भारत के शहरों से प्रतिदिन लगभग 1,50,000 टन ठोस कचरा (एमएसडब्ल्यू) निकलता है जिसमें से केवल 25 प्रतिशत कचरे का प्रसंस्करण किया जाता है। बाकी बचा कचरा या तो खुले में फेंक दिया जाता है या जला दिया जाता है। वर्ष 2030 तक कचरे की यह मात्रा 4,50,000 टन प्रतिदिन हो जाएगी। हमारे शहर इस भारी-भरकम कचरे से किस तरह निपटेंगे? शहरों के लिए योजना बनाने वालों और नीति निर्माताओं ने इस समस्या का आसान हल ढूंढ लिया है और वह यह है कि एमएसडब्ल्यू को कूड़े से बिजली बनाने वाले (डब्ल्यूटीई) संयंत्रों में जला दिया जाए।
इसके पीछे यह तर्क है कि कूड़े को अलग-अलग करने के लिए समय और संसाधन बर्बाद करने से अच्छा है कि बिजली और तेल के उत्पादन के लिए इस मिश्रित कचरे को इकट्टा किया जाए और डब्ल्यूटीई संयंत्र में प्रसंस्कृत किया जाए। कंपनियां देशभर के शहरों के लिए इसे कचरे के चमत्कारी समाधान के रूप में पेश कर रही हैं। सरकार ने इस तर्क को स्वीकार कर लिया है तथा डब्ल्यूटीई संयंत्रों को बढ़ावा देने के लिए कई तरह की सब्सिडी दे रही हैं जिसमें परियोजना स्थल तक कचरा पहुंचाने के लिए शहरों को वित्तीय प्रोत्साहन और न्यूनतम किराए पर भूमि उपलब्ध कराना शामिल है। ये सब्सिडी डब्ल्यूटीई संयंत्रों की लागत का लगभग 40 प्रतिशत है।
डब्ल्यूटीई कोई नई प्रौद्योगिकी नहीं है। पहला डब्ल्यूटीई संयंत्र दिल्ली के तिमारपुर में वर्ष 1987 में स्थापित किया गया था। लेकिन यह असफल रहा था और कुछ दिन बाद ही बंद हो गया था। तब से देश में 130 मेगावाट क्षमता के 14 और डब्ल्यूटीई संयंत्र स्थापित किए गए, लेकिन इनमें से आधे बंद हो चुके हैं। शेष संयंत्रों की पर्यावरणीय उल्लंघनों के संबंध में जांच चल रही है। उदाहरण के लिए वर्ष 2016 में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने पर्यावरण प्रदूषण करने के लिए दिल्ली स्थित ओखला डब्ल्यूटीई संयंत्र पर 25 लाख रुपए का जुर्माना लगाया था।
डब्ल्यूटीई संयंत्रों के भारत में कामयाब न हो पाने का क्या कारण है? इसका मुख्य कारण कचरे की गुणवत्ता और संघटन है। भारत में एमएसडब्ल्यू में ऊर्जा कम होती है और नमी की मात्रा अधिक होती है। चूंकि अधिकांश कचरे को अलग-अलग नहीं किया जाता, इसलिए इसमें निष्क्रिय घटक जैसे मिट्टी और रेत की मात्रा भी अधिक होती है। यह कचरा डब्ल्यूटीई संयंत्रों में जलाने के लिए उपयुक्त नहीं है। इसे जलाने के लिए ईंधन की अधिक आवश्यकता होती है जिससे प्रसंस्करण की लागत भी बढ़ती है और प्रदूषण भी अधिक होता है। दूसरा कारण आर्थिक है। सब्सिडी के बावजूद डब्ल्यूटीई संयंत्रों से उत्पादित बिजली काफी महंगी है। कोयला और सौर संयंत्रों से 3-4 रुपए प्रति किलोवाट की दर से बिजली मिलती है जबकि डब्ल्यूटीई संयंत्र लगभग सात रुपए प्रति किलोवाट की दर से बिजली बेचते हैं। सस्ती बिजली उपलब्ध होने पर वितरण कंपनियां ऐसी महंगी बिजली खरीदने की इच्छुक नहीं होतीं।
तीसरा कारण पर्यावरण और स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव हैं। देशभर के अनुभव यह दर्शाते हैं कि डब्ल्यूटीई संयंत्र पर्यावरणीय मानदंडों को पूरा करने के योग्य नहीं हैं। इसका कारण भी कचरे को अलग-अलग न करना तथा इसकी खराब गुणवत्ता है जो संयंत्रों में ठीक प्रकार से जल नहीं पाता। चूंकि इन संयंत्रों में बड़ी मात्रा में मिश्रित कचरा जलाना होता है, इसलिए साफ-सफाई का ध्यान रख पाना बहुत ही चुनौतीपूर्ण हो जाता है जिससे बदबू आती है और देखने में भी गंदा लगता है। लोग अपने घरों के आसपास प्रदूषित और बदबूदार संयंत्र नहीं चाहते। ऐसी स्थिति में क्या हमें देश में बड़ी संख्या में डब्ल्यूटीई संयंत्र बनाने चाहिए?
ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियमावली, 2016 स्पष्ट रूप से बताती है कि केवल गैर-नवीकरणीय, अधिक ऊर्जा वाले सामान जैसे रबड़ के टायर और मल्टीलेयर प्लास्टिक को ही डब्ल्यूटीई संयंत्र में भेजा जाना चाहिए। प्रतिदिन उत्पादित 150,000 टन कचरे में से केवल 15 प्रतिशत कचरे को ही गैर-नवीकरणीय और उच्च ऊर्जा वाला कचरा कहा जा सकता है। यह लगभग 25,000 टन प्रतिदिन (टीपीडी) के बराबर होता है। लेकिन लगभग 40 निर्माणाधीन और प्रस्तावित डब्ल्यूटीई संयंत्रों की कुल अपशिष्ट शोधन क्षमता पहले ही 30,000 टीपीडी से अधिक है। ऐसे में सवाल यह है कि डब्ल्यूटीई संयंत्रों में जलाने के लिए कचरा है ही कहां?
शहर के लिए योजना बनाने वालों के लिए यह समझना जरूरी है कि डब्ल्यूटीई संयंत्रों की एक भूमिका है लेकिन ये हर तरह का कचरा जलाने के लिए नहीं हैं। उन्हें ऐसा मिश्रित कचरा जलाने को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए अन्यथा ये अपने से पहले के कुछ संयंत्रों की तरह परेशानी दूर करने की बजाए तकलीफ बढ़ाने वाला महंगा साधन बनकर रह जाएंगे।