प्राकृतिक तरीके से दवा के प्रभावी मात्रा को रेटिना के तय हिस्सों में पहुंचाने में 12 घंटे लग जाते हैं, जबकि विट्रियस तरल को गर्म करने से यह काम केवल 12 मिनट में हो जाता है।  फोटो साभार: आईस्टॉक
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

आईआईटी के शोधकर्ताओं ने खोजा रेटिना में दवा डालने का सटीक तरीका

भारत में लगभग 1.1 करोड़ लोग रेटिना संबंधी समस्याओं से जूझ रहे हैं, इससे निपटने के लिए इस तरह के लेजर-आधारित उपचार की बहुत अधिक जरूरत है।

Dayanidhi

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मद्रास (आईआईटी मद्रास) के शोधकर्ताओं ने दिखाया कि कैसे हल्के लेजर की मदद से आंख की रेटिना के तय हिस्सों तक सटीकता से दवा डाली जा सकती है। इस प्रक्रिया का उपयोग रेटिना संबंधी बीमारियों जैसे रेटिना के फटने और डायबिटिक रेटिनोपैथी के इलाज के लिए किया जा सकता है

प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक, शोधकर्ताओं ने आंख में डाली जाने वाली दवाओं को ‘हल्के लेजर हीटिंग द्वारा उत्पन्न संवहन’ के माध्यम से तय किए गए हिस्से में बेहतर तरीके से पहुंचाया जा सकता है। उन्होंने ताप और भार पर गौर करते हुए मनुष्य की आंख पर विभिन्न प्रकार के उपचारों से पड़ने वाले असर का विश्लेषण करने के लिए सिमुलेशन और मॉडलिंग अध्ययनों का उपयोग किया।

आकंड़ों के मुताबिक, भारत में लगभग 1.1 करोड़ लोग रेटिना संबंधी समस्याओं से जूझ रहे हैं, इनसे तथा आंखों की अन्य परेशानियों से निपटने के लिए इस तरह के लेजर-आधारित उपचार की बहुत अधिक जरूरत है।

रेटिना टियर, डायबिटिक रेटिनोपैथी, मैकुलर एडिमा और रेटिना वेन ऑक्लूजन जैसी बीमारियों के इलाज के लिए रेटिना की लेजर से किए जाने वाले उपचारों का तेजी से उपयोग किया जा रहा है। रेटिना आंख का वह हिस्सा है जिसमें खून की नसें और तंत्रिकाएं होती हैं, इसलिए ऐसे उपचारों को सावधानीपूर्वक और सटीकता के साथ किया जाना चाहिए।

प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि यह शोध लगभग एक दशक पहले आईआईटी मद्रास के मैकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर अरुण नरसिम्हन द्वारा किया गया था। प्रोफेसर नरसिम्हन ने शंकर नेत्रालय के डॉ. लिंगम गोपाल के साथ मिलकर भारत में पहली बार रेटिना पर लेजर विकिरण के प्रभावों पर बायोथर्मल शोध शुरू किया था।

इसके बाद टीम ने बायो-हीट और मास ट्रांसफर के दायरे में आंखों के उपचार के विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण करने के लिए कंप्यूटर सिमुलेशन और प्रयोग किए हैं।

यह शोध प्रोफेसर अरुण नरसिम्हन और आईआईटी मद्रास के स्नातक के छात्र श्रीनिवास विबुथे द्वारा किया गया है। शोधकर्ताओं ने एक ग्लास आई मिमिक का उपयोग करके यह दिखाया कि किस प्रकार हीट-इन्डूस्ट कन्वेक्शन या ऊष्मा-प्रेरित संवहन, रेटिना वाले हिस्से में डाली गई दवाओं को रेटिना के सही हिस्सों तक पहुंचने में लगने वाले समय को कम कर देता है।

विज्ञप्ति में इस तकनीक को लेकर प्रो.अरुण नरसिम्हन ने कहा मनुष्य की आंख के तेजी से किए जा रहे उपचारों का विश्लेषण करने के लिए ग्लास-आई प्रयोगों और बायोहीट सिमुलेशन का उपयोग करते हुए, हल्का ताप रेटिना के तय हिस्से में तेजी से दवा डाली जा सकती है। चिकित्सा के क्षेत्र में इसे आगे बढ़ाने और रेटिना संबंधी रोगों के उपचार में इसे इस्तेमाल करने की आवश्यकता है।

सर्जरी के बाद, रेटिना के उपचार के लिए दवाओं को अक्सर सीधे विट्रियस वाले हिस्सों में डाला जाता है। रेटिना तक पहुंचने के लिए, दवा को तरल पदार्थ से होकर गुजरना चाहिए। प्राकृतिक प्रसार एक धीमी प्रक्रिया है और दवा को तय हिस्से पर प्रभावी स्तर तक पहुंचने में कई घंटों से लेकर कई दिन लग सकते हैं।

विज्ञप्ति के हवाले से प्रोफेसर नरसिम्हन ने कहा कि उन्होंने एक प्रयोग डिजाइन किया जिसमें ज्यामितीय रूप से मनुष्य की आंख के समान एक कांच की आंख, कांच के तरल के लिए पानी और सिलिकॉन तेल और लेजर हीटिंग का अनुकरण करने के लिए एक हीटर का उपयोग किया गया।

शोधकर्ताओं ने आंख के कांच के इलाके में विशेष हिस्सों पर एक ड्रग मिमिक के रूप में एक डाई इंजेक्ट की और कांच के तरल को गर्म करने के साथ और बिना गर्म किए रेटिना के अलग-अलग हिस्सों में इसकी मात्रा को मापा।

विज्ञप्ति में शोध के तकनीकी पहलुओं पर विस्तार से बताते हुए विबुथे ने कहा, जबकि प्राकृतिक तरीके से दवा के प्रभावी मात्रा को रेटिना के तय हिस्सों में पहुंचाने में 12 घंटे लग जाते हैं, जबकि विट्रियस तरल को गर्म करने से यह काम केवल 12 मिनट में हो जाता है।

शोधकर्ताओं ने एक अलग अध्ययन में यह भी दिखाया है कि गर्म करने से आंख के ऊतकों को नुकसान नहीं होता है। थ्रीडी मानव नेत्र मॉडल के बाद के शोध में विबुथे को जर्मनी में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आईसीसीएचएमटी 2023 में अपने शोध को प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया।