भूगर्भशास्त्रियों ने इस संभावना की ओर संकेत किया है कि भारतीय प्लेट का एक भाग विघटन की प्रक्रिया से गुजर रहा है तथा गर्म मेंटल चट्टानें उस रिक्त स्थान को भर रही हैं। यह सिद्धांत बताता है कि भारतीय प्लेट का एक हिस्सा यूरेशियन प्लेट के नीचे खिसकने के कारण 'विघटित' हो रहा है।
यह सर्वविदित है कि पृथ्वी की सबसे ऊंची पर्वत शृंखला हिमालय, भारतीय और यूरेशियाई टेक्टोनिक प्लेटों के बीच धीमी गति से हुई भूगर्भीय टक्कर का परिणाम है। यह ऐतिहासिक टकराव लगभग 60 मिलियन वर्षों से इस क्षेत्र को आकार दे रहा है, जिससे ये चोटियाँ उभर रही हैं और इस नए परिदृश्य को व्यक्त करती हैं। फिर भी, असली आकर्षण सतह के नीचे गहराई में है, जहाँ सक्रिय टेक्टोनिक दबाव रहस्यमय बना हुआ है।
सघन समुद्री प्लेटों के विपरीत, महाद्वीपीय टेक्टोनिक प्लेटें मोटी और गतिशील होती हैं, जो टकराव के दौरान पृथ्वी के मेंटल में धंसने का प्रतिरोध करती हैं। इस अनूठी विशेषता ने वैज्ञानिकों को यूरेशिया के साथ चल रही टक्कर में भारतीय प्लेट के व्यवहार पर विचार करने के लिए प्रेरित किया है।
एक परिकल्पना यह भी है कि प्लेट पूरी तरह से सबडक्शन (पृथ्वी की आंतरिक परत) का प्रतिरोध करते हुए, तिब्बत के नीचे क्षैतिज रूप से खिसकती है। एक अन्य परिकल्पना यह है कि भारतीय प्लेट का ऊपरी, उत्प्लावक हिस्सा टकराव के किनारे पर उखड़ जाता है, जिससे निचला हिस्सा मेंटल में डूब जाता है ।
पृथ्वी का सबसे ऊंचा और युवा पर्वत हिमालय लंबे समय से भारतीय और यूरेशियाई टेक्टोनिक प्लेटों के बीच धीमी गति से होने वाली भूगर्भीय टक्कर से ऊपर उठता रहा है।
हाल ही में, तिब्बत के नीचे से गुजरने वाली भूकंपीय तरंगों और सतह पर उठने वाली विशिष्ट गैसों की उपस्थिति के एक नए विश्लेषण ने पहले से अज्ञात संभावना पर प्रकाश डाला है।
यह सिद्धांत बताता है कि भारतीय प्लेट का एक हिस्सा यूरेशियन प्लेट के नीचे खिसकने के कारण 'विघटित' हो रहा है, जिसमें सघन निचला भाग ऊपरी हिस्से से अलग हो रहा है। इसके अलावा, साक्ष्य स्लैब के अलग हुए हिस्से और उसके अप्रभावित पड़ोसी के बीच की सीमा पर एक ऊर्ध्वाधर टूटन या फाड़ की ओर इशारा करते हैं।
यूरोप के सबसे पुराने और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक नीदरलैंड्स स्थित यूट्रेक्ट विश्वविद्यालय के भू-गतिकीविद् डौवे वान हिंसबर्गेन ने कहा, "हमें नहीं पता था कि महाद्वीप इस तरह से व्यवहार कर सकते हैं और यह बात ठोस पृथ्वी विज्ञान के लिए बहुत मौलिक है।"
अमेरिकन जियोफिजिकल यूनियन सम्मेलन में प्रस्तुत तथा ऑनलाइन प्रीप्रिंट के रूप में साझा किए गए इस अभूतपूर्व अध्ययन में हिमालय के निर्माण के बारे में हमारी समझ को बढ़ाने की क्षमता है और यह इस क्षेत्र में भूकंप के खतरों का आकलन करने में भी योगदान दे सकता है।
अध्ययन से यह रोचक जानकारियां भी सामने आई हैं कि अटलांटिक महासागर हर साल चौड़ा होता जा रहा है। इसके अलावा यह भी पता चला है कि एक विशाल भूमिगत महासागर है जिसमें कुल महासागरों से तीन गुना अधिक पानी है और पृथ्वी का छठा महासागर इस समय अफ्रीका में बन रहा है।
हालांकि, मोनाश विश्वविद्यालय (ऑस्ट्रेलिया) के भू-गतिकीविद फैबियो कैपिटानियो ने अनिश्चितताओं और सीमित डेटा के अस्तित्व पर जोर देते हुए सावधानी बरतने का आग्रह किया। उन्होंने कहा, "यह सिर्फ एक झलक है।" फिर भी, कैपिटानियो ने पृथ्वी की गतिशील प्रक्रियाओं की हमारी समझ को आगे बढ़ाने में इस शोध के महत्व को स्वीकार किया है।
टेक्टोनिक प्लेटों के टूटने की अवधारणा वैज्ञानिकों के बीच लंबे समय से चली आ रही परिकल्पना रही है। ये प्लेटें एक परतदार संरचना से बनी होती हैं, जिसमें गतिशील क्रस्ट और सघन ऊपरी मेंटल चट्टान होती है। संपीड़न और मोटाई के बढ़ने पर एक प्लेट संभावित रूप से इन परतों के बीच इंटरफेस के साथ विभाजित हो सकती है।
इससे पहले इस तरह की घटनाओं का अध्ययन मुख्य रूप से मोटी महाद्वीपीय प्लेटों के अंदरूनी हिस्सों में किया जाता था और कंप्यूटर मॉडल में उनका अनुकरण किया जाता था। हालाँकि, यह अध्ययन अवरोही टेक्टोनिक प्लेट में इस तरह के व्यवहार का पहला उदाहरण है।
हिमालय टकराव क्षेत्र टेक्टोनिक प्लेटों के टूटने की जांच के लिए एक उपयुक्त आधार प्रदान करता है। टकराव शुरू होने से पहले भारतीय प्लेट मोटाई और संरचना में भिन्नता प्रदर्शित करती थी। यह भिन्नता 2500 किलोमीटर लंबे हिमालयी क्षेत्र के अर्धचंद्राकार आकार को समझाने में मदद करती है।
एरिजोना विश्वविद्यालय के भूविज्ञानी पीटर डेसेल्स ने प्राचीन प्लेट की तुलना समुद्री मछली 'मंटा रे' से की, जिसमें महाद्वीपीय क्रस्ट के मोटे केंद्रीय भाग के दोनों ओर समुद्री क्रस्ट के पतले पंख थे। जबकि पतली समुद्री स्लैब आसानी से यूरेशियन प्लेट के नीचे दब गई, मोटी महाद्वीपीय क्रस्ट ने यूरेशिया में बहुत जोर से धंसकर विशाल पर्वत शृंखला का निर्माण किया।
सबडक्शन गति में असमानताओं ने संभवतः भारतीय प्लेट को कई दिशात्मक तनावों के अधीन कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप कई दरारें पड़ गईं। स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के भूभौतिकीविद् और अध्ययन के लेखक साइमन क्लेम्परर के अनुसार हाल के वर्षों में कई दरारों का विचार इतना प्रचलित हो गया है कि यह वैज्ञानिकों के बीच लगभग एक 'कुटीर उद्योग' बन गया है।
क्लेम्परर ने अपना ध्यान भूटान के पास पूर्वोत्तर भारत के एक क्षेत्र पर केंद्रित किया, जहाँ सबडक्शन जोन घुमावदार है और जो इसे प्लेट विभाजन का प्रमुख कारक बनाता है। यह क्षेत्र, जैसा कि उन्होंने इसका वर्णन किया है, वह है जहां चीजें विशेष रूप से अशांत होती हैं।
उनकी शोध यात्रा कई वर्षों तक चली और इसमें तिब्बती झरनों से हीलियम के आइसोटोप मापों का संग्रह शामिल था। इन झरनों ने महत्वपूर्ण सुराग प्रदान किए, क्योंकि हीलियम-3, पृथ्वी की आदिम संरचना में पाया जाने वाला एक हल्का आइसोटोप, मेंटल चट्टानों की उपस्थिति का संकेत देता है। इसके विपरीत, हीलियम-3 की कमी से दफन क्रस्ट से गैसों के उभरने का पता चला।
टीम ने इन झरनों का मानचित्रण किया तो एक आश्चर्यजनक पैटर्न सामने आया। एक निश्चित रेखा के दक्षिण में झरनों में क्रस्टल हस्ताक्षर दिखाई दिए, जबकि उत्तर में मेंटल फिंगरप्रिंट दिखाई दिए।
शोधकर्ताओं ने इस रेखा की व्याख्या तिब्बत के नीचे खिसकने से पहले बरकरार भारतीय प्लेट के सबसे दूर के बिंदु के रूप में की। हालाँकि इस रेखा के दक्षिण में भूटान की पूर्वी सीमा के पास झरनों की एक तिकड़ी ने भी मेंटल के निशान दिखाए। इससे इस संभावना को बल मिलता है कि भारतीय प्लेट का एक हिस्सा विघटन से गुजर रहा है, जिसमें गर्म मेंटल चट्टानें अंतर को भर रही हैं।
इस परिकल्पना का समर्थन भूपटल और मेंटल चट्टान के बीच की सीमा को पार करने वाली भूकंप तरंगों के विश्लेषण से आया। शोधकर्ता कई भूकंपीय स्टेशनों पर तरंगों को रिकॉर्ड करके भूमिगत संरचनाओं की छवियां बनाने में सक्षम हुए। एक छवि में दो अलग-अलग धब्बे दिखाई दिए, जो बताते हैं कि भारतीय प्लेट का निचला हिस्सा ऊपरी हिस्से से अलग हो रहा था।
भूकंप तरंगों के एक अलग सेट का उपयोग करते हुए एक अन्य हालिया विश्लेषण में, साक्ष्य ने विखंडित स्लैब के पश्चिमी किनारे पर एक दरार की ओर इशारा किया। इस प्रस्तावित विखंडन के पश्चिम में भारतीय प्लेट का तल लगभग 200 किलोमीटर की गहराई पर बरकरार रहा, जबकि पूर्व में, जहाँ स्लैब विभाजित हुआ, मेंटल रॉक लगभग 100 किलोमीटर की गहराई पर बहता हुआ प्रतीत हुआ।
लेह विश्वविद्यालय (पेंसिल्वेनिया) में भूकंप विज्ञानी ऐनी मेल्टजर ने महाद्वीपीय टकरावों को समझने के महत्व पर जोर दिया, क्योंकि पृथ्वी पर लगभग हर भूभाग ऐसी घटनाओं से प्रभावित हुआ है। यह ज्ञान न केवल हमारे आधुनिक परिदृश्यों पर प्रकाश डालता है, बल्कि प्राचीन दोष रेखाओं के साथ भूकंप के खतरों का आकलन करने में भी हमारी मदद करता है।
साइमन क्लेम्परर ने यह भी सुझाव दिया है कि हाल ही में प्रस्तावित दरार आज तिब्बत में भूकंप के खतरों को प्रभावित कर सकती है। दरार के ऊपर तिब्बती पठार में एक गहरी दरार है जिसे कोना-सांगरी दरार के रूप में जाना जाता है, जो भारतीय प्लेट के भीतर उथल-पुथल और सतह की गड़बड़ी के बीच संभावित संबंध को दर्शाता है।
हालांकि भूकंप से सीधा संबंध अभी भी अनिश्चित है, लेकिन डौवे वान हिंसबर्गेन ने कहा कि प्लेटों के टूटने और विघटन से तनाव निर्माण पर प्रभाव पड़ सकता है, और परिणामस्वरूप, भूकंप की संभावना बढ़ सकती है।
महाद्वीपीय टकरावों ने हमारे ग्रह पर अतिव्यापी निशानों की एक जटिल विरासत छोड़ी है, जो उन्हें अध्ययन का एक चुनौतीपूर्ण विषय बनाती है। फिर भी, क्लेम्परर जैसे वैज्ञानिक इस अरबों साल पुराने इतिहास को समझने के अवसर के प्रति उत्साही बने हुए हैं । प्रत्येक खोज के साथ, हम उन जटिल प्रक्रियाओं को समझने के करीब पहुंचते हैं जिन्होंने हमारी दुनिया को आकार दिया है।
इस संदर्भ में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या हालिया वर्षों में हिमालयी क्षेत्र में भूकंपों की आवृत्ति में हो रही वृद्धि इस भूगर्भीय विभाजन का संकेत है?