विज्ञान

डाउन टू अर्थ खास: क्या ओलों को भेद पाएंगी ये तोपें?

ओलावृष्टि से अपनी फसल को बचाने के लिए किसान तोप लगा रहे हैं, लेकिन क्या सच में ये तोपें असरदार हैं और पूरे देश में लगाई जा सकती हैं?

Raju Sajwan

आकाश भीमटा के पास लगभग 35 बीघा (2.8 हेक्टेयर) क्षेत्रफल में सेब के बगीचे हैं। यहां से हर सीजन में लगभग 1,000-1,200 पेटी सेब निकलते हैं। इससे होने वाली आमदनी से वह अपने परिवार के साथ बेहतर जीवन जी रहे हैं। लेकिन वर्ष 2010 तक तक ऐसा नहीं था। जैसे ही सेब पकने लगते, अकसर ओलावृष्टि से सेबों का नुकसान हो जाता। वर्ष 2009 में तो इतनी ओलावृष्टि हुई कि उनके बगीचे के सारे सेब खराब हो गए। लेकिन 2011 से ओले उनके सेबों को नुकसान नहीं पहुंचाते, बल्कि ओले गिरना ही बंद हो गए। एक ओर जहां देश भर से ओलावृष्टि से फसलों के खराब होने की खबरें आती रहती हैं, ऐसे में आकाश की यह बात हैरान करती है।

दरअसल आकाश हिमाचल प्रदेश के शिमला जिले के जिस गांव में रहते हैं, उसके ठीक ऊपर 2011 में हिमाचल सरकार की ओर से एक ऐसी ओला रोधी तोप (एंटी हेल गन) लगाई गई, जिसका इस्तेमाल करके ओलों को बनने से रोका जा सकता है। दुनिया के कई देशों में इसे एंटी हेल केनन भी कहा जाता है। इस तोप की वजह से ही आकाश को नुकसान नहीं हो रहा है।

ओलावृष्टि हिमाचल प्रदेश के किसानों-बागवानों के लिए बड़ी मुसीबत बन गई है। भारत में महाराष्ट्र के बाद हिमाचल में ओलावृष्टि की आशंका सबसे अधिक रहती है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के अध्ययन के मुताबिक महाराष्ट्र में ओलावृष्टि की आशंका लगभग 90 फीसदी है, जबकि हिमाचल में 75 फीसदी रहती है। ओलावृष्टि की वजह से हर साल हिमाचल में 25 से 30 फीसदी बागवानी फसलें बर्बाद हो जाती हैं। हिमाचल प्रदेश सरकार के राजस्व विभाग के अंतर्गत बने आपदा प्रबंधन प्रकोष्ठ ने 2021 में ओलावृष्टि की वजह से हुए नुकसान का अलग रिपोर्ट तैयार की। इसमें कहा गया है कि अप्रैल व मई 2021 में बेमौसमी ओलावृष्टि की वजह से खड़ी फसलों को काफी नुकसान हुआ, इसमें गेहूं के अलावा सब्जियां प्रमुख रहीं। अनुमान लगाया गया कि लगभग 21,103.11 हेक्टेयर में खड़ी लगभग 72.80 करोड़ रुपए की फसल का नुकसान हुआ, जबकि बागवानी को 138.79 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। इस तरह केवल दो माह में ओलावृष्टि से किसानों-बागवानों को 211.59 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। हालांकि किसान संगठनों का कहना है ओलावृष्टि के साथ-साथ बेमौसमी बर्फबारी ने 2021 में काफी नुकसान पहुंचाया, इसलिए इन संगठनों ने लगभग 1,000 करोड़ रुपए के मुआवजे की मांग की थी।

हिमाचल में ओलावृष्टि की दिक्कत से निपटने के लिए 2011 में शिमला जिले में तीन ओलारोधी तोप लगाई गई थी। इनमें से एक तोप आकाश के गांव बेरोंघाट (तहसील कोटखाई), दूसरी- देवरी घाट (तहसील रोहड़ू), तीसरी- कठासु (तहसील जुब्बल) में लगी। ये तोप अमेरिका की कंपनी न्यूटन सिस्टम्स की थी। इनके अलावा तुमुरू (खड़ा पत्थर) में एक केंद्रीय रडार भी लगाया गया था। इस पूरे प्रोजेक्ट पर लगभग 2.89 करोड़ रुपए खर्च किए गए। स्थानीय लोगों का कहना है कि तब से ओलावृष्टि से होने वाले नुकसान में काफी कमी आई है। बेरोंघाट से कुछ ही दूरी पर बसे गांव बुदरूनी (पराली) निवासी राजीव चौहान कहते हैं, “अब तो जैसे ही बादल दिखाई देते हैं, हम बेरोंघाट में फोन कर देते हैं, ताकि समय से तोप चल जाए और हमारा नुकसान न हो।” इस तोप का असर देखते हुए शिमला के दूसरी तहसीलों के गांवों के किसानों ने भी प्रदेश सरकार से और तोपें लगाने की मांग की, लेकिन जब सरकार की ओर से कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला तो लोगों ने मिल जुलकर अपने खर्चे से ऐसी तोपें लगानी शुरू कर दी। ऐसी ही एक प्राइवेट तोप महासू गांव में लगी है।

2017 में यह तोप लगाई गई थी। इसके लिए आसपास के गांवों के बागवानों ने मिलकर एक समिति बनाई, जिसका नाम बलसन वैली विकास समिति रखा गया। समिति के वर्तमान प्रधान नरेंद्र चौहान कहते हैं कि यह तोप इटली से मंगवाई गई थी। इस पर लगभग एक करोड़ रुपए का खर्च आया था। समिति ने बागवानों से इसके लिए चंदा इकट्ठा किया। समिति में तीन ग्राम पंचायतों के दो दर्जन गांवों के बागवान शामिल हैं। इसके संचालन पर हर साल लगभग 3 से 4 लाख रुपए का खर्च आता है। जब से यह तोप लगी है, तब से ओलों से होने वाले नुकसान न के बराबर हो गया है, इसलिए बागवान खुशी-खुशी भुगतान कर देते हैं। इस तरह अब तक शिमला जिले में चार प्राइवेट ओलारोधी तोपें लग चुकी हैं। ये महासू के अलावा बगी, रतनारी, कालबोग में लगी हैं। लेकिन विदेशों से आने वाली इस तोप के महंगी होने और सालाना आने वाले खर्च को देखते हुए बागवान मांग कर रहे हैं कि सरकार न केवल नई तोप लगाने के लिए सब्सिडी दे, बल्कि सालाना खर्च भी उठाए।

स्वदेशी तोप तैयार

प्रदेश में ओला रोधी तोपों की बढ़ती मांग को देखते हुए अब हिमाचल में एक स्वदेशी तोप तैयार की गई है। यह तोप इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) बॉम्बे और यशवंत सिंह परमार यूनिवर्सिटी ऑफ हॉर्टिकल्चर एंड फॉरेस्ट्री (वाईएसपीयूएचएफ) ने संयुक्त रूप से तैयार की है। इसमें तकनीक के लिए रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) का सहयोग लिया गया है। आईआईटी, बॉम्बे के एयरोस्पेस इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर सुदर्शन कुमार कहते हैं कि स्वदेशी तोप का कृषि विज्ञान केंद्र, सोलन में परीक्षण चल रहा है। हमारा अनुमान है कि एक तोप पर लगभग 15 लाख रुपए का खर्च आएगा, जबकि तोप चलाने पर आने वाले खर्च में काफी कमी आ जाएगी, क्योंकि जो विदेशी तोपें अभी शिमला में लगी हुई हैं, उनमें ऐसीटिलीन गैस का इस्तेमाल होता है, उसकी जगह अब एलपीजी का इस्तेमाल किया जाएगा।

सुदर्शन कुमार बताते हैं कि इस प्रोजेक्ट के लिए केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय की ओर से फंड मिला था। अब प्रोजेक्ट लगभग पूरा हो चुका है। डिजाइन और टेक्नोलॉजी तैयार है। हमारी कोशिश होगी कि कोई कंपनी इस टेक्नोलॉजी के आधार पर एंटी हेल गन तैयार करे। हालांकि अब आईआईटी, बॉॅम्बे और वाईएसपीयूएचएफ ने एक और प्रोजेक्ट तैयार किया है और यह प्रोजेक्ट हिमाचल सरकार को भेजा गया है। यूनिवर्सिटी के पर्यावरण विज्ञान विभाग के प्रमुख एसके भारद्वाज बताते हैं कि हम एक स्वदेशी गन तैयार कर चुके हैं, लेकिन अभी इसका व्यापक अध्ययन करना है। इसके लिए हमने नया प्रस्ताव तैयार किया है, उसके मुताबिक हिमाचल के अलग-अलग 20 लोकेशन पर 20 तोपें लगाकर मूल्यांकन किया जाएगा। लगभग 15 करोड़ रुपए का यह प्रोजेक्ट अभी राज्य के बागवानी मंत्रालय को भेजा गया है।

कैसे करती हैं काम

कृषि विज्ञान केंद्र, सोलन में तैनात प्रोजेक्ट असिस्टेंट शुभम चौहान और नवीन मर्कम इस तोप का परीक्षण करते हैं। शुभम बताते हैं कि इस तोप को चलाने के लिए सबसे पहले गैस सिलेंडर से एक पाइप के जरिए गैस सप्लाई शुरू की जाती है। साथ ही, एयर ब्लोअर को शुरू करके वहां से हवा का दबाव शुरू किया जाता है। फिर गैस और हवा को एक ही पाइप में मिक्स करके डेटोनेशन ट्यूब तक पहुंचाया जाता है। साथ ही, ट्यूब में स्पार्क अप्लाई किया जाता है। इसके चलते फ्यूल और ऑक्सीजन का मिक्सर विस्फोट में बदल जाता है। यह मिक्सचर आगे कंवर्जन-डायवर्जन नोजल में पहुंच जाता है। इससे विस्फोट से निकलने वाली आवाज की तीव्रता बहुत बढ़ जाती है और वह शॉक-वेव में तब्दील हो जाती है, जिसे डायवर्जन डक्ट के जरिए आसमान की ओर धकेल दिया जाता है (देखें, कैसे करती है काम,)।

ओला रोधी तोप से निकली शॉक-वेव (आघात तरंगें) बादलों के बीच पहुंचकर इतनी ऊष्मीय ऊर्जा पैदा कर देती हैं कि बादलों में ओलों के बनने की प्रक्रिया रुक जाती है और वे पानी में परिवर्तित हो जाते हैं। तोप से निकलने वाली शॉक वेव की गति 700 मीटर प्रति सेकंड से लेकर 1,000 मीटर प्रति सेकंड है और यह 5 से 6 किलोमीटर तक ऊपर जा सकती है।

जलवायु परिवर्तन का असर

दरअसल ओलावृष्टि देश ही नहीं, दुनियाभर में फसलों के नुकसान का कारण बन रही है। जलवायु परिवर्तन की वजह से ओलावृष्टि की आवृति और घटनाएं बढ़ी हैं। हिमाचल के कोटखाई तहसील के गांव डीडी निवासी 65 वर्षीय किसान संत राम कहते हैं कि लगभग 30 साल पहले तक चार-पांच साल में एक-दो बार ही ओले आते थे। नुकसान भी कम होता था, तब तक बागवानों ने ओले से बचने का कोई इंतजाम नहीं किया था, लेकिन अब तो हर साल ओले गिरते हैं। ओलों का आकार भी बड़ा हो गया है। अब बेमौसम भी ओलावृष्टि होने लगी है। इसका सीजन मार्च से मई का है, लेकिन कई बार तो अगस्त में जब सेब पूरी तरह पककर तैयार हो जाते हैं, तब ओले गिर जाते हैं। किसान सभा समिति के सदस्य सत्यवान पुंडीर कहते हैं कि 2021 में अगस्त में ओलावृष्टि होने के कारण बहुत नुकसान हुआ। बड़े बागवान तो एंटी हेल नेट (जाल) या तोप लगाकर अपने फलों-फसलों की सुरक्षा कर लेते हैं, लेकिन छोटे किसानों के पास इतना पैसा नहीं होता कि वे जाल या तोप लगा पाएं। सब्जी उत्पादकों को बहुत नुकसान होता है। ऐसे में पूरे प्रदेश में तोपें लगें तो फायदा छोटे किसानों-बागवानों को भी होगा।



ओलावृष्टि की बढ़ती घटनाओं के लिए वैश्विक तापमान को भी दोषी माना जा रहा है। दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में डॉक्टरेट शोध कर चुके यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग, यूके के ओलावृष्टि विशेषज्ञ अमूल्य चेवुतुरी कहते हैं कि वैश्विक तापमान की वजह से वातावरण में गर्मी के साथ-साथ नमी भी बढ़ रही है। दुनिया के कुछ हिस्सों में बढ़ते तापमान और ओलावृष्टि की बढ़ती घटनाओं के बीच संबंध देखा गया है, लेकिन क्या भारत में बढ़ते तापमान की वजह से ओलावृष्टि की घटनाएं बढ़ सकती है, इस पर व्यापक वैज्ञानिक अध्ययन की जरूरत है।

लेकिन बाकी है इन सवालों का जवाब

बेशक अपने नुकसान को बचाने के लिए किसान-बागवान पूरे हिमाचल में तोपें लगाने की मांग कर रहे हैं, लेकिन इस नई तकनीक पर अभी भी कई सवाल उठ रहे हैं। जैसे कि क्या सच में इस गन से निकलने वाली शॉक वेव की वजह से ओले नहीं बनते? दरअसल भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुिनया में इस तरह का कोई वैज्ञानिक अध्ययन उपलब्ध नहीं है। प्रो़ सुदर्शन कुमार कहते हैं कि ज्यादातर अध्ययन किसानों से बातचीत पर आधारित हैं, इसलिए हमने अब जो नए प्रोजेक्ट का प्रस्ताव सरकार को भेजा है, उसमें कहा गया है कि अगले चार से पांच साल तक तोपों के प्रभाव का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाएगा।

इससे पहले भी हिमाचल सरकार ने 2011-12 के दौरान केंद्र सरकार से 300 ओला रोधी तोपों और 30 रडार लगाने के लिए 284 करोड़ रुपए की सहायता मांगी थी, लेकिन तब केंद्रीय कृषि एवं सहकारिता विभाग ने प्रदेश में पहले से लगी तोपों के प्रभाव के मूल्यांकन के लिए कृषि एवं सहकारिता विभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, भारतीय मौसम विज्ञान विभाग, हिमाचल सरकार, डा. यशवंत सिंह परमार बागवानी एवं वानिकी विश्वविद्यालय (यूएचएफ) तथा सेब उत्पादन संघ के प्रतिनिधियों की समिति का गठन किया था। इस समिति ने 1-3 मार्च 2012 को शिमला में लगी तोपों के बारे में जानने के लिए दौरा किया और अपनी रिपोर्ट में कहा कि बिना वैज्ञानिक अध्ययन के राज्य के बागवानी विभाग ने ये तोप लगा दी हैं। और यह सवाल अभी भी अपनी जगह पर बना हुआ है।

एक और बड़ा सवाल यह है कि तोप संचालकों को कैसे पता चलेगा कि आसमान में बन रहे बादलों की वजह से ओले गिर सकते हैं? दरअसल क्यूम्यलोनिम्बस बादल (कपासी वर्षी बादल) की वजह से ओले बनते हैं और इन बादलों के बारे में जानना आसान नहीं होता। आकाश बताते हैं कि जब उनके गांव में तोप लगाई गई थी तो खड़ा पत्थर पर लगे सेंट्रल रडार में न्यूटन कंपनी का एक कर्मचारी रहता था, जो मौसम पर नजर रखता था। जैसे ही क्यूम्यलोनिम्बस बादल बनते थे, 15 मिनट पहले ही रडार सिग्नल देने लगता था और रडार स्टेशन में नियुक्त कर्मचारी रिमोट के माध्यम से तीनों तोपों को चलाने लगते थे। इन्हें तब तक चलाया जाता, जब तक बादल छंट न जाएं। लेकिन लगभग दो साल बाद रडार ने काम करना बंद कर दिया और कर्मचारी भी वहां से हट गए, तब से ही राज्य सरकार के कर्मचारी तोपों को मैन्युअली ऑपरेट करते हैं।

आकाश कहते हैं, “रडार के बिना ये तुक्का गन है। अब तो जैसे ही बादल बनते हैं, फायर शुरू कर दिया जाता है। चाहे बादल से ओले गिरने वाले हों या नहीं। कभी-कभी तो सही समय पर फायर शुरू न कर पाने के कारण ओले बन जाते हैं और लगातार फायर के बावजूद ओले गिरते रहते हैं।” केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण विभाग के आर्थिकी एवं सांख्यकीय निदेशालय का अध्ययन भी कहता है कि बिना रडार के इन तोपों की उपयोगिता का सही आकलन नहीं किया जा सकता। प्रो. सुदर्शन कुमार भी कहते हैं कि इस तोप का फायदा तभी है, जब उसका इस्तेमाल सही समय पर हो। यही वजह है कि उनके नए प्रोजेक्ट में मौसम विज्ञान विभाग को शामिल किया गया है। यह भी सवाल उठ रहे हैं कि जिस इलाके में एक बार तोप का इस्तेमाल शुरू हो जाता है, वहां बारिश कम होने लगती है। हालांकि इस तरह का भी कोई वैज्ञानिक अध्ययन उपलब्ध नहीं है। क्या तोप से निकलने वाली आवाज पहाड़ और पर्यावरण को नुकसान पहुंचा सकती हैं? इस प्रश्न पर सुदर्शन कहते हैं कि आवाज इतनी नहीं होती कि इससे पहाड़ों को नुकसान हो और न ही इसका पर्यावरण पर पड़ रहे असर का कोई वैज्ञानिक अध्ययन उपलब्ध है।

ऐसे में प्रश्न है कि जिस तोप की प्रभावकारिता को लेकर दुनिया भर में कोई ठोस अध्ययन उपलब्ध नहीं है, उसके इस्तेमाल से क्या हिमाचल में किसानों-बागवानों को ओलावृष्टि के प्रकोप से बचाया जा सकता है? कहीं ये तोपें आने वाले समय में पर्यावरण या पहाड़ की पारिस्थितिकी पर असर तो नहीं डालेंगे? इन सवालों का जवाब खोजने के बाद क्या इन एंटी हेल गनों के माध्यम से पूरे देश में ओलावृष्टि से होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है?