विज्ञान

डाउन टू अर्थ विशेष: क्या होगा मनुष्य का भविष्य

मानव का भविष्य उन 99 प्रतिशत से अधिक प्रजातियों जैसा हो सकता है जो धरती से विलुप्त हो चुकी हैं

Bhagirath

धरती पर इंसानों के भूतकाल, वर्तमान और भविष्य की संभावनाओं पर डाउन टू अर्थ की एक खास सीरीज में अब तक आप पढ़ चुके हैं। मानव विकास की कहानी, आदिम से अब तक , मनुष्य की नौंवी प्रजाति हैं हमयह है मानव विलुप्ति का ब्लूप्रिंट“मानव विलुप्ति की नहीं पतन की संभावना” । अब पढ़ें, आगे- 

भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है, इसकी भविष्यवाणी कोई भी वैज्ञानिक या दार्शनिक पूरी स्पष्टता के साथ नहीं कर सकता। मानव जाति के भविष्य को लेकर हुई तमाम भविष्यवाणियां महज अनुमानों पर आधारित हैं। अस्पष्टता के बावजूद यह सवाल अक्सर लोगों को मथता रहता है कि मानव का भविष्य क्या होगा? क्या भविष्य के गर्भ में मानव की विलुप्ति भी छिपी है? इस मसले पर उठने वाले सवाल हमारी मान्यताओं और कल्पनाओं को व्यक्तिगत और सार्वजनिक तौर पर प्रभावित करते रहते हैं। चूंकि सवाल मानव जाति के अस्तित्व से जुड़ा है, इसलिए इसके उत्तर खोजने के प्रयास भी जारी हैं।

परंपरागत रूप से मानव का भविष्य धर्मशास्त्रों का विषय रहा है। प्रमुख धर्मग्रंथों की शिक्षाएं प्रलय, कयामत के दिन और डूम्सडे यानी मानव जाति के खात्मे की कल्पना करती हैं। हालिया समय में विज्ञान की गल्प कथाओं ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया है। हालांकि इन भविष्यवाणियों में वैज्ञानिकता का अभाव है और ये वास्तविकता से दूर प्रतीत होती हैं। वैज्ञानिक, शोधकर्ताओं और दार्शनिकों की भविष्यवाणियां व शोध इस महत्वपूर्ण विषय पर तर्कसंगत दृष्टि डालते हैं।

वैज्ञानिक मानते हैं कि भविष्य की तैयारी के लिए सटीक भविष्यवाणी की आवश्यकता नहीं है, बल्कि इसका आधार मजबूत होना चाहिए। साथ ही वर्तमान पर गहन दृष्टि आवश्यक है। ऐसे ही तथ्यों के आधार वैज्ञानिक भविष्य की व्यापक तस्वीर रखने में सक्षम हो पाए हैं।

चार मार्ग

फॉरसाइट जर्नल में मार्च 2019 में प्रकाशित अध्ययन “लॉन्ग टर्म ट्रजेक्टरीज ऑफ ह्यूमन सिविलाइजेशन” में सेठ डी बॉम, स्टुअर्ड आर्मस्ट्रांग, एंडर्स सेंडबर्ग सहित 13 वैज्ञानिकों ने मानव भविष्य की जो रूपरेखा खींची है उसमें चार ट्रजेक्टरी (प्रक्षेप वक्र) उभरकर सामने आई हैं। पहली ट्रजेक्टरी यथास्थिति को दर्शाती है। इस स्थिति में मानव का दीर्घकालीन भविष्य बिल्कुल वैसा ही होगा जैसा मौजूदा समय में है। यह वह स्थिति है जिसमें मानव सभ्यता में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं होंगे। हालांकि अध्ययन में ही माना गया है कि यह स्थिति असंभव सी है। दीर्घकाल में सभ्यता या तो खत्म हो जाएगी अथवा उसका स्वरूप बदल जाएगा। अध्ययन के मुताबिक, आज से कुछ लाख से कुछ करोड़ साल के अंदर सभ्यता का खात्मा हो सकता है क्योंकि सूर्य की गर्मी और उसका आकार बढ़ने से धरती रहने लायक नहीं बचेगी। धरती पर विलुप्ति का इतिहास बताता है कि यथास्थिति में सभ्यता एक अरब वर्ष से अधिक नहीं टिक पाएगी।

दूसरी स्थिति विनाशक ट्रजेक्टरी की दर्शाती है जो मानव सभ्यता की विलुप्ति से संबंधित है। बहुत से अध्ययनों ने परमाणु युद्ध, धरती से विशाल एस्ट्रोरॉयड टकराने, ज्वालामुखी विस्फोट, वैश्विक तापमान, बेलगाम कृत्रिम बौद्धिकता, भौतिक व अन्य आपदाओं की पहचान की है जो मानव के अस्तित्व को खत्म कर सकती हैं। इनमें से कुछ घटनाएं तो मानव को तत्काल विलुप्त कर सकती हैं। उदाहरण के लिए प्रयोगात्मक भौतिक आपदा भूगोलीय स्थिति बदल सकती है और धरती पर जीवन असंभव बना सकती है। एस्टोरॉयड का टकराव, परमाणु युद्ध अथवा ज्वालामुखी में विस्फोट जैसी घटनाएं सूर्य की रोशनी को पूरी तरह रोककर कृषि खत्म कर सकती हैं। हालांकि अध्ययन में पाया गया है कि इससे पूरी तरह विलुप्ति असंभव सी प्रतीत होती है क्योंकि बहुत से लोग भंडारित भोजन, बायोमास से उत्पन्न भोजन और जीवाश्म ईंधन से सहारे अपना अस्तित्व बचा लेंगे। फ्यूचर्स जर्नल में मार्च 2021 में प्रकाशित अपने अध्ययन “सिंगुलर चेन ऑफ इवेंट्स” में ब्रूस टॉन व डोनाल्ड जी मैकग्रेवर ने पाया है कि निर्णायक विलुप्ति की घटनाओं के अभाव में मानव की विलुप्ति वास्तव में बहुत मुश्किल है। विनाशक ट्रजेक्टरी में सबसे अहम बात है कि विनाश की गति। अध्ययन में कहा गया है कि परमाणु युद्ध और महामारी जैसी घटनाएं मानव सभ्यता को अल्प समय में भारी नुकसान पहुंचा सकती हैं, जबकि वैश्विक तापमान व प्राकृतिक संसाधनों का विघटन जैसी घटनाएं धीमी गति से असर डालती हैं। धीमा विनाश मानव को नई परिस्थितियों में ढलने का समय प्रदान करता है।

तीसरी ट्रजेक्टरी तकनीकी कायाकल्प को प्रदर्शित करती है। इस स्थिति में तकनीकी विकास इतना उन्नत हो जाएगा कि मानव का एक अलग ही रूप दिखाई देगा। यह बदलाव अच्छा और बुरा दोनों हो सकता है। अगर तकनीकी विकास अपना रास्ता भटकता है तो विनाश का कारण बन सकता है। मसलन नैनो टेक्नॉलजी बड़े पैमाने पर विनाशकारी हथियार बना सकती है, वहीं बायोटेक्नॉलजी जानलेवा वायरस की उत्पत्ति में अहम भूमिका निभा सकती है। इसी तरह कृत्रिम बौद्धिकता का इस्तेमाल मानव के विरुद्ध हो सकता है। अत: यह करने में कोई गुरेज नहीं है कि तकनीकी विकास मानव विलुप्ति के साथ ही कृषि और उद्योगों के पतन का कारण बन सकता है।

चौथी और अंतित ट्राजेक्टरी खगोलीय है। यानी यह वह स्थिति है जब मानव खुद को बचाने के लिए दूसरे ग्रहों पर अपना ठिकाना बना ले। मंगल ग्रह और चंद्रमा पर बसने की संभावना सबसे अधिक दिखती है। मौजूदा समय में इस संबंध में बहुत से अभियान भी चलाए जा रहे हैं। संभव है कि मानव इन स्थानों पर अपनी कॉलोनी विकसित कर ले। इससे मानव खुद को विलुप्त होने से बचा सकता है, खासकर तब जब पृथ्वी रहने लायक न बचे।



विलुप्ति की आशंका

भविष्य से जुड़े तमाम सवालों और आशंकाओं के बीच सबसे अहम सवाल यह है कि क्या मानव जाति का हश्र उन तमाम प्रजातियों की तरह होगा जो इस धरती से विलुप्त हो चुकी हैं? यह सवाल बेवजह नहीं हैं बल्कि इसके पीछे मजबूत तर्क हैं। अनुमान है कि धरती पर आईं प्रजातियों में 99.9 प्रतिशत पहले ही विलुप्त हो चुकी हैं। इस वक्त मौजूद प्रजातियां 0.1 प्रतिशत ही हैं और मानव भी इनमें शामिल है। इसलिए शेष प्रजातियों की विलुप्ति हैरत की बात नहीं है।

इस विषय पर ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यायल के फ्यूचर ऑफ ह्यूमैनिटी इंस्टीट्यूट के संस्थापक निक बोस्ट्रॉम ने गहन अध्ययन किया है। 2007 में प्रकाशित “फ्यूचर ऑफ ह्यूमैनिटी” नाम से प्रकाशित उनका अध्ययन कहता है कि मानव प्रजाति दो अलग-अलग तरीके से विलुप्त हो सकती है। पहला, मानव की मौजूदा प्रजाति से अन्य प्रजातियों या जीवन का प्रार्दुभाव अथवा उत्पत्ति हो जाए जो पिछली तमाम प्रजातियों से भिन्न हो और उसे होमो सेपियंस न माना जाए। दूसरा, सभी मानव बिना किसी प्रतिस्थापन के नष्ट हो जाएं। हालांकि पहली विलुप्ति यानी मानव से दूसरी प्रजातियों की उत्पत्ति का हश्र भी अंतोगत्वा बाद में दूसरी विलुप्ति जैसा होना है।

मानव की विलुप्ति ऐसा विषय है जिस पर बहुत कम विद्वानों का ध्यान गया है। हालांकि कुछ गंभीर किताबें और शोधपत्र इस पर रोशनी जरूर डालते हैं। मसलन कनाड़ा के दार्शनिक जॉन लेसली ने अपनी किताब “एंड ऑफ द वर्ल्ड” में अनुमान लगाया है कि अगली पांच शताब्दियों में मानव की विलुप्ति की संभावना 30 प्रतिशत तक है। ब्रिटेन के एस्ट्रोनोमर रॉयल व कैंब्रिज विश्वविद्यालय में प्रोफेसर सर मार्टिन रीस का दृष्टिकोण और निराशावादी है। वह अपनी किताब “आवर फाइनल आॅर” में मानते हैं कि 21वीं सदी के अंत तक 50 प्रतिशत से अधिक मानव अपना अस्तित्व नहीं बचा पाएंगे। उनका मानना है कि मानव अपना विनाश खुद कर लेगा। वह मानव की विलुप्ति को तकनीक से जोड़ते हुए कहते हैं, “तकनीक ने हमारे विनाश की पटकथा ही नहीं लिखी है बल्कि उसे और आसान बना दिया है।”

अमेरिका में कानून के विद्वान रिचर्ड पोस्नर मानव की विलुप्ति को आंकड़ों में बयान तो नहीं करते लेकिन विलुप्ति को “महत्वपूर्ण” विनाश के तौर पर देखते हैं। पोस्नर ने अपनी किताब “कैटास्ट्रॉफ : रिस्क एंड रेस्पॉन्स” में मानव सभ्यता के विनाश के जिन चार बड़े कारकों को गिनाया है जिनमें एस्टोरॉयड प्रभाव, उच्च ऊर्जा युक्त तत्वों के टकराने से होने वाला चेन रिएक्शन, वैश्विक जलवायु परिवर्तन और जैव आतंकवाद शामिल है। पोस्नर के अनुसार, एस्टेरॉयड के प्रभाव से एक चौथाई आबादी तत्काल खत्म हो जाएगी और बाकी कुछ समय पर बाद नष्ट हो जाएगी। उन्होंने अलग-अलग आकार के एस्टेरॉयड का मानचित्र तैयार किया है और यह समझाने की कोशिश की है कि कितने समय में ये धरती से टकराते हैं और किस स्तर की तबाही का कारण बनते हैं। वह मानते हैं कि 1 करोड़ साल में बड़े एस्टोरॉयड टकराने की ऐसी घटना घटित होती है। हालांकि ब्रह्मांड में मौजूद छोटे एस्टेरॉयड भी बड़ी परेशानी का सबब बन सकते हैं।

जून 2010 को ऑस्ट्रेलिया के विख्यात वैज्ञानिक और स्मॉलपोक्स को खत्म करने में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले प्रोफेसर फ्रेंक फेनर ने अनुमान लगाया था कि अगले 100 वर्षों में अत्यधिक आबादी, पर्यावरण की बर्बादी और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से मनुष्य धरती से विलुप्त हो सकते हैं। अपने अनुमान को विस्तार देते हुए फेनर ने आगे कहा, “मानव प्रजाति आबादी के विस्फोट और अपने अनियंत्रित उपभोग से बच नहीं पाएगी और अन्य प्रजातियों के समान 100 वर्षों में विलुप्त हो जाएगी। फेनर न द ऑस्ट्रेलियन से बातचीत में माना कि जलवायु परिवर्तन की अभी शुरुआत भर हुई है लेकिन यह हमारी विलुप्ति का संभावित कारण बन सकती है। उन्होंने कहा, “हमारा हश्र भी ईस्टर द्वीप जैसा होगा। ज्यादा लोगों का अर्थ है सीमित संसाधन।” उन्होंने यह भी चेताया कि भविष्य में भोजन के लिए बहुत से युद्ध होंगे। फेनर जिस ईस्टर द्वीप (रापानुई) का जिक्र कर रहे हैं वह चिली में है और अपने विशालकाय पत्थर की मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध है।

इस खूबसूरत और शांत द्वीप में पहली शताब्दी के आसपास पोलिनेशिया के लोग आकर बस गए थे। पहले उनकी आबादी यहां धीरे-धीरे बढ़ी लेकिन बाद में आबादी इतनी बढ़ गई कि लकड़ी, ईंधन व खेती की जमीन तैयार करने के लिए जंगल पूरी तरह नष्ट कर दिए गए और पेड़ों पर रहनी वाली प्रजातियां विलुप्त हो गईं। नतीजतन, 1600 ईसवीं से यहां सभ्यता का विनाश शुरू हो गया और 19वीं शताब्दी के मध्य तक आते-आते पूरी द्वीप से सभी मनुष्यों का अंत हो गया। अमेरिका के भुगोलवेत्ता व इतिहासकार जेरेड मेसन डायमंड ने अपनी पुस्तक “कोलेप्स : हाउ सोयासटीज चूज टू फेल ओर सक्सीड” में रापानुई की विलुप्ति को पर्यावरण क्षरण से जोड़ते हुए इसे “ईकोसाइड” के रूप में देखा है और मानव की भूख न मिटने पर इसे सभ्यता के पतन के मॉडल के रूप में परिभाषित किया है।

बाथ विश्वविद्यालय में इवोल्यूशनरी बायोलॉजी एंड पेलियोओंटोलॉजी में सीनियर लेक्चरार निकोलस आर लॉन्गरिच द कन्वरसेशन में प्रकाशित अपने आलेख में कहते हैं कि मानव नि:संदेह विलुप्ति की तरफ बढ़ रहे हैं। वह लिखते हैं कि सवाल यह नहीं है कि हम विलुप्त होंगे, सवाल यह है कि कब होंगे। निकोलस के अनुसार, बड़ी और गर्म खून वाली हम जैसी प्रजातियां पारिस्थितिकीय टूटन से ठीक से नहीं निपट पाती, जबकि छोटे और ठंडे खून वाली मेंढ़क व सर्प जैसी प्रजातियां बिना भोजन के भी कई महीने तक जीवित रह सकते हैं। इनकी इसी खूबी ने इनका अस्तित्व बचाए रखा है। उनकी दलील है कि ट्राइनासोर्स और मनुष्य जैसे तेज चयापचय वाली प्रजातियों को बहुत सा भोजन नियमित चाहिए। इससे ये प्रजातियां खाद्य आपूर्ति श्रृंखला में ज्वालामुखी, वैश्विक तापमान, हिमयुग और उल्का पिंड से होने वाली ठंडक जैसी हल्की रुकावट से भी संकट में आ सकती हैं।

निक बोस्ट्रॉम के अनुसार, मानव की विलुप्ति का खतरा मुख्य रूप से उसकी गतिविधियों से पैदा हुआ है। हमारी प्रजाति दसियों हजार वर्षों में ज्वालामुखी विस्फोट, एस्टोरॉयड यानी आकाशीय पिंडों के टकराने और अन्य प्राकृतिक खतरों को झेलते आई है। इसे देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि ऐसी घटनाएं विलुप्ति का कारण बन सकती हैं।

बोस्ट्रॉम एस्टेरॉयड टकराने की घटनाओं को भले ही मानव विलुप्ति का उल्लेखनीय कारण न मानें लेकिन बहुत से अध्ययन बताते हैं कि धरती पर एस्टेरॉयड के टकराने से मानव प्रजाति गंभीर खतरे में आ सकती है। साइंस डायरेक्ट में 2022 में प्रकाशित अपने अध्ययन “ह्यूमैनिटी एक्सटिंक्शन बाई एस्टेरॉयड इम्पैक्ट” में जीन मार्क सलोटी मानते हैं कि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि एस्टेरॉयड कितना बड़ा है। उनका मानना है कि 10 किलोमीटर का एस्टेरॉयड मानव की बड़ी आबादी के सामने चुनौती तो पेश कर सकता है लेकिन इससे जीवन खत्म नहीं होगा। लेकिन अगर 100 किलोमीटर के व्यास वाला एस्टेरॉयड धरती से टकराया तो वैश्विक पारिस्थितिक तंत्र में विनाशकारी बदलाव होंगे। इसके परिणामस्वरूप 1,100 किलोमीटर व्यास से बड़ा क्रेटर सृजित हो सकता है।

ऐसी स्थिति में एक मिनट से भी कम समय में एक विनाशकारी आग का गोला 4,800 किलोमीटर के दायरे में आने वाली सभी चीजों को जलाकर नष्ट कर देगा और बहुत दूर तक इसका असर होगा। ऐसे वक्त में भारी मात्रा में पदार्थ निकलेगा जो पूरी दुनिया में फैल जाएगा, जंगलों व शहरों को नष्ट कर देगा और खतरनाक सुनामी और भूकंप लाएगा। सलोटी के अध्ययन के मुताबिक, इस बेहद ऊर्जावान घटना के प्रभाव से हजारों किलोमीटर में चंद सेकेंड के अंदर सभी प्रकार की जीवन खत्म हो जाएगा लेकिन धरती के दूसरी हिस्से में थोड़ा बहुत जीवन शेष रह सकता है। लेकिन बहुत जल्द वहां भी हालात मुश्किल हो जाएंगे क्योंकि तापमान में सैकड़ों डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो जाएगी। इस प्रकार यह घटना मानवीय विलुप्ति का कारण बन सकती है।

बोस्ट्रॉम मानते हैं कि मानव सभ्यता ने खुद की विलुप्ति के बहुत से हथियार तैयार कर लिए हैं, चाहे वह परमाणु हथियार हों या डिजाइनर वायरस या हाई एनर्जी पार्टिकल कोलाइडर। मानव अस्तित्व को चुनौती देने वाला हथियार इस शताब्दी विकसित हुआ है जो तकनीकी विकास की देन है। उन्नत बायोटेक्नॉलजी से नए वायरस विकसित किए जा सकते हैं जो आसानी से संक्रमित तो कर सही सकते हैं, साथ ही उनकी परिवर्तनशीलता एन्फ्लुएंजा वायरस जैसी हो सकती है और यह एचआईवी जैसा मारक भी हो सकता है। मालेक्युलर नैनो तकनीक हथियारों की ऐसी विस्तृत श्रृंखला तैयार कर सकती है जो थर्मोक्यूलर बम और जैविक युद्ध के एजेंट सरीखे खतरनाक हो सकते हैं। भविष्य में बनने वाली सुपर इंटेलिजेंट मशीनें और उनके काम मानवता की भविष्य निर्धारित कर सकती है। बोस्ट्रॉम के अनुसार, ये तमाम चुनौतियां हालिया दशकों की देन हैं जिसकी संख्या आने वाले दिनों में लगातार बढ़ सकती है। उपरोक्त तकनीकी चुनौतियां जहां खतरनाक हैं, वहीं खतरों को कम करने का माद्दा भी रखती हैं। बायोटेक्नॉलजी से बेहतर निदान, टीके और एंटी वायरल दवाएं बनाई जा सकती हैं। इसी तरह मॉलेक्युलर नैनो टेक्नॉलजी बेहद असरदार दवाएं बनाने में मददगार हो सकती है।

प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल अकैडमी ऑफ साइंसेस (पीएएनस) में अगस्त 2022 में प्रकाशित अध्ययन “क्लाइमेट एंडगेम : एक्प्लोरिंग कैटास्ट्रॉफ क्लाइमेट चेंज सिनेरियो” में ल्यूक कैंप लिखते हैं कि अगर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन इसी गति से जारी रहा तब भी 2100 तक वैश्विक तापमान में 2.1 से 3.9 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो जाएगी। अगर 2030 तक नेशनली डिटर्मिंड कंट्रीब्यूशन को पूरी तरह लागू भी कर दिया जाए तब भी इस सदी के अंत तक तापमान 2.4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि संभावित है। अगर दीर्घकाल के सभी लक्ष्यों को पूरा कर भी लिया जाए तब भी तापमान 2.1 डिग्री सेल्सियस तो बढ़ ही जाएगा। यह स्थिति भी विनाशकारी साबित होगी। कैंप के अनुसार, प्लीस्टोसीन युग (26 लाख वर्ष पहले) से पहले से पृथ्वी की सतह पर पूर्व-औद्योगिक की तुलना में 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक का तापमान नहीं रहा है। वह लिखते हैं कि जलवायु परिवर्तन ने पहले भी कई बार मानव समाज के पतन और धरती के इतिहास की सभी पांच मास एक्सटिंग्शन का कारण बना है। कार्बन का बेलगाम उत्सर्जन 21वीं सदी के अंत तक उस सीमा पर पहुंच जाएगा जो पूर्ववर्ती मास एक्सटिंग्शन के लिए जिम्मेदार है। आईपीसीसी ने भी अपनी रिपोर्ट में चेताया है कि 22वीं सदी तक धरती का तापमान प्रारंभिक आयोसीन युग के बराबर हो जाएगा। कहने का अर्थ है कि 5 करोड़ साल का ठंडा तापमान महज दो शताब्दियों (20वीं व 21वीं) में आमूलचूल परिवर्तित हो जाएगा।

यह स्थिति इसलिए भी खतरनाक है कि क्योंकि मानव ने एक खास तापमान में खुद को ढाला है। मानव ने पिछले 12,000 वर्षों में होलोसीन युग की स्थिर जलवायु में खुद को शहरीकृत कृषि समाज के रूप में विकसित किया है। तब से मानव की आबादी इसी 13 डिग्री सेल्सियस के वार्षिक औसत जलवायु में बढ़ी और फली फूली है। इसमें परिवर्तन मानव के लिए विनाशकारी साबित होंगे और इसके भीषण दुष्परिणाम निकलेंगे।

नेचर पत्रिका के संपादक व पेलियनटोलॉजिस्ट हेनरी गी अपनी किताब “ए वेरी शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ लाइफ ऑन अर्थ” में स्पष्ट तौर पर मानव की विलुप्ति की भविष्यवाणी कर रहे हैं। उन्होंने बिना लाग लपेट स्वीकार किया है, “मानव आबादी केवल सिकुड़ने के लिए ही नहीं बल्कि ढहने के लिए तैयार है।” हेनरी गी इस त्रासदी के लिए कई कारणों को जिम्मेदार ठहराते हैं जिनमें अनुवांशिक विविधता में कमी, गिरती जन्म दर, प्रदूषण और शहरों में बढ़ती भीड़ की वजह से तनाव प्रमुख हैं। वह कहते हैं, “मानव पर विलुप्ति का कर्ज (एक्सटिंग्शन डेब्ट) है।

एक्सटिंग्शन डेब्ट सिद्धांत के अनुसार, धरती पर दो प्रकार की प्रजातियां होती हैं। एक वह जो बिखरी (डिसपर्सिंग स्पीसीज) होती हैं दूसरी जो हावी (डोमिनेंट स्पीसीज) होती हैं। डोमिनेंट प्रजातियां जहां रहती हैं वहां पूरी तरह एकाधिकार प्राप्त कर लेती हैं। डिसपर्सिंग प्रजातियां डोमिनेंट प्रजातियों से टकराव होने पर दूसरी जगह चली जाती हैं। वह मानते हैं, “अगर आप किसी स्थान पर हावी रहते हैं तो उस स्थान का मामूली क्षरण भी आपको विलुप्त कर सकता है, भले ही आप कुछ भी कर लें।” वह कहते हैं मानव पर पर्यावरण का भारी कर्ज है और इसीलिए हम खत्म होने ही राह पर हैं। हेनरी गी के अनुसार, किसी भी प्रजाति की प्रगति के दौरान एक वक्त ऐसा आता है, भले जी वह कितनी समृद्ध हो जाए, जब विलुप्ति अपरिहार्य हो जाती है। भले ही उसे टालने के कितने भी प्रयास हों।” उनकी दलील है जब आप शिखर पर पहुंच जाते हैं, तब आपका पतन निश्चित हो जाता है। मानव अपने शिखर पर पहुंच चुका है। वह पूरी धरती पर फैल चुका है, इसलिए उसका पतन शीघ्र होगा। वह मानते हैं कि कुछ सौ वर्षों से कुछ हजार वर्षो के भीतर यह विलुप्ति हो सकती है। इसके संकेत उन लोगों को साफ दिखाई दे रहे हैं जो इसे देखना चाहते हैं।

प्रिंसटॉन यूनिवसिर्टी के एस्ट्रोफिजिकल साइंस विभाग के प्रोफेसर जॉन रिचर्ड गोट तृतीय ने अपनी कमायत के दिन की भविष्यवाणी में अगले 2 लाख साल से 78 लाख साल के भीतर मानव के खत्म होने की 95 प्रतिशत आशंका जताई है। नेचर पत्रिका में 27 मई 1993 में प्रकाशित अपने लेख में गोट कहते हैं कि होमो सेपिंयस का लगभग 2 लाख साल का इतिहास है। धरती पर मौजूद अधिकांश प्रजातियों की औसत आयु 10 से 110 लाख और स्तनधारियों की 20 लाख साल रही है। हमारे पूर्वज होमो इरेक्टस केवल 14 लाख वर्ष रहे और निएंडरथल्स का वजूद 2 लाख साल बना रहा। इस आधार पर मानव की मौजूदा प्रजाति आने वाले कुछ लाख वर्षों में समाप्त हो सकती है।



निरंतर पतन

निक बॉस्ट्रोम ने मानव विलुप्ति के अलावा मानव के भविष्य की तीन अन्य तस्वीरों को खाका पेश किया है। ऐसी ही एक स्थिति है रिकरंट कॉलेप्स यानी वह परिस्थिति जब मानव सभ्यता में लगातार गिरावट दर्ज हो। समाज के लगातार पतन से जुड़ी यह स्थिति मूलरूप से पर्यावरण के बिगड़े स्वरूप की देन है। परमाणु विध्वंस को कुछ समय तक सबसे बड़े खतरे में रूप में देखा जाता था लेकिन अब पर्यावरणीय खतरे ने उसका स्थान ले लिया है। यही वजह है कि आधुनिक निराशावादी मानव की बढ़ती आबादी के सामने आ रही पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं को अब सबसे बड़ा खतरा मानते हैं। वह प्रदूषण और पर्यावरण को बर्बाद करने वाले कदमों से चिंतित प्रतीत होते हैं। इस समस्या पर सबसे पहले ध्यान रकेल कार्लसन ने अपनी किताब “साइलेंट स्प्रिंग” के जरिए आकृष्ट किया था। उन्होंने 1962 में ही कीटनाशकों और सिंथेटिक रसायन से आगाह कर दिया था।

हाल के वर्षों में पर्यावरण चिंताओं के रूप में जलवायु परिवर्तन प्रमुखता से उभरा है। जोसफ टेनर ने 1988 में प्रकाशित अपनी किताब “कोलेप्स ऑफ कॉम्प्लेक्स सोयासटीज” में कहते हैं कि समाज को अपनी आबादी को पालने पोसने के लिए भोजन, ऊर्जा और प्राकृतिक संसाधनों को सुरक्षित करना पड़ता है। इस आपूर्ति श्रृंखला की समस्या सुलझाने के लिए समाज जटिल बन जाता है। उदाहरण के लिए यह नौकरशाही, आधारभूत सुविधाओं, सामाजिक वर्ग विभेद, सैन्य कार्रवाई और कॉलोनी के रूप में विकसित होता है। ट्रेनर की दलील है कि एक समय में सामाजिक जटिलता में निवेश से मामूली लाभ मिलना भी बंद हो जाता है और समाज अपने बड़े आकार के कारण खुद को सीमित नहीं कर पाता, नतीजतन वह बिखर जाता है।

जरेड डायमंड अपनी किताब “कोलेप्स : हाउ सोयासटीज चूज टू फेल ओर सक्सीड” में तर्क देते हैं कि अतीत में समाज के पतन के बहुत सारे मामले वनों के कटाव, आवास की बर्बादी, मिट्टी की गुणवत्ता, जल प्रबंधन की समस्याओं, अधिक शिकार और ज्यादा मछली मारने, नई प्रजातियों के उदय के प्रभाव, मानव जनसंख्या में वृद्धि और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि जैसे पर्यावरणीय कारकों से जुड़े रहे हैं। वह मानते हैं कि इसके अलावा चार अन्य कारक मानव के मौजूदा और भविष्य के समाज के पतन का कारण बन सकते हैं। इन चार कारकों में उन्होंने मानव जनित जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण में जहरीले रसायनों की अधिकता, ऊर्जा में कमी और धरती की प्रकाश संश्लेषण की क्षमता का पूर्ण दोहन माना है। बोस्ट्रॉम लिखते हैं कि अगर वैश्विक सभ्यता का पतन इस प्रकार होता कि वह उससे उबर न पाए तो इसके मानव अस्तित्व मिट सकता है।

स्थिरीकरण की संभावना

तीसरी स्थिति स्थिरीकरण की है जिसे खुद बोस्ट्रॉम असंभव मानते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि हम हाल ही में हम ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं जहां बदलाव बहुत तेजी से हो रहे हैं। तकनीक के इतिहासकार वाक्लाव स्मिल मानते हैं कि हमारी पिछली छह पीढ़ियों ने 5,000 वर्ष के इतिहास के सबसे तेज और गहरे बदलाव देखे हैं।

स्थिरीकरण का मतलब यह भी कि हम दीर्घकाल में स्थापित अपनी प्रवृत्तियों से कट जाएं। इस प्रकार का कटाव संभव नहीं है। अगर हम विकास की मौजूदा प्रवृत्ति को देखें तो पाएंगे कि अगर वैश्विक अर्थव्यवस्था पिछले 50 वर्ष जिनती रफ्तार से आगे बढ़ती है तो 2050 तक दुनिया मौजूदा समय से सात गुणा अधिक अमीर होगी। 2050 तक विश्व की आबादी के 9 बिलियन होने की उम्मीद है, इसलिए औसत संपत्ति नाटकीय ढंग से बढ़ेगी। अगर इससे आगे की सोचें तो 2100 तक दुनिया मौजूदा वक्त से 50 गुणा अधिक संपन्न होगी। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि स्थिरीकरण की स्थिति बेमानी है। तकनीकी विकास इसे और असंभव बना देगा।

पोस्ट ह्यूमैनिटी स्थिति

बोस्ट्रॉम ने भविष्य के मानव के संदर्भ में जिस चौथी और अंतिम स्थिति की बात की है वह पोस्ट ह्यूमैनिटी है। यह वह स्थिति होगी जब मानव से अधिक बुद्धिमान मशीनें ईजाद की जाएंगी। उस वक्त तकनीक विकास इतना उन्नत होगा कि सुपरह्यूमन इंटेलिजेंस हावी हो जाएगा। गणितज्ञ और विज्ञान गल्पकथा लेखक वर्नर विंज ने 1993 में लिखे अपने निबंध “द कमिंग टेक्नोलॉजिकल सिंगुरेलिटी” में भविष्यवाणी कर दी थी, “आने वाले 30 वर्षों में हमारे पास ऐसी तकनीक होगी जो सुपरह्यूमन इंटेलिजेंस सृजित करेगी। इसके बाद बहुत जल्द मानव युग खत्म हो जाएगा।” टेक्नोलॉजिकल सिंगुलेरिटी वह काल्पनिक विचार है जिसमें तकनीकी विकास नियंत्रण से बाहर हो जाता है और उसे बदला नहीं जा सकता। अम्मोन एच ईडन 2013 में प्रकाशित अपनी किताब “सिंगुलेरिटी हाइपोथीसिस: ए साइंटिफिक एंड फिलोसोफिकल असेसमेंट” इसे समझाते हुए लिखते हैं, “बहुत से वैज्ञानिक, दार्शनिक और भविष्यवक्ता मानते हैं कि विनाशकारी तकनीक का विकास कृत्रिम बौद्धिकता, रोबोटिक्स, जेनेटिक इंजीनियरिंग और नेनो टेक्नॉलजी के रूप में फलीभूत हो सकता है जिसे हम टेक्नोलॉजिकल सिंगुलेरिटी कहते हैं। यह वह घटना या चरण है जो मानव सभ्यता को पूरी तरह बदल देगी, शायद मानव की प्रकृति ही बदल जाए। 21वीं सदी के मध्य से पहले यह हो सकता है।”

अमेरिका के कंप्यूटर इंजीनियर ने 2000 में अपने विवादित लेख “वाई द फ्यूचर डस नोट नीड अस” में ही स्पष्ट कर दिया था कि 21वीं सदी की तकनीक इतनी शक्तिशाली होगी कि मानव प्रजाति विलुप्तप्राय हो जाएगी। बोस्ट्रॉम ने इस स्थिति को ही पोस्ट ह्यूमन कंडिशन कहा है और यह निकट भविष्य में घटित हो सकती है।

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