वैज्ञानिकों ने एक ऐसा नया मॉडल विकसित किया है, जो किसी देश के आर्थिक आंकड़ों की मदद से उस देश में मौजूद रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एंटीबायोटिक रेसिस्टेंट) के स्तर का पता लगा सकता है। यह मॉडल एम्स्टर्डम इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ एंड डेवलपमेंट के वैज्ञानिकों ने विकसित किया है। यह मॉडल किसी देश की औसत आय, लोग स्वास्थ्य पर अपनी जेब से औसतन कितना खर्च करते हैं, साथ ही वहां सरकारी तंत्र में कितना भ्रष्टाचार मौजूद है, इन सबके आधार पर उस देश में मौजूद एंटीबायोटिक प्रतिरोध के स्तर की गणना करता है। यह शोध अंतराष्ट्रीय जर्नल पनास में प्रकाशित हुआ है।
गौरतलब है कि पिछले कुछ दशकों में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स का स्तर बढ़ता जा रहा है। यह सही है कि एंटीबायोटिक दवाएं किसी मरीज की जान बचाने में अहम भूमिका निभाती है, पर जिस तरह से स्वास्थ्य के क्षेत्र में इनका धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा है उससे एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स की समस्या उत्पन्न हो रही है। आज छोटी-छोटी बीमारियों में भी डॉक्टर इन्हें खाने की सलाह दे रहे हैं। धीरे-धीरे दवाएं बैक्टीरिया पर कम प्रभावी होती जा रही हैं। इनका दूसरा खतरा पशुधन उद्योग के चलते उत्पन्न हुआ है,जहां ज्यादा पैदावार के लिए मवेशियों में अनियंत्रित तरीके से एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल हो रहा है, जोकि स्वास्थ्य के लिए खतरा है। वैज्ञानिकों के अनुसार वैश्विक स्तर पर एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स का प्रसार हर वर्ष 1 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। यह 1998 में 34 फीसदी से बढ़कर 2017 में 54 फीसदी पर पहुंच गया था।
यही वजह है कि विकसित देशों में एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग पर नजर रखी जाती है और इनके उपयोग के लिए नियम भी बनाए गए हैं। यही वजह है कि इन देशों में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स में कमी आ रही है। पर जब बात विकासशील और पिछड़े देशों की आती है, तो स्थिति पूरी तरह बदल जाती है। इन देशों ने अब तक इसे नियंत्रित करने के लिए न तो प्रभावी नियम बनाए हैं न ही उनके पास पर्याप्त साधन हैं जिनकी मदद से वो इसपर नजर रख सकें। ऐसे में यह मॉडल बहुत प्रभावी सिद्ध हो सकता है।
यह मॉडल कितना कारगर है उसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने पहले इसकी जांच उन विकसित देशों में की है जहां एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स को प्रभावी रूप से ट्रैक किया जाता है तो उन्हें पता चला कि उनका मॉडल नौ में से छह रोगजनकों की 78 से 86 फीसदी तक सटीक भविष्यवाणी कर सकता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इस मॉडल से प्राप्त नतीजों की मदद से दुनिया के 87 फीसदी देशों में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स पर निगरानी रखने में मदद मिल सकती है। यह देश दुनिया की 99 फीसदी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसकी मदद से उन 490 करोड़ लोगों को फायदा मिलेगा, जिनके देशों में इन रोगजनकों को पहचानने और उसके इलाज के लिए पर्याप्त साधन मौजूद नहीं हैं।
क्या होता है एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स
एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स तब उत्पन्न होता है, जब रोग फैलाने वाले सूक्ष्मजीव जैसे बैक्टीरिया, कवक, वायरस, और परजीवी रोगाणुरोधी दवाओं के लगातार संपर्क में आने के कारण अपने शरीर को इन दवाओं के अनुरूप ढाल लेते हैं। अपने शरीर में आए बदलावों के चलते वो धीरे-धीरे इन दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं। नतीजतन, यह दवाएं उन पर असर नहीं करती। जब ऐसा होता है तो मनुष्य के शरीर में लगा संक्रमण जल्द ठीक नहीं होता। इन्हें कभी-कभी "सुपरबग्स" भी कहा जाता है।
दुनिया में कितना बड़ा है एंटीबायोटिक रेसिस्टेंट का खतरा
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि विश्व में एंटीबायोटिक रेसिस्टेंट एक बड़ा खतरा है। अनुमान है कि यदि इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो 2050 तक इसके कारण हर साल करीब 1 करोड़ लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ सकती है। दवा-प्रतिरोधक बीमारियों के कारण हर वर्ष कम से कम सात लाख लोगों की मौत होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2030 तक इसके कारण 2.4 करोड़ लोग अत्यधिक गरीबी का सामना करने को मजबूर हो जाएंगे। साथ ही इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान उठाना पड़ेगा।