विज्ञान

हमारे पुरखों की तरह ही पौधों के औषधीय गुणों से वाकिफ हैं जानवर, घावों पर मरहम लगाते पाया गया ओरांगुटान

'राकुस' नामक इस ओरांगुटान ने जिस पौधे का उपयोग अपने घावों पर किया था, वो अपने औषधीय गुणों के लिए जाना जाता है। इसका उपयोग पारम्परिक चिकित्सा में किया जाता है

Lalit Maurya

क्या आप जानते हैं कि जानवर भी पौधों के औषधीय गुणों से वाकिफ हैं। दुनिया में कई जंगली जीवों ऐसे हैं जो चोट लगने या बीमार पड़ने पर अपना इलाज करते हैं। लेकिन क्या वो अपने घावों के इलाज के लिए पौधों का उपयोग दवा के रूप में करते हैं, इस बारे में कोई पुख्ता जानकारी मौजूद नहीं थी। लेकिन हाल ही में इंडोनेशिया में एक ऐसा उदाहरण सामने आया है, जिसने वैज्ञानिकों को भी हैरान कर दिया है।

हाल ही में, मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल बिहेवियर, जर्मनी और नेशनल यूनिवर्सिटी, इंडोनेशिया के जीवविज्ञानियों ने एक नर सुमात्रण ऑरंगुटान को जड़ी-बूटियों की मदद से अपने घाव का इलाज करते हुए पाया।

यह घटना जून 2022 में सामने आई थी जब वैज्ञानिकों ने इंडोनेशिया की सुआक बालिंबिंग रिसर्च साइट पर एक सुमात्रण ऑरंगुटान को औषधीय पौधे की मदद से अपने घाव का इलाज करते देखा।

बता दें कि यह रिसर्च साईट संरक्षित वर्षावन क्षेत्र में है जो लुप्त होने की कगार पर पहुंच चुके करीब 150 ऑरंगुटान का घर है। इनमें से एक 'राकुस' नामक सुमात्रण ऑरंगुटान भी है। यह वनमानुष चेहरे पर लगी चोट से पीड़ित था।

नियमित निगरानी के दौरान वैज्ञानिकों ने पाया कि 'राकुस' नाम का यह वनमानुष, फाइब्रौरिया टिंकटोरिया पौधे की पत्तियों का रस अपने घावों पर लगा रहा था। यह पौधा अपने औषधीय गुणों के लिए जाना जाता है। इसे दक्षिण पूर्व एशिया के लोग दर्द और जलन को दूर करने के लिए उपयोग करते हैं। साथ ही इसका उपयोग पारम्परिक चिकित्सा में भी होता है।

इलाज में बेहद कारगर है इस पौधे की पत्तियां

शोधकर्ताओं ने जानकारी दी है कि फाइब्रौरिया टिंकटोरिया और अन्य लियाना प्रजातियां दक्षिण पूर्व एशिया के उष्णकटिबंधीय जंगलों में पाई जाती हैं। इनमें न केवल दर्द, जलन और बुखार को दूर करने वाले गुण होते हैं, साथ ही मलेरिया जैसी दूसरी बीमारियों के इलाज के लिए पारम्परिक रूप से किया जाता है। इनकी जांच से पता चला है कि इनमें न केवल जीवाणु, फंगल और सूजन-रोधी गुण होते हैं। साथ ही यह एंटीऑक्सिडेंट होने के साथ-साथ घाव भरने में भी मदद करते है।

अध्ययन के दौरान देखा गया कि राकुस ने पहले इन पत्तों को चबाया, उसके बाद अपनी उंगलियों की मदद से इसके रस को अपने दाएं गाल पर लगे घाव पर लगाया। कई बार ऐसा करने के बाद राकुस ने इन चबाए हुए पत्तों से उसी तरह अपने घाव को ढंक लिया, जैसे पट्टी की जाती है। उसका यह बर्ताव वैज्ञानिकों के लिए भी नया था, क्योंकि उन्होंने कभी भी किसी वनमानुष को ऐसा करते नहीं देखा था।

हालांकि इससे पहले भी बड़े वानरों द्वारा जंगल में खुद का इलाज करने की घटनाएं दर्ज की गई हैं। लेकिन यह पहला मौका है जब वैज्ञानिकों ने किसी बन्दर को अपने इलाज के लिए जंगली पौधों का इलाज करते देखा है। यह कुछ ऐसा ही था जैसे हमारे पुरखे अपने घावों का इलाज किया करते थे।

इस बारे में अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ता इजाबेला लाउमर ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि, "यह पहला मौका है जब हमने किसी जंगली जानवर को इस तरह औषधि को अपने घाव पर सीधे लगाते देखा है।”

इंडोनेशिया के सुआक प्रोजेक्ट के दौरान वैज्ञानिकों ने न केवल इस घटना को देखा और दर्ज किया बल्कि साथ ही इसकी तस्वीरें भी ली थी। उन्होंने देखा कि महीने भर में राकुस का घाव पूरी तरह ठीक हो गया था। इस अध्ययन के बारे मे जर्नल साइंटिफिक रिपोर्ट्स में एक विस्तृत शोध प्रकाशित हुआ है।

निरीक्षण से पता चला कि 'राकुस' के घाव में संक्रमण के कोई लक्षण नहीं थे। पांच दिनों के बाद घाव भरने लगा था। शोधकर्ताओं के मुताबिक, दिलचस्प बात यह है कि घायल होने पर राकुस ने सामान्य से अधिक आराम किया था। आराम और बेहतर नींद घाव भरने पर सकारात्मक प्रभाव डालती है, क्योंकि नींद के दौरान विकास हार्मोन का स्राव, प्रोटीन संश्लेषण और कोशिका विभाजन बढ़ जाता है।

शोधकर्ताओं ने यही भी जानकारी दी है कि शायद राकुस, किसी दूसरे नर के साथ हुई लड़ाई में घायल हो गया था। हालांकि पहले कभी उसने इस तरह अपना इलाज किया है या नहीं, इसकी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।

राकुस ने कहां से सीखा इलाज?

इस बारे में शोधकर्ताओं का कहना है कि मुमकिन है कि राकुस ने यह तरीका दूसरे ओरांगुटान से सीखा हो, जो उस पार्क से दूर अध्ययन के दायरे से बाहर रहते हैं। राकुस का जन्म इस साइट से बाहर हुआ था और उसका बचपन इस क्षेत्र से बाहर बीता है।

गौरतलब है कि वैज्ञानिकों ने पहले भी कुछ विशाल वानरों को अपना इलाज करने के लिए पौधों का इस्तेमाल करते देखा है। बोर्नियन वनमानुषों को औषधीय पौधों का रस अपने शरीर पर मलते देखा गया है, वो शायद ऐसा दर्द कम करने या परजीवियों को भगाने के करते हैं।

इसी तरह दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में चिंपांजियों को अपना पेट दर्द ठीक करने के लिए पौधों की टहनियां चबाते देखा गया है। वहीं गोरिल्ला, चिंपांजी और बोनबोस भी पेट के कीड़े खत्म करने के लिए किसी ना किसी तरह की पत्तियां खाते पाए गए हैं। हाल ही में इसी तरह गैबॉन में एक चिंपैंजी समूह को अपने घावों पर कीड़े लगाते हुए देखा गया है। हालांकि यह तरीका घावों पर काम करता है या नहीं इस बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है।

इस बारे में अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता कैरोलीन शुप्पली ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा है कि यह वनमानुषों द्वारा पौधों की मदद से घावों के इलाज का पहला ज्ञात मामला है। यह इस बात पर भी प्रकाश डालता है कि हमारे निकटतम रिश्तेदार जानते होंगें कि अपना इलाज कैसे करना है।

प्रारंभिक मानव द्वारा घावों की देखभाल के सबूत 2200 ईसा पूर्व के हैं, जब उन्होंने पहली बार घावों को साफ करना और उसपर दवा लगाना सीखा था। चूंकि अन्य वनमानुष भी इसी तरह से अपने घावों का देखभाल करते हैं। ऐसे में हो सकता है कि हमारे पूर्वजों के पास भी इसी तरह जड़ी बूटियों की पहचान और उपयोग की जानकारी रही होगी। जीवों का यह व्यवहार और ज्ञान एक बार फिर इस तथ्य को उजागर करता है कि प्रकृति हमारी सोच से कहीं ज्यादा गूढ़ है।