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विज्ञान

तालिबानी हुकूमत से भागे अफगानियों में बड़ी संख्या वैज्ञानिकों की

-पिछले तीन सालों में तालिबान से भागे अफगान नागरिकों की संख्या 50 लाख जा पहुंची है लेकिन इनमें बड़ी संख्या शोधकर्ताओं व वैज्ञानिकों की है और इन भागे वैज्ञानिकों में महिलाओं की संख्या अधिक है

Anil Ashwani Sharma

अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा सत्ता हथियाने के तीन साल बाद लगभग 50 लाख लोग देश छोड़ चुके हैं, जिनमें देश के बड़ी संख्या में वैज्ञानिक और शोधकर्ता शामिल हैं। इनमें अधिकांश का कहना था कि वे खुद को भाग्यशाली मानते हैं, लेकिन उन्होंने किसी भी तरह से जिन देशों में शरण ले रखी है, वहां अब तक अपने पैर जमा नहीं पाएं हैं। तालिबान के चंगुल से भाग निकलने वाले वैज्ञानिकों में अधिकांशत: महिलाएं हैं।

तालिबानी हुकूमत ने 2021 से महिलाओं की पढ़ाई प्रतिबंधित कर दी थी। भाग निकलने वाले कई वैज्ञानिकों का तो यहां तक कहना है कि तालिबान ने तो हमारी जान ही ले ली थी लेकिन जैसे-तैसे हम उनके कब्जे से भाग निकलने में सफल हुए। अफगानिस्तान के शोधकर्ताओं व वैज्ञानिकों ने 2021 में अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद वहां से भाग कर दुनिया भर के कई देशों में शरण ले रखी है। इनमें अधिकांश अब तक जहां-तहां बसने के लिए बस संघर्ष कर रहे हैं।

दूसरे देशों में शरण पाए वैज्ञानिक अब अपने परिवार के सदस्यों व अपने साथियों के बारे में चिंतित हैं, जिन्हें वे पीछे छोड़ आए हैं। इसके अलावा उनके सामने वीजा की अवधि समाप्त होने और स्थानीय लोगों द्वारा लगातार धमकाने वाली स्थिति से निपटना भी पड़ रहा है। उनके अनुभव बताते हैं कि तालिबान के सत्ता में वापस आने के बाद से देश में व्याप्त मानवीय संकट के बीच कई शोधकर्ता, विशेष कर महिलाएं उन लाखों लोगों में शामिल हैं, जिन्हें देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। विश्व खाद्य कार्यक्रम के अनुसार 2023 में अफगानिस्तान में 1.5 करोड़ से अधिक लोगों को आपातकालीन भोजन या नकद सहायता की आवश्यकता थी।

नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार वैज्ञानिकों ने बताया कि तालिबानी हुकूमत में महिलाओं के अधिकारों में गिरावट आई है और लड़कियों को 12 वर्ष की आयु के बाद शिक्षा प्राप्त करने पर प्रतिबंधित कर दिया गया है। यही नहीं महिला शिक्षकों को तो विश्वविद्यालय में पढ़ाने पर प्रतिबंधित कर दिया है।

ध्यान रहे कि 15 अगस्त 2021 को तालिबान द्वारा सत्ता पर कब्जा करने से पहले क्लीनिकल वैज्ञानिक शेकिबा मदी ने काबुल की एक प्रयोगशाला में एक वर्ष से अधिक समय तक प्रशिक्षण प्राप्त किया था। मदी ने चूहों में मॉर्फिन-वापसी के लक्षणों को कम करने पर हर्बल उपचार के प्रभावों का अध्ययन करने की योजना बनाई थी, लेकिन उस शोध को अचानक समाप्त कर दिया गया।

मदादी कहती हैं कि तालिबान ने कहा कि लड़कियों को शोध केंद्र में नहीं जाना चाहिए। वह कहती हैं कि तब मैं बहुत उदास हो गई थी। नए शासन के पहले कुछ महीने बहुत ही डरावने थे। वह उस दौर को याद करती हुई बताती हैं कि हर कोई डरा हुआ था और घर से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। आखिरकार मदादी ने चुपचाप छुप कर एक निजी अस्पताल में काम करना शुरू कर दिया और डॉक्टरों की देखरेख में महिला रोगियों की देखभाल करनी शुरू की और तालिबान के डर से आंखों को छोड़कर अपने पूरे शरीर को ढंकना पूरी तरह से सुनिश्चित किया।

मदादी कहती हैं कि विश्वविद्यालय में शोध कार्य कम कर दिए गए हैं। कई शोधकर्ताओं ने सार्वजनिक-स्वास्थ्य सर्वेक्षणों पर काम करने के लिए प्रयोगशाला छोड़ दी। तालिबान ने शोधकर्ताओं को कुछ भी आलोचनात्मक सामाग्री प्रकाशित करने के खिलाफ चेतावनी भी दी है। लंदन में अंतर्राष्ट्रीय-विकास थिंक-टैंक में कार्यरत एक विज्ञानी और अफगान विद्वान ओरजाला नेमत कहती हैं कि कुछ सीमित शोध हो रहे हैं, लेकिन शोधकर्ता डर से अपने शोधकार्यों को प्रकाशित करने और साझा करने में असुरक्षित महसूस करते हैं।

मार्च 2023 में मदादी अमेरिका की यात्रा के लिए कागजी कार्रवाई के लिए देश की सीमा पार करके पाकिस्तान चली गईं। वह जुलाई 2023 में एक अमेरिकी कार्यक्रम के माध्यम से वहां चली गईं। मदादी अब डॉक्टरी की पढ़ाई कर रही हैं और एक निजी हृदय उपचार केंद्र में काम भी कर रहीं हैं। मदादी खुद को भाग्यशाली मानती हैं। वह बताती हैं कि अफगानिस्तान में उनके कुछ दोस्त बचे हैं, लेकिन वे अपने और अपने परिवार का भरण-पोषण तक करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

अफगानिस्तान के अंतरराष्ट्रीय अलगाव ने वहां के शोधकर्ताओं को विशेष रूप से प्रभावित किया है। तालिबान के कब्जे ने न केवल उन सबका जीवन बदहाल कर दिया है, बल्कि कई शोधकर्ता अपना जीवन सुरक्षित रखने के लिए गुमनाम रहने पर मजबूर हैं। जब तालिबान सत्ता में आया तब एक छात्रा ईरान में मेडिकल स्कूल के अपने अंतिम वर्ष में थी लेकिन वह अपने घर वापस नहीं लौट सकी।

स्नातक होने के बाद छात्रा ने अमेरिका में भ्रूण चिकित्सा विभाग में काम शुरू किया। लेकिन उसे यहां-वहां यात्रा करते समय अभी भी कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वह कहती हैं कि एक अफगान पासपोर्ट वास्तव में जेल में रहने जैसा ही है। वह बताती हैं कि आप कहीं आ जा नहीं जा सकते। इसके अलावा यहां के स्थानीय लोग उनकी राष्ट्रीयता के बारे में नकारात्मक धारणा पाल रखी है।

हालांकि इन तमाम कठिनाइयों के बावजूद यहां कई छात्र अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों द्वारा प्रदान की जाने वाली ऑनलाइन कक्षाएं ले रहे हैं। उदाहरण के लिए 2023 से भारत ने अफगानी स्नातक और स्नातकोत्तर छात्रों को 1,000 रुपए की ऑनलाइन छात्रवृत्ति देने की पेशकश की है। लेकिन इससे नौकरी की कोई संभावना नहीं होने के कारण यहां कि महिला छात्रएं निराश हो रही हैं।

महिला शोधकर्ताओं का कहना है कि भले ही तालिबान जल्द ही देश छोड़ दे, लेकिन इस देश को फिर से शुरू होने में अब बहुत लंबा वक्त लगेगा। वे कहती हैं कि तालिबान शिक्षा या शोध में काम आने वाली हर चीज को खत्म कर रहे हैं। वे कहती हैं कि अगर आप किसी देश को नष्ट करना चाहते हैं तो स्कूलों के दरवाज़े बंद कर दें।

अमेरिकी विश्वविद्यालय में शोध कर रहे अफगान छात्र ने कहा कि स्कूल और विश्वविद्यालय लड़कों और पुरुषों के लिए खुले रहते हैं। तालिबान उन शोध कार्यों को प्रोत्साहित करते हैं, जब तक कि वह उनकी नीतियों को चुनौती नहीं देता। यह शोधकर्ता छात्र ने तालिबान प्रशासन के तहत लगभग दो साल तक एक अफगान विश्वविद्यालय में शोध छात्र के रूप में काम किया। ध्यान रहे कि छात्र की पहचान की रक्षा के लिए शोधकर्ता का नाम नहीं लिखा है।

जनवरी 2022 में इस शोधकर्ता छात्र को तालिबान ने कुछ शैक्षणिक परिवर्तनों और महिलाओं के साथ व्यवहार के खिलाफ विरोध करने के बाद तीन दिनों के लिए जेल में डाल दिया गया था। वह कहते हैं कि यदि आप उनकी नीति के खिलाफ हैं तो आप अत्यधिक खतरे में हैं। एक अन्य शोधकर्ता ने बताया कि अफगानिस्तान में शिक्षाविदों को बोलने की आजादी नहीं है। वे सांस ले सकते हैं, जी सकते हैं, जब तक वे नई व्यवस्था के खिलाफ नहीं बोलते।

अधिकांश शरणार्थी शोधकर्ताओं का कहना है कि हालांकि वे अफगानिस्तान छोड़ने से राहत महसूस कर रहे हैं, लेकिन उनकी परिस्थितियां अनिश्चितता लिए हुए हैं। उदाहरण के लिए एक शोधकर्ता जापान में अर्थशास्त्र में मास्टर डिग्री की पढ़ाई कर रहा है लेकिन अगले साल दो साल का कार्यक्रम समाप्त होने के बाद उसे देश छोड़ना होगा।

अब वह अपने भविष्य को लेकर चिंतित है। मेडिकल के शोधकर्ता मूसा जोया जिन्होंने इस साल गिल्डफोर्ड यूके में सरे विश्वविद्यालय में पोस्ट डॉक्टरल का अध्ययन पूरा किया है लेकिन उनके लिए उपलब्ध शोध अवसरों की कमी के कारण अब वे स्कूली शिक्षक की नौकरी की तलाश में जुटे हुए हैं।

वह कहते हैं कि इस स्थिति ने मेरे सपनों और मेरे जीवन की वास्तविकता के बीच एक बड़ा अंतर पैदा कर दिया है। ध्यान रहे कि वे काबुल विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर के रूप में कार्यरत थे।

वह कहते हैं कि मेरा सपना था एक अच्छा शोधकर्ता बन कर विश्वविद्यालय का प्रोफेसर बनना। हालांकि 2021 से अब तक 200 से अधिक विद्वानों को अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों के माध्यम से सहायता प्राप्त हुई है, जो उन्हें अफगानिस्तान के बाहर अकादमिक नौकरियां खोजने में मदद करते हैं।

रसायन विज्ञान के विशेषज्ञ मोहम्मद हादी मोहम्मदी को लंदन स्थित एक चैरिटी काउंसिल फॉर एट-रिस्क एकेडमिक्स द्वारा सहायता प्रदान की गई, जो विश्वविद्यालयों को शरणार्थी-शिक्षाविदों को रोजगार देने में मदद करती है। वह अफगानिस्तान के मजार-ए-शरीफ में बल्ख विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे थे।

वह बताते हैं कि जब उनका शहर बरबाद हो गया तो वह काबुल चले आए और अपने परिवार के साथ एक छोटे से कमरे में छिप कर रहने लगे। इंग्लैंड में पूर्व सहयोगियों की मदद से उन्हें एक्सेटर विश्वविद्यालय में दो साल पहले नौकरी मिली। मोहम्मदी अब अपनी पत्नी मरियम सरवरी, अपने तीन बच्चों व अफगानिस्तान में रहने  वाले अपने परिवार की महिला सदस्यों के मानसिक स्वास्थ्य के बारे में चिंतित हैं।

वह बताते हैं कि उनकी पत्नी पहले मजार-ए-शरीफ में आरिया विश्वविद्यालय में लेक्चरर थीं। लेकिन मोहम्मदी को अभी भी वापसी की उम्मीद है। वह कहते हैं, “हम वैज्ञानिक हैं, इस स्थिति का समाधान हमारे पास नहीं है, लेकिन इस स्थिति का सारा दर्द हमारे कंधों पर है। हमारे दिलों में एकमात्र रोशनी की उम्मीद अब भी जल रही है।”