भारतीय शोधकर्ताओं ने कृषि अवशेषों से हाइड्रोजन के सीधे उत्पादन के लिए एक अनूठी तकनीक विकसित की है। शोधकर्ताओं द्वारा किया गया यह नया प्रयोग हाइड्रोजन उपलब्धता की चुनौती से पार पाने में मदद कर सकता है। पर्यावरण के अनुकूल हाइड्रोजन ईंधन-सेल इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देकर वायु प्रदूषण पर लगाम लगाया जा सकता है।
भारत ने 2030 तक लगभग 450 गीगावाट यानी 60 फीसदी अक्षय ऊर्जा का लक्ष्य रखा है। वर्तमान परिदृश्य में इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए, शोधकर्ता अक्षय ऊर्जा समाधानों की दिशा में काम कर रहे हैं। अक्षय ऊर्जा कार्बन को सीमित करने वाली होनी चाहिए। ऊर्जा प्राप्त करने के सबसे किफायती तरीकों में से एक सस्ते, प्रचुर मात्रा में और अक्षय स्रोत से हाइड्रोजन का उत्पादन करना है।
कृषि अवशेषों या अपशिष्ट, जिसके निपटान के लिए एक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ता है, इसका उपयोग हाइड्रोजन उत्पादन के लिए किया जा सकता है सकता है। यह ऊर्जा उत्पादन और अपशिष्ट निपटान की दोनों समस्याओं को हल कर सकता है।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी), भारत सरकार के एक स्वायत्त संस्थान पुणे के आगरकर अनुसंधान संस्थान के शोधकर्ताओं की एक टीम ने केपीआईटी टेक्नोलॉजीज की संवेदनशील प्रयोगशालाओं के सहयोग से कृषि अवशेषों से हाइड्रोजन निकालने के लिए प्रयोगशाला स्तर पर इस तकनीक को विकसित किया है।
शोधकर्ताओं ने कहा कि मौजूदा इस्तेमाल की जाने वाली पारंपरिक प्रक्रियाओं की तुलना में हमारी तकनीक 25 फीसदी अधिक कुशल है। इस दो चरणों वाली प्रक्रिया में बायोमास के पहले उपचार करने की जरूरत नहीं पड़ती है। इस तरह यह प्रक्रिया को किफायती और पर्यावरण के अनुकूल बनाती है। एप्लाइड रिसर्च इंटरनेशनल (एआरआई) के निदेशक डॉ प्रशांत ढाकेफलकर ने कहा यह प्रक्रिया पोषक तत्वों से भरपूर एक पदार्थ को उत्पन्न करती है जिसका उपयोग जैविक उर्वरक के रूप में किया जा सकता है।
वैज्ञानिकों की एक टीम जिसमें एमएसीएस-एआरआई के डॉ. एस.एस. डागर और प्रणव क्षीरसागर और केपीआईटी-सेंटिएंट के श्री कौस्तुभ पाठक ने इस प्रक्रिया के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। तकनीक को विकसित करने वालों ने बताया कि हाइड्रोजन ईंधन उत्पादन प्रक्रिया में एक विशेष रूप से विकसित माइक्रोबियल कंसोर्टियम का उपयोग शामिल है जो सेल्यूलोज के बायोडिग्रेडेशन की सुविधा प्रदान करता है। तत्पश्चात हेमिकेलुलोज से परिपूर्ण कृषि अवशेष, जैसे कि धान, गेहूं, या मक्का के बायोमास, बिना थर्मो-केमिकल या एंजाइमेटिक प्रिट्रीटमेंट के इसमें शामिल किए जाते हैं।
प्रक्रिया पहले चरण में हाइड्रोजन और दूसरे में मीथेन उत्पन्न करती है। वैज्ञानिकों ने कहा कि इस प्रक्रिया में उत्पन्न मीथेन का उपयोग अतिरिक्त हाइड्रोजन उत्पन्न करने के लिए भी किया जा सकता है। सेंटियंट लैब्स के अध्यक्ष रवि पंडित ने कहा कि उपयोग न होने वाले कृषि अवशेषों से हाइड्रोजन उत्पन्न करने की यह सफलता हमें ऊर्जा संसाधनों पर आत्मनिर्भर बनने में मदद करेगी। यह किसान समुदाय को राजस्व की एक बड़ी धारा भी जोड़ेगा।