स्वच्छता

क्या कृषि से जुड़ा कचरा बदल देगा भारत में फैशन का भविष्य

भारत में हर साल ईंधन, चारा और अन्य तरह से उपयोग के बाद भी 14 करोड़ टन कृषि अवशेष बचा रहा जाता है, जिसका उपयोग कपड़ा उद्योग में किया जा सकता ह

Lalit Maurya

इसमें कोई शक नहीं कि कृषि से जुड़ा कचरा जैसे पराली और पौधों के अवशेष किसानों के लिए बड़ी समस्या हैं, पर आने वाले समय में यह समस्या उनके लिए वरदान बन जाएगी। जल्द ही आप इस कृषि से जुड़े कचरे को फैशन रैंप पर देखेंगें। हाल ही में लॉड्स फाउंडेशन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के हवाले से पता चला है कि भारत में वस्त्रों के उत्पादन के लिए कृषि अपशिष्ट से बने प्राकृतिक फाइबर के उपयोग की अपार संभावनाएं मौजूद हैं। जो न केवल कृषि से जुड़े कचरे की समस्या को हल कर देंगी साथ ही फैशन उद्योग के भविष्य को भी बदल देंगी।

यदि वैश्विक स्तर पर देखें तो 2019 में फाइबर उत्पादन 10 करोड़ टन प्रति वर्ष से ऊपर पहुंच गया है, जिसके और बढ़ने की उम्मीद है। इस बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए कृषि अवशेष से बने फाइबर का इस्तेमाल किया जा सकता है। इस फाइबर को सिंथेटिक और नेचुरल फाइबर के साथ मिश्रित किया जा सकता है। यदि इसकी गुणवत्ता की बात करें तो यह फाइबर कपड़ा उद्योग में प्रयोग हो रहे अन्य फाइबर जितना ही बेहतर हैं।

स्पिनिंग फ्यूचर थ्रेडस नामक यह रिपोर्ट इंस्टीट्यूट फॉर सस्टेनेबल कम्युनिटीज (आईएससी), वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट और वैगनिंगन यूनिवर्सिटी एंड रिसर्च द्वारा संयुक्त रूप से तैयार की गई है जिसमें भारत सहित दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया के 8 देशों में इसकी संभावनाओं पर प्रकाश डाला गया है। जिसमें बांग्लादेश, कंबोडिया, पाकिस्तान, इंडोनेशिया, श्रीलंका, थाईलैंड और वियतनाम शामिल हैं। यह सभी देश फसलों से जुड़े अपशिष्ट और वस्त्र उत्पादन दोनों के लिए जाने जाते हैं।

फैशन से जुड़े सबसे उपयुक्त फाइबर को खोजने के लिए शोधकर्ताओं ने 40 से अधिक फसलों और उससे जुड़े कचरे का अध्ययन किया है। इसमें गेहूं, चावल, मक्का, गन्ना, नारियल, पाम आयल, कसावा, सोयाबीन, फल, सब्जियां आदि फसलें शामिल हैं।

इस बारे में लॉड्स फाउंडेशन से जुड़ी अनीता चेस्टर ने बताया कि, "जीवाश्म ईंधन पर अपनी बढ़ती निर्भरता को कम करने के लिए, फैशन उद्योग में भी बदलाव की जरुरत है, उसे सर्कुलर और पुनःउपयोग हो सकने वाले उत्पादों को प्राथमिकता देनी चाहिए। आज कचरे से कुछ अलग और बेहतर बनाया जा सकता है। यह रिपोर्ट भी कृषि अवशेषों से फाइबर बनाने की अपार संभावनाओं को दर्शाती है। साथ ही उन हॉटस्पॉट को भी रेखांकित करती है, जहां इससे जुड़ी संभावनाएं मौजूद हैं।

भारत में हर साल पैदा होता है 50 करोड़ टन कृषि अवशेष

यदि भारत को देखें तो वो दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है। एफएओ स्टेट 2020 के अनुसार भारत में हर साल कृषि से जुड़ा करीब 50 करोड़ टन अवशेष पैदा होता है। जिसमें से ईंधन, चारा और अन्य तरह से उपयोग करने के बाद भी 14 करोड़ टन अवशेष बचा रहा जाता है, उसमें से करीब 9.2 करोड़ टन अपशिष्ट को जला दिया जाता है जो न केवल पर्यावरण बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक होता है।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा किए अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि कृषि से जुड़े इस अवशेष को जलाने से हर साल 14.9 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड, 90 लाख टन कार्बन मोनोऑक्साइड, 2.5 लाख टन सल्फर ऑक्साइड, 12.8 लाख टन पार्टिकुलेट मैटर और 70 हजार टन ब्लैक कार्बन निकलता है। यह न केवल इन्हें जलाए जाने वाले क्षेत्रों और विशेष रूप से उसके आसपास बसे कस्बों और शहरों की वायु गुणवत्ता गुणवत्ता पर भी बुरा असर डालता है, जिससे पर्यावरण और समाज दोनों को खतरा होता है। देखा जाए तो यह समस्या सिर्फ भारत में ही नहीं है, इसके साथ बांग्लादेश, पाकिस्तान, इंडोनेशिया, म्यांमार और वियतनाम जैसे देशों में परली और अन्य तरह का कृषि से जुड़ा कचरा जलाया जाता है और वो भी इस तरह की समस्याओं से जूझ रहे हैं।

ऐसे में यदि इस कचरे का इस्तेमाल कपड़ा उद्योग में फाइबर की जरूरतों को पूरा करने के लिए किया जाए तो यह न केवल कृषि बल्कि कपड़ा उद्योग के लिए भी फायदेमंद होगा। साथ ही यह इस अपशिष्ट से होने वाले प्रदूषण में भी कमी लाएगा जो पर्यावरण और हमारे स्वास्थ्य दोनों के नजरिए से भी फायदेमंद होगा। इसे कपड़ा उद्योग को बेचने से जहां किसानों को अतिरिक्त आय होगी साथ ही उन्हें कचरे से भी छुटकारा मिल जाएगा, जो सामजिक बदलाव लाएगा और उनके जीवनस्तर में सुधार करेगा। वहीं कचरे का पुनः इस्तेमाल संसाधनों की बर्बादी को भी रोकेगा और फैशन उद्योग में भी बदलाव लाएगा, जोकि हमेशा से लोगों की उत्सुकता का कारण रहा है।

इससे जुड़े फायदों के बारे में आईएससी से जुड़े विवेक पी. अधिया ने बताया कि कृषि अवशेष आधारित फाइबर आज एक नए बदलाव के उम्मीद हैं जो अगली फैशन क्रांति को जन्म दे सकते हैं। यह न केवल फैशन को पर्यावरण अनुकूल बनाएगा, ग्रामीण आजीविका में सुधार करेगा साथ ही पर्यावरणीय पर बढ़ते प्रभावों को भी सीमित कर देगा। इससे किसानों और उद्योगों के बीच महत्वपूर्ण संबंध स्थापित करने में मदद मिलेगी।