आज हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जहां गूगल, यूट्यूब, इंस्टाग्राम और अन्य सोशल-मीडिया प्लेटफॉर्म केवल मनोरंजन का साधन भर नहीं रह गए हैं। ये हमारे विचारों, हमारे निर्णयों और यहां तक कि हमारी स्वास्थ्य से जुड़ी समझ को भी गहराई से प्रभावित कर रहे हैं।
जब भी हम कुछ सर्च करते हैं; चाहे वह बच्चों के टीकाकरण की जानकारी हो, सिरदर्द के घरेलू नुस्खे हों या मानसिक तनाव को कम करने के तरीके; तो हमें मिलने वाला उत्तर केवल हमारे सवाल पर आधारित नहीं होता। वह हमारे पिछले ऑनलाइन व्यवहार, पसंद-नापसंद, स्थान, सामाजिक नेटवर्क और यहां तक कि हमारे मित्रों की रुचियों से भी प्रभावित होता है।
साल 2011 में लेखक एली पैरिसर ने अपनी चर्चित किताब दी फिल्टर बबल: व्हाट द इंटरनेट इज हाइडिंग फ्रॉम यू में बताया था कि किस तरह इंटरनेट के सर्च इंजन और एल्गोरिद्म हमें धीरे-धीरे ऐसे दायरे में कैद कर देते हैं जहां हम वही देखते और सुनते हैं जो हमारी पहले से बनी धारणाओं से मेल खाता है।
हमारे सामने आने वाली सामग्री हमारे पिछले सर्च, ब्राउजिंग आदतों और सोशल कनेक्शनों के आधार पर छनकर आती है, और नतीजा यह होता है कि हमारी पहले से मौजूद राय और भी मजबूत हो जाती है।
इस “फिल्टर बबल” की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि यह अदृश्य है। हमें अक्सर पता भी नहीं चलता कि हम इसके भीतर फंस चुके हैं। जानकारी इतनी चालाकी और सहजता से छनकर आती है कि हमें आभास तक नहीं होता। उदाहरण के लिए, जब हम स्वास्थ्य से जुड़ा कोई सवाल सर्च करते हैं, तो यह सर्च इंजन पर निर्भर करता है कि वह हमें क्या दिखाए। और जब हम बार-बार समान प्रकार के नतीजों पर क्लिक करते हैं, तो यह बुलबुला और भी मजबूत हो जाता है।
समस्या सिर्फ यह नहीं है कि हमें सीमित जानकारी मिल रही है, बल्कि यह भी है कि इस प्रक्रिया के चलते हम गलत या भ्रामक जानकारी के शिकार भी बन सकते हैं खासतौर पर तब, जब हमारी रुचि ऐसे कंटेंट की ओर झुकी हों जो मिथ्या तथ्यों या अफवाहों को बढ़ावा देता है। कुछ शोधकर्ताओं ने तो इस स्थिति को “सूचना का गुरुत्वाकर्षण ब्लैक होल” कहा है। यानी, जैसे एक बार प्रकाश ब्लैक होल में गिरने के बाद बाहर नहीं निकल पाता, वैसे ही अगर कोई व्यक्ति गलत या भ्रामक जानकारी के जाल में फँस जाता है, तो उससे बाहर निकलना बेहद कठिन हो जाता है। हर नई जानकारी उसकी पहले से बनी धारणाओं को और मजबूत करती है, और उसे और गहराई में खींच ले जाती है।
यह समस्या सिर्फ़ तकनीक की वजह से नहीं है। हमारे अपने पूर्वाग्रह, सांस्कृतिक दृष्टिकोण और जानकारी के स्रोत भी इसमें बड़ी भूमिका निभाते हैं। लेकिन जैसे-जैसे इंटरनेट हमारी आदतों और पसंद-नापसंद को समझता जाता है, वैसे-वैसे वह उन व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों को अपनी एल्गोरिद्मिम व्यवस्था में ढाल लेता है। नतीजा यह होता है कि हमें जानकारी का एकतरफा और असंतुलित संस्करण मिलता है।
जब भी हम इंटरनेट पर कुछ सर्च करते हैं, कोई वीडियो देखते हैं, या किसी पोस्ट को लाइक या कमेंट करते हैं, तो हम अपनी पसंद के निशान छोड़ जाते हैं। इन्हीं निशानों से हमारा एक डिजिटल प्रोफ़ाइल बनता है, जिसे तकनीकी भाषा में यूजर डेटा कहा जाता है। फिर इंटरनेट के पीछे काम कर रहे एल्गोरिद्म इसी डेटा का विश्लेषण करके तय करते हैं कि हमें आगे क्या दिखाना है।
टिकटॉक, इंस्टाग्राम रील्स और यूट्यूब शॉर्ट्स जैसे ऐप्स हमारे लिए वीडियो चुनते हैं हमारी उम्र, लिंग, लोकेशन और पिछले व्यवहार के आधार पर। अगर आपने कुछ हेल्थ या योग से जुड़े वीडियो देखे हैं, तो जल्द ही आपका फ़ीड सिर्फ़ उसी तरह की सामग्री से भर जाएगा। आपको लगेगा कि आप अपनी पसंद से चीज़ें देख रहे हैं, लेकिन हकीकत यह है कि अब गूगल आपके लिए सर्च नहीं कर रहा, बल्कि आपके बारे में सर्च कर रहा है। धीरे-धीरे आप एक ऐसे डिजिटल घेरे में घिर जाते हैं जहां सिर्फ़ वही दिखता है जो आपकी सोच से मेल खाता है, और बाकी सब कुछ आपसे छिपा लिया जाता है।
सोशल-मीडिया अब हमारी रोजमर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका है। इंस्टाग्राम रील्स, यूट्यूब शॉर्ट्स और टिकटॉक पर हमें वही सामग्री बार-बार दिखाई जाती है जो हमने पहले देखी या पसंद की हो। उदाहरण के लिए, अगर आपने कुछ बार घरेलू नुस्खों, आयुर्वेद या ब्यूटी टिप्स से जुड़ी रील्स देखीं, तो आपका पूरा फीड उसी तरह की रील्स से भर जाएगा। यही हाल यूट्यूब शॉर्ट्स पर भी है; अगर आपने किसी धार्मिक चमत्कार या किसी विशेष विचारधारा से जुड़ा वीडियो देखा, तो आगे आपको लगातार उसी तरह का कंटेंट दिखने लगेगा।
टिकटॉक जैसे प्लेटफॉर्म पर अक्सर भावनात्मक कहानियां वायरल हो जाती हैं; जैसे कोई व्यक्ति बिना दवा के बीमारी से ठीक हो गया। लोग ऐसी कहानियों पर विश्वास करने लगते हैं और धीरे-धीरे खुद को ऐसे कंटेंट से घिरा पाते हैं, जो उनकी पुरानी धारणाओं को ही मजबूत करता रहता है। नए या अलग नजरिए के लिए जगह लगभग नहीं बचती। यही है “सूचना का ब्लैक होल” यह हमें चुपचाप अपनी ओर खींच लेता है और हमें एहसास तक नहीं होता कि हम एक बहुत संकुचित दुनिया में जीने लगे हैं।
साल 1961 में शोधकर्ता स्टोनर ने समझाया था कि जब लोग केवल उन्हीं के बीच रहते हैं जो उन्हीं जैसा सोचते हैं, तो उनके विचार और भी एकतरफा और उग्र हो जाते हैं। इसे ग्रुप पोलराइजेशन कहा जाता है। जरा सोचिए, अगर आप रोज सोशल-मीडिया पर वही राय सुनते रहें; जैसे वैक्सीन के विरोधियों की बातें या किसी एक विचारधारा का लगातार प्रचार तो धीरे-धीरे वे राय आपको और भी सही लगने लगती हैं। आप अलग विचारों को सुनना बंद कर देते हैं, या मानने लगते हैं कि वे गलत ही होंगे।
इसका असर पूरे समाज पर पड़ता है। पहले बातचीत हमें साझा रास्ते पर लाती थीं, अब बहस और बंटवारा बढ़ने लगे हैं। लोग एक-दूसरे की बातें सुनना छोड़ देते हैं। और सच का मापदंड भी बदल जाता है; अब यह इस पर निर्भर नहीं रहता कि कुछ सही है या गलत, बल्कि इस पर कि हमारे “ग्रुप” के लोग उसे सच मानते हैं या नहीं। इसे सोशल ट्रस्ट पर आधारित सच कहा जाता है, जो कई बार हमें वास्तविक सच से दूर ले जाता है।
इस फ़िल्टर बबल से बाहर निकलने का सबसे बड़ा रास्ता है; जागरूकता और समझ। हमें यह समझना होगा कि ऑनलाइन दिखाई देने वाली जानकारी हमारी पसंद और व्यवहार के हिसाब से चुनी हुई होती है, यह पूरी तस्वीर नहीं है। इसलिए डिजिटल साक्षरता बहुत जरूरी है। लोगों को यह सीखना चाहिए कि इंटरनेट कैसे काम करता है और जानकारी हमेशा कई स्रोतों से लेनी चाहिए, न कि सिर्फ एक से। गूगल जैसी सेवाओं में “हाइड प्राइवेट रिजल्टस” जैसे विकल्प मौजूद हैं, जो सर्च को थोड़ा निष्पक्ष बना सकते हैं।
नई मीडिया के इस दौर में सोशल-मीडिया प्लेटफ़ॉर्म लगातार अपने रिकमेंडेशन सिस्टम को और पैना बना रहे हैं, ताकि लोग ज़्यादा समय तक उनसे जुड़े रहें। लेकिन यही तकनीक जब हमारी पसंद और व्यवहार पर आधारित होकर जानकारी को छाँटने लगती है, तो यह एक अदृश्य दीवार बना देती है; जिसे हम फ़िल्टर बबल कहते हैं। यह बबल हमें समान तरह की सूचनाओं में क़ैद कर देता है, विचारों की विविधता को सीमित कर देता है, और धीरे-धीरे ग्रुप पोलराइज़ेशन जैसी समस्याओं को जन्म देता है।
नतीजा यह होता है कि हम नए या विपरीत विचारों से कट जाते हैं और मानने लगते हैं कि हमारी ही राय अंतिम सच है। इस चुनौती से निपटने के लिए सिर्फ़ तकनीकी उपाय काफ़ी नहीं हैं। हमें सामाजिक और शैक्षिक प्रयासों की भी जरूरत है। एल्गोरिद्म की पारदर्शिता बढ़ानी होगी, मीडिया साक्षरता को प्रोत्साहित करना होगा और लोगों को अलग-अलग स्रोतों से जानकारी खोजने की आदत डालनी होगी। आख़िरकार, तकनीक हमारे लिए है, हम तकनीक के लिए नहीं। अगर हम चाहें, तो यही तकनीक हमारे दृष्टिकोण को और गहरा बनाने के साथ-साथ हमें ज़्यादा खुले विचारों वाला, संवेदनशील और लोकतांत्रिक नागरिक बना सकती है।
लेखक: अरुण कुमार गोंड, शोध छात्र, समाजशास्त्र विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज। इनका शोध ग्रामीण समाज में सोशल-मीडिया के प्रभावों पर केंद्रित है।