विज्ञान

चांद के बिना अधूरा है भारतीय सिनेमा, हर रूप को दे चुका है आयाम

भारतीय सिनेमा में चांद का इस्तेमाल कभी सिहरन पैदा करने और कभी प्रेम का प्रदर्शन करने में हुआ है

DTE Staff

-दिनेश श्रीनेत-

चंदा की खिड़की से झाकूं, झाकूं और छुप जाऊं
उड़न खटोले पे उड़ जाऊं, तेरे हाथ ना आऊं
फिल्म: अनमोल घड़ी (1946)

इक बगल में चांद होगा, इक बगल में रोटियां
इक बगल में नींद होगी, इक बगल में लोरियां
फिल्म: गैंग्स ऑफ वासेपुर (2012)

सिनेमा में चांद किस तरह आता है? महज एक प्रतीक या इससे बढ़कर कुछ और बनकर? दरअसल चांद मनुष्य की सबसे आदिम स्मृतियों में से एक है।

अंतरिक्ष में धरती का सबसे करीबी दोस्त, सदियों से उसका हमदम, उसके चारों तरफ चक्कर लगाने वाला, शीतल रोशनी से धरती की सुंदरता बढ़ाने वाला और ग्रहण की कालिमा से सबको डराने वाला भी।

इस चांद के कितने ही रूप हैं और लगभग सब सिनेमा में किसी न किसी रूप में आए हैं। पश्चिम के सिनेमा में चांद जहां सिर्फ एक वातावरण का निर्माण करता है, हिंदी सिनेमा में चांद का इस्तेमाल बहुत हद काव्यात्मक है। हिंदी सिनेमा में गीतों ने चांद के इस काव्यात्मक प्रयोग को काफी लोकप्रिय बना दिया है। भारत में और कभी-कभार पश्चिम में भी चांद मिथकीय अवधारणाओं का वाहक बनता है। प्राचीन मान्यताओं को सिलसिला अक्सर चांद से जाकर जुड़ता है।

बहुधा चांद एक रहस्यमय और चुंबकीय शक्ति पुंज की तरह भी सिनेमा में आता है जो लोगों के भाग्य और घटनाओं को नियंत्रित करता है। इस पर आगे कभी चर्चा करेंगे। चांद को वैज्ञानिक संदर्भों में कम देखा गया है। हालांकि विश्व सिनेमा के शुरुआती दौर की फिल्म “अ ट्रिप टु द मून” (1902) का आधार मनुष्य के चांद पर जाने की परिकल्पना वाली विज्ञान कथाएं थीं।

फिल्म के निर्देशक जॉर्ज मेलियस ने अपनी इस राजनीतिक रूप से व्यंग्यात्मक फिल्म के लिए जूल्स वर्ने के उपन्यास “फ्रॉम द अर्थ टू द मून” (1865) और “अराउंड द मून” (1870) को श्रेय दिया। हालांकि सिनेमा इतिहासकारों का मानना है कि इस पर एचजी वेल्स की “द फर्स्ट मेन इन द मून” (1901) का भी असर है। पश्चिम के विपरीत भारत में अंतरिक्ष और चांद के वैज्ञानिक संदर्भ न के बराबर मिलते हैं।

हालांकि “अ ट्रिप टु द मून” की तरह चांद का संदर्भ सिर्फ एक फिल्म में नजर आता है, जिसका शीर्षक था “चांद पर चढ़ाई” (1967), जिसका निर्माण मनुष्य के चांद पर पहुंचने से पहले हुआ था। इस फिल्म के रिलीज होने के दो साल बाद 20 जुलाई 1969 को अमेरिकी वैज्ञानिक नील आर्मस्ट्रॉन्ग और बज एल्ड्रिन ने चांद पर कदम रखा था।

खास बात यह थी कि इसमें चांद पर एलियन के मौजूद होने की कल्पना की गई थी। दारा सिंह की तमाम सी-ग्रेड एक्शन फिल्मों की श्रेणी में बनी इस फिल्म में कई रोचक स्थापनाएं दिखती हैं। खासतौर पर गूगल लैंस जैसे एक उपकरण का इस्तेमाल किया जाना। इसके अलावा फिल्म में ई-मेल, रोबोट और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से मिलती-जुलती वैज्ञानिक परिकल्पनाएं भी देखी जा सकती हैं।

फिल्म में दारा सिंह के अलावा अनवर हुसैन, भगवान, जी रत्न के अलावा पद्म खन्ना ने भी अभिनय किया था। इस फिल्म के कई दृश्यों में हॉलीवुड की “द आईलैंड अर्थ”, “द डे द अर्थ स्टुड स्टिल” और “फॉरबिडन प्लैनेट” से प्रेरणा ली गई थी। रोचक बात यह है कि उसी साल “वहां के लोग” (1967) के नाम से भी एक फिल्म आई जिसमें अंतरिक्ष और एलियन का जिक्र था।

प्रदीप कुमार, तनुजा और जॉनी वाकर की इस फिल्म में एलियन चांद से नहीं मंगल ग्रह से आते हैं। सामी अहमद खान अपने रिसर्च पेपर “बॉलीवुड्स एनकाउंटर्स विथ द थर्ड काइंड” में इन फिल्मों पर विस्तार से चर्चा करते हैं।

चांद की आदिम स्मृतियों में रहस्यवाद का प्रभाव बहुत गहरा है। चांद के घटते-बढ़ते स्वरूप ने समय की अवधारणा का निर्माण करने में बहुत मदद की है। खासतौर पर महीने की परिकल्पना तो लगभग चांद पर ही आधारित है।

सदियों से चांद की मदद से तिथियां निर्धारित करना, पूरे चांद की रात समुद्र में आने वाले ज्वार-भाटा और ग्रहण की घटनाओं ने मनुष्य के मन में चांद के प्रति एक रहस्य की भावना भर दी।

यह माना जाता है कि चांद का जल तत्व से गहरा संबंध है। उसके चुंबकीय खिंचाव की वजह से समुद्र में ज्वार-भाटा आता है। ये मान्यताएं भी स्थापित हुईं कि मानव मन का चांद से गहरा रिश्ता है। पूर्णिमा की रात उन लोगों को बेचैन करती है जिनके भीतर जल तत्व प्रबल होता है।

ये यहां तक अंधविश्वास में बदल गया कि पूरे चांद की रात में आत्महत्या की घटनाएं भी बढ़ जाती हैं। इसी रहस्यवाद और पुरानी मान्यताओं के आधार पर सिनेमा में चांद का इस्तेमाल हॉरर और सस्पेंस पैदा करने के लिए होने लगा।

भारतीय कहानियों में तो पूर्णिमा और अमावस की रात में आत्माओं के जागने का जिक्र होता ही था, ब्रैम स्टोरकर की “ड्रैकुला” में भी चांद का इस्तेमाल जगह-जगह भय पैदा करने के लिए हुआ है। बाद में सिनेमा ने सीधे गॉथिक शैली में दर्ज उन प्रतीकों को उठा लिया।

सत्तर और अस्सी के दशक में रामसे ब्रदर्स ने हिंदी सिनेमा में अपनी अनूठी शैली में हॉरर सिनेमा का एक जॉनर स्थापित कर दिया। एक ही परिवार के सात भाइयों ने मिलकर कई कल्ट हॉरर फिल्में बनाईं। “दो गज जमीन के नीचे”, “दरवाजा”, “पुराना मंदिर”, “और कौन?” तथा “सामरी” जैसी फिल्मों में वीरान इलाकों और बादलों में छिपते चांद की मदद से खूब डरावना माहौल तैयार किया जाता था।

ये छवियां इतनी रूढ़ हो चलीं कि बाद में आई नए दौर की हॉरर फिल्में जैसे जुनून (1992), राज (2002), स्त्री (2018) और भेड़िया (2022) में भी चांद का ऐसा ही इस्तेमाल होता रहा।

हिंदी सिनेमा में कई बार एडवेंचर फिल्मों का भी चांद से गहरा रिश्ता होता था। ठीक वैसे जैसे मॅकेनाज गोल्ड (1969) में सूर्य की परछाइयों के जरिए रास्ते का पता चलता है, या फिर टिनटिन की कॉमिक्स में “प्रिजनर्स ऑफ दि सन” में सूर्य ग्रहण की वजह से टिनटिन, प्रो. कैलकुलस और कैप्टन हेडेक की जान बचती है, हिंदी सिनेमा में चांद भी छुपे राज उजागर करता है।

कभी वह खजाने की खोज हो सकती है या कभी सूदूर धरती पर भटके हुए लोगों को रास्ता दिखाना हो, आसमान में निकले चांद की भूमिका अहम हो जाती है। एडवेंचर के साथ-साथ चांद बॉलीवुड-नॉयर सिनेमा की भी जान है। चार्ल्स ब्रॉनसन की “डेथ विश” (1974) से प्रभावित कल्ट फिल्म “आज की आवाज” (1984) के पोस्टर्स में “ऊंची इमारतों के बीच आसमान मे उगा चांद और एक रिवॉल्वर से निकलता धुंआ” अपने समय की काफी आइकनिक इमेज थी।

इस फिल्म से लेकर कुछ समय पहले आई नवाजुद्दीन सिद्दीकी की नियो-नॉयर फिल्म “रात अकेली है” (2020) में भी चांद और चांदनी रातों का अच्छा इस्तेमाल था। आमतौर पर नॉयर या नियो-नॉयर में चांद और रात का प्रयोग वातावरण तैयार करने के लिए किया जाता है क्योंकि हमारे अवचेतन में और लोकप्रिय संस्कृति में चांद की छवियां सीधे कुछ खास अर्थ और प्रतीकों से जुड़ी हुई हैं तो निर्देशक के लिए विषय का निर्वहन बहुत आसान हो जाता है।

हालांकि ऐसा नहीं है कि सिनेमा में चांद का रिश्ता सिर्फ भय और रहस्य से है, बहुत सी कहानियों में चांद दोस्त भी है, अकेलेपन का साथी है और नायक-नायिकाओं के जीवन में खुशियां भी लाता है। वैसे शहरी जीवन से जुड़ी कहानियों में चांद की जरूरत कम हुई है, मगर जीवन के बहुत सारे प्रसंगों में चांद आ ही जाता है।

सिनेमा के संवादों में भी चांद का खूब इस्तेमाल हुआ है। देव आनंद की फिल्म “असली नकली” (1962) में तो चांद से जुड़ा एक बेहद प्रेमिल प्रसंग है, जो नायक नायिका के बीच पहली बार प्रेम की उत्कट अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है। देव आनंद और साधना के बीच यह खूबसूरत सीक्वेंस कुछ इस तरह है, नायिका कहती है, “हमें कोई देख रहा है।”

नायक थोड़ा फुसफुसाकर पूछता है, “कौन देख रहा है?” नायिका हंसकर पहले आंखों से और फिर उंगली उठाकर आसमान की तरफ इशारा करती है। दोनों झुरमुट के पीछे निकले पूरे चांद को देखते हैं और हंस पड़ते हैं। नायक कहता है, “देख लो भाई देख लो, खूब मजे से देख लो... तुम भी तो पुराने प्रेमी हो।”

नायिका सिर झुकाकर हंसती है। शरमाकर नहीं सहज मैत्री भाव से। अचानक से उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें दिखती हैं। कहती है, “कभी-कभी मुझे बहुत डर लगता है। कहीं अचानक यह सपना टूट न जाए। कहीं मैं तुम्हें खो न बैठूं। क्या तुम कह सकते हो मुझे ऐसा डर क्यों लगता है?” लड़का इत्मीनान से उसके करीब जाता है और बड़े आत्मविश्वास के साथ ठहर-ठहरकर कहता है, “तुम्हें डर इसलिए लगता है... कि तुम... मुझसे प्यार करती हो।”

वह उसका चेहरा अपने हथेलियों में थाम लेता है और लड़की चेहरा आसमान के चांद की तरह दमक उठता है। नायक वहां से चला जाता है। और लड़की... उसको तो मानो पंख लग गए हैं। वह सीढ़ियों से लगभग उड़ती हुई सी छत पर पहुंचती है पूरे खिले चांद को देखने। उसके होठों से अनायास बोल फूट पड़ते हैं,

तेरा मेरा प्यार अमर, फिर क्यो मुझको लगता है डर
मेरे जीवन साथी बता, क्यूं दिल धड़के रह-रह कर।

शहरी जीवन से हटकर गांव से जुड़ी सिनेमा की कहानियों में चांद का महत्व बरकरार है। चांदनी रातों में समूह नृत्य, नायक-नायिका का चांदनी रातों में मिलना, अपने प्रेम के लिए कभी चांद को गवाह बनाना तो कभी चांद की कसमें खाना हिंदी सिनेमा में खूब देखने को मिलता है।

भारतीय गीतकारों ने चांद को लेकर सबसे अनूठी और मौलिक कल्पनाएं की हैं। चांद पर यूं तो सैकड़ों गीत लिखे गए हैं मगर कुछ ऐसे हैं जो अपने अलग प्रयोग के कारण कई साल बीतने के बाद भी याद रह गए हैं। जैसे गंगा जमुना (1961) में शकील बदायूंनी ने लिखा,

ढूंढो ढूंढो रे साजना ढूंढो रे साजना
मोरे कान का बाला
मोरा बाला चंदा का जैसे हाला रे
जामे लाले लाले हां
जामे लाले लाले
मोतियन की लटके माला।

यहां हाला शब्द का खूबसूरत इस्तेमाल है, अरबी मूल के इस शब्द का अर्थ है चांद के गिर्द पड़ने वाला घेरा। यानी चांद का प्रभामंडल इसकी छवि को कान में पहनने वाले बाला से जोड़ा गया है। ठीक इसी तरह जब गुलजार “देवता” (1978) फिल्म में लिखते हैं, चांद चुराके लाया हूं, चल बैठें चर्च के पीछे लिखते हैं तो चांद के खिलौने वाले बिंब को ही एक नया रूपक दे देते हैं। चांद का बहुत सुंदर इस्तेमाल शैलेंद्र ने “आवारा” (1952) फिल्म के इस गीत में किया है।

नरगिस और राजकपूर पर फिल्माया गया यह गीत हिंदी सिनेमा के कुछ बेहद रोमांटिक गीतों में से एक है। सिर्फ एक बोट, उसमें झूलते-झूमते राज और नरगिस तथा आसमान में चमकता चांद, उलाहनों, छेड़छाड़ और शरारत से भरे इस गीत में शैलेंद्र ने बड़ी खूबसूरती से मिली-जुली भावनाओं को अभिव्यक्त किया है। गीत के बोल हैं,

दम भर जो उधर मुंह फेरे, ओ चंदा मैं उनसे प्यार कर लूंगी बातें हजार कर लूंगी।

इसी तरह साहिर लुधियानवी ने “जाल” (1952) में चांदनी रात के जरिए प्रेम, बेचैनी और वातावरण में छाई मदहोशी का अद्भुत वर्णन किया है। गुरुदत्त के निर्देशन में बनी फिल्म जाल को उसके ग्रे शेड किरदारों की वजह से अपने दौर का एक नॉयर क्लासिक माना जाता है, इस लिहाज से जाल भारतीय सिनेमा में अपनी तरह की अलग फिल्म थी। ग्रे शेड वाले रहस्यमय शख्स टोनी फर्नांडीस बने देव जब यह गीत गाते हैं तो पूरे स्क्रीन पर एक अजीब सा माहौल पैदा हो जाता है। साहिर के लिखे गीत के बोल हेमंत कुमार की आवाज में कुछ इस तरह थे,

ये रात ये चांदनी फिर कहां
सुन जा दिल की दास्तां
पेड़ों की शाखों पे सोई-सोई चांदनी
तेरे खयालों में खोई-खोई चांदनी
और थोड़ी देर में, थक के लौट जाएगी
रात ये बहार की, फिर कभी न आएगी
दो एक पल और है ये समां।

सिनेमा में चांद के किस्सों का कोई अंत नहीं है। चांद से जुड़ी सांस्कृतिक छवियों का विस्तार सिर्फ भारत नहीं बल्कि फैलते हुए एशिया और मध्यपूर्व तक चला जाता है। भारतीय वैदिक संस्कृति सूर्य की आराधना करती है मगर बुद्ध के साथ हम चांद का रिश्ता पाते हैं। बुद्ध पूर्णिमा उनके जीवन की एक अर्थवान घटना को याद करने का बहाना बनती है। दूसरी तरफ मध्य पूर्व की संस्कृति में भी चांद का गहरा असर है, उसकी धार्मिक मान्यताएं भी हैं।

जो सिनेमा वहां की कहानियों के असर में है, जैसे लैला-मजनूं, वहां पर खूब चांद की बातें हुई हैं। इस तरह के सिनेमा में चांद का सौंदर्य भी दिखा है और उसका प्रतीकात्मक प्रयोग भी खूब हुआ है। क्रांतिकारी और विद्रोही तेवर वाले भी चांद से मुतासिर रहे हैं। पीयूष मिश्रा की जिन पंक्तियों से हमने बात शुरू की थी, वह चांद को उसी विद्रोही नजर से देखते हैं। भारतीय सिनेमा की कुछ सबसे सशक्त छवियों में एक छवि आसमान में चमकते चांद की है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं कथाकार हैं। उन्होंने भारतीय तथा पाश्चात्य सिने शैलियों का तुलनात्मक अध्ययन किया है। दिनेश की किताब “पश्चिम और सिनेमा” वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। उनकी एक और किताब “विज्ञापन वाली लड़की” कई भारतीय भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी है)