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डाउन टू अर्थ खास: जीआई टैग को बढ़ावा देने से किसे होगा फायदा?

जीआई टैग अथवा भौगोलिक संकेतकों की संख्या बढ़ाने के लिए वाणिज्य मंत्रालय का अभियान काफी सुस्त है, जिससे स्थानीय समुदायों को कोई लाभ नहीं मिलता

Latha Jishnu

साल 2022 का जून महीना। मध्य प्रदेश के धार जिले में हंगामा मचा हुआ था। दरअसल, भील आदिवासियों ने मांडू के ऐतिहासिक शहर के पास स्थित अपने गांवों से लगभग एक दर्जन बाओबाब पेड़ों को ले जाने से रोक दिया था।

इन पेड़ों को हैदराबाद के बाहरी इलाके में लगाया जाना था। इसके लिए इन्हें जड़ समेत उखाड़ कर मांडू से लगभग 1,000 किमी दूर एक व्यवसायिक वनस्पति उद्यान ले जाया जा रहा था। मध्य प्रदेश के वन विभाग ने इन पेड़ों के स्थानांतरण की अनुमति दी थी। इस बात से भील समुदाय के लोग परेशान थे क्योंकि वे सदियों से इन पेड़ों की देखभाल कर रहे थे। उन्होंने सड़क जाम कर दी। पेड़ों को ले जाने के लिए पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा।

बाओबाब अफ्रीकी मूल का पेड़ है और भारत में यह खास कर मांडू क्षेत्र में पाया जाता है। अजीब आकार के इस रसीले पेड़ को “ट्री ऑफ लाइफ” के रूप में जाना जाता है, क्योंकि यह अपने विशाल तने में बारिश के पानी को जमा कर सकता है। यह गर्मी के मौसम में तब पोषक तत्वों से भरपूर फल देता है, जब जमीन तक सूख जाती है।

इस पेड़ में औषधीय गुण होते हैं और यह भील समुदाय के लिए आय का एक जरिया भी है। भील आदिवासी स्थानीय व्यापारियों को इस पेड़ के फल और बीज बेचते हैं। भील समुदाय का प्रकृति से गहरा लगाव रहा है। ऐसे में आदिवासी लोग इस बात से नाराज थे कि वन विभाग ने व्यवसायी को नर्सरी से पौधे खरीदने के बजाय, उगाए गए पेड़ ले जाने की अनुमति कैसे दे दी। इन लोगों का सवाल था कि आखिर वन विभाग ने पेड़ों की सुरक्षा क्यों नहीं की।

यह स्वीकार करने के बजाय कि वन विभाग अपना काम करने में विफल रहा, आधिकारिक प्रतिक्रिया चौंकाने वाली रही। अधिकारियों का कहना है कि वे स्थानीय समुदाय को बाओबाब पेड़ों के लिए भौगोलिक संकेत (जीआई) हासिल करने में मदद करेंगे। धार बागवानी विभाग ने ऐसे स्थानीय किसानों की पहचान करने के लिए एक समिति का गठन किया है जो जीआई टैग के लिए आवेदन करने के लिए एक संस्था बना सके। क्या भील समुदाय इस घटनाक्रम पर ऐसे समय में कुछ कहेगा जब उनकी चिंता केवल पेड़ों को सुरक्षित रखने की हो?

जीआई कुछ हद तक एक ट्रेडमार्क की तरह है, लेकिन यह एक अतिरिक्त लाभ प्रदान करता है। यह उत्पाद को विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के सदस्य देश के एक विशिष्ट क्षेत्र में उत्पादित/पैदा होने के रूप में प्रमाणित करता है। साथ ही यह उस उत्पाद की गुणवत्ता, प्रतिष्ठा या अन्य विशेषताओं को प्रामाणिक पहचान देता है जो इसके भौगोलिक मूल के कारण हैं।

जाहिर है, जीआई टैग एक सामूहिक अधिकार है। यह टैग किसी विशेष क्षेत्र के उत्पादक समुदाय के आर्थिक हितों की रक्षा करता है जो एक विशिष्ट उत्पाद बनाने या निर्माण करने में माहिर हैं। यह अन्य उत्पादकों को संरक्षित नाम का उपयोग करने से रोकता है। जीआई किसी उत्पाद के मामले में व्यवसायिक संभावनाओं की रक्षा कैसे करता है, इसका उदाहरण शैंपेन (फ्रांस), टकीला (मेक्सिको) और रोक्फोर्ट (फ्रांस का एक प्रसिद्ध ब्लू चीज) हैं। भारत में जीआई का महत्व बासमती चावल और दार्जिलिंग चाय के संदर्भ में देखा जा सकता है, जिसके निर्यात से उसे अरबों डॉलर मिलते हैं।

लेकिन मांडू के बाओबाब पेड़ के लिए जीआई टैग से क्या हासिल होगा क्योंकि ऐसे पेड़ उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में भी पाए जाते हैं। आखिर इस टैग से इन भीलों को क्या मिलेगा? जीआई रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया बहुत ही थकाऊ होती है। इसमें एक ठीकठाक फीस भी लगती है। क्या इतना कुछ करने के बाद आदिवासी लोगों की स्थिति बेहतर हो जाएगी? इसका ठोस जवाब देना बागवानी विभाग के लिए मुश्किल होगा।

वाणिज्य मंत्रालय का डिपार्टमेंट फॉर प्रमोशन ऑफ इंडस्ट्री एंड इंटरनल ट्रेड (डीपीआईआईटी) जीआई को बढ़ावा देता है और इस अवधारणा को लोकप्रिय बनाने के लिए नियमित सम्मेलन और प्रतियोगिताएं आयोजित करता है। इसका फोकस बस राज्यों के बीच प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना रह गया है। कई बार इससे क्षेत्रीय मनमुटाव भी बढ़ता हुआ दिखा है, जैसे रसगुल्ला की उत्पत्ति पर ओडिशा और पश्चिम बंगाल के बीच बेतुकी लड़ाई से दिखा, जबकि यह मिठाई भारत के हर नुक्कड़ पर मिल जाती है। न केवल जीआई टैग प्रदान करने की प्रक्रिया त्रुटिपूर्ण है, बल्कि परेशान करने वाली बात यह है कि स्थानीय समुदायों को अपने अद्वितीय उत्पाद के बदले शानदार लाभ मिले इसके लिए जरूरी तकनीकी और विपणन सहायता प्रदान करने में अधिकारी विफल रहे हैं। स्थानीय समुदायों की आर्थिक संभावनाओं को बेहतर बनाने में मदद करने के लिए कोई रणनीति या बुनियादी योजना भी नहीं है। जीआई टैग दे देना मात्र लक्ष्य रह गया है।

आज हमारे पास कई उत्पादों के लिए जीआई टैग हैं जो एक मजबूत ब्रांड नाम के साथ मौजूद हैं। जैसे अगरबत्ती की बात करें तो चमेली की खुशबू वाली कई किस्म की अगरबत्तियां ट्रैफिक लाइट और मंदिर के आसपास के इलाकों में बेची जाती हैं। इसे किसी भी एक छोटी जगह पर बनाया जा सकता है। इसी तरह कई किस्म की मिठाइयां भी हैं। जीआई के दुरुपयोग का सबसे शानदार उदाहरण भगवान का लड्डू है, जो तिरुपति मंदिर में बेचा जाता है। इसके बारे में बहुत कुछ लिखा भी जा चुका है।

लेकिन भारत के लिए अभी भी बड़ी परीक्षा अपने कमाऊ सुगंधित बासमती चावल के लिए यूरोपीय संघ से जीआई टैग प्राप्त करना है। दुनिया में उत्पादित बासमती का लगभग 75 प्रतिशत भारत से आता है, लेकिन इस प्रतिष्ठित टैग के लिए भारत का निकटतम प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान और अप्रत्याशित रूप से अन्य छोटे पड़ोसी देश नेपाल द्वारा चुनौती दी जा रही है। भारत चाहे तो पाकिस्तान के साथ सहयोग करके और यूरोपीय संघ में एक संयुक्त दावेदारी पेश करके इस समस्या को दूर कर सकता था। सहयोग और विफल कूटनीतिक रणनीति के कारण अब एक तीसरा दक्षिण एशियाई राष्ट्र भी इस लड़ाई में शामिल हो गया है।

ये चुनौतियां कितनी भी विकराल क्यों न हों, भारत के लिए सबसे बड़ी समस्या बासमती पर उसकी अपनी नीति है, जो आंतरिक राजनीति की मजबूरियों पर आधारित है। पिछले पांच वर्षों में बड़ी संख्या में नई किस्मों को बासमती नाम देने की अनुमति देकर, देश ने शीर्ष गुणवत्ता वाले चावल आपूर्तिकर्ता के रूप में अपनी स्थिति को कमजोर कर लिया है। यह उन राज्यों के दबाव में किया गया जिन्होंने हाल के वर्षों में बासमती की नई किस्मों का उत्पादन शुरू कर दिया है, जैसे कि मध्य प्रदेश। 2022 के अंत में प्रकाशित बांगोर यूनिवर्सिटी, यूके के एक अध्ययन में कहा गया है कि इनमें से कुछ विशिष्ट सुगंध से रहित हैं जो बासमती को दुनिया का प्रीमियम चावल बनाते हैं। अध्ययन में बासमती की शुद्धता स्थापित करने के लिए डीएनए फिंगर प्रिंटिंग का उपयोग किया था।

नतीजतन, यूके राइस एसोसिएशन ने एक नया कोड ऑफ प्रैक्टिस प्रकाशित किया है, जिसकी वजह से बासमती की छह किस्मों को खारिज कर दिया गया। इसमे पांच किस्में भारत से और एक पाकिस्तान से हैं, जो तय मानक को पूरा नहीं करतीं। यह इसी साल जनवरी में लागू हुआ था। भारत के लिए अपनी जीआई रणनीति या गुणवत्ता संबंधी चिंताओं पर किसी भी चूक को वहन करना काफी महंगा साबित हो सकता है।