ़त बढ़ाने के लिए और उनके आत्म विश्वास को और बढ़ाने के लिए आभासी विज्ञान का भी इस्तेमाल कर रहे हैं।  

आज से ठीक 22 दिन बाद इस खेल की शुरूआत होने वाली है। ऐसे में खिलाड़ियों के स्वास्थ्य पर हर देश के स्वास्थ्य विशेषज्ञ विशेष ध्यान रख रहे हैं। लेकिन कोरोना की महामारी ने खिलाड़ियों को और भी मुश्किल में डाल दिया है। इस संबंध में खेल विशेषज्ञ राकेश थपलियाल बताते हैं कि इस समय भारत के लगभग हर खेल के खिलाड़ियों की नाक लगभग छिल चुकी है। कारण कि उन्हें भारत सहित दुनिया के जिस भी देश में भाग लेने जाते हैं, उनका कोरोना टेस्ट होता ही है। ऐसे में लगभग हर खिलाड़ी की नाक लगभग सफेद दिख रही है।

वह कहते हैं कि ऊपर से टोक्यो ओलंपिक में कहा गया है कि खिलाड़ियों का हर दिन टेस्ट होगा। ऐसे में आप कल्पना कर सकते हैं कि किस प्रकार से खिलाड़ी अपने को संभालेंगे। ऐसी स्थिति में खिलाड़ियों की बस एक ही साथी होगा और वह है खेल विज्ञान को जानने व समझने वाले विशेषज्ञ। जिनके सहारे वे अपने इवेंट वाले दिन तारोताजा रख पाएं।

ध्यान रहे कि टोक्यो में उमस बहुत अधिक होती है। ऐसे में एथलीटों को सुरक्षित और स्वस्थ रखना भी एक बड़ी चुनौती होगी। दिनेश समुझ कहते हैं कि टोक्यो ओलंपिक में प्रशिक्षण विधियों में मौसम के अनुकूल परिवर्तन कर अत्यधिक गर्मी व उमस से निपटने के लिए एथलीटों की क्षमताओं में सुधार करने की कोशिश की जा रही है। यही नहीं, डेटा वैज्ञानिक संभावित चोटों को रोकने के लिए पहनने योग्य सेंसर और मशीनी लर्निंग जैसी तकनीक का उपयोग तेजी से कर रहे हैं।

यह हम सभी जानते हैं कि पिछले तीन दशक से जब से खेलों की निष्पक्षता बनाए रखने के लिए तकनीक को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाने लगी है, तभी से खिलाड़ी और खेल विज्ञान एक-दूसरे के पूरक होते जा रहे हैं। यह सिलसिला अब भी जारी है। राकेश थपलियाल कहते हैं कि  निष्पक्ष प्रतियोगिता सुनिश्चित करने में विज्ञान की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वह बताते हैं कि प्रदर्शन को बढ़ाने वाली दवाएं सबसे अधिक ध्यान आकर्षित करती हैं और इन खतरों से खेल की अखंडता को बनाए रखने के लिए अब गंभीरता से लेने की मांग जोर पकड़ रही है।

पिछले दो दशक से भारत में भी खेलों की स्थिति में सुधार हुआ है। इसी का नतीजा है कि 1996 के अटलांटा ओलंपिक से लेकर 2016 के रियो ओलंपिक तक भारतीय खिलाड़ियों ने कहीं न कहीं अपनी इक्का-दुक्का उपस्थिति दर्ज कराने में अवश्य सफल रहे हैं। इसके पीछे भी एक बड़ा कारण है कि भारत की तमाम खेल अकादमियों ने भी खेल विज्ञान के महत्व को समझा और अपने यहां इस प्रकार के प्रशिक्षकों की नियुक्ति की है।

इस संबंध में थपलियाल बताते हैं कि आज से डेढ़ दशक पहले तो भारत में खेलों में अपने बच्चों को प्रविष्टि दिलाने के लिए मांबाप भी आगे आए और मांग की है कि ऐसी लैब बनाए जाएं जहां हम अपने घरों में उपयोग किए जाने वाले अनाज का परीक्षण करा सकें कि यह किसी खिलाड़ी के स्वास्थ्य के लिए अच्छा है कि नहीं? और इस प्रकार से मां-बाप के आगे आने के कारण कुछ निजी संस्थानों ने इस प्रकार से लैब तैयार भी की और इस योजना के पीछे भारत के मशहूर ओलंपिक खेलों के कमेंटरी करने वाले डॉ. नरोत्तम पुरी ही थे।

ध्यान रहे कि भारत में भी कई ऐसे शोध हुए हैं, जिसमें यह बताया गया था कि कौन सा खिलाड़ी किस खेल में पदक जीत सकता है या यूं कहें कि आगे जा सकता है, यह पहले ही पता चल जाएगा। यह महत्वपूर्ण शोध मध्य प्रदेश के ग्वालियर स्थित लक्ष्मीबाई नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फिजिकल एजुकेशन (एलएनआइपीई) के पूर्व वाइस चांसलर डा. जेपी वर्मा ने एक किया है। 

टैलेंट आइडेंटिफिकेशन सिस्टम इन स्पोर्ट्स (टिस) शोध के तहत दो मॉडल विकसित किए गए, जिससे शारीरिक बनावट और विशेष अनुवांशिक विशेषताओं से यह तय किया जाएगा कि कौन सा खिलाड़ी किस खेल का महारथी बनेगा। अपने शोध के बारे में वर्मा ने बताया था कि यह मॉडल बताता है कि बच्चे की शारीरिक बनावट और अनुवांशिक गुण किस खेल के लिए उपयुक्त है। खेल संस्थान इन्हें पहचानकर उन्हें उस खेल के लिए तराश सकते हैं। रिसर्च आधारित इस मॉडल से अच्छे खिलाड़ी तैयार करने में मदद मिलेगी।