स्वच्छता

मेरी जुबानी: कचरे के पहाड़ ने निगल ली हरियाली

कोई भी मेरा रिश्तेदार जब मेरे घर आता है तो वह घंटे-दो घंटे से अधिक नहीं ठहर पाता

DTE Staff

आज जब मैं बचपन में अपने घर-गांव के आसपास की हरियाली को याद करता हूं और आज के वर्तमान हालात को देखता हूं तो बरबस मेरा दिल रो पड़ता है। मैं सोचने पर मजबूर हो जाता हूं कि ऐसा कौन सा हमने या मेरे गांव वालों ने अपराध कर दिया था कि भोपाल शहर की सारी गंदगी को हम बचपन से लेकर जवानी तक और अब बुढ़ापे में झेल रहे हैं। मेरे गांव का नाम रासलाखेड़ी है। हर ग्रामीण की चाहत होती है कि उसका गांव शहर के नजदीक बसा हो जिससे उसकी आवश्यक जरूरतें पूरी हो सकें।

लेकिन हमारे लिए भोपाल के नजदीक होना हमारे लिए अभिशाप बन गया है। क्योंकि मेरा गांव भोपाल की कुख्यात भानपुरा गांव खंती (कचरा डालने वाला गड्ढा, जहां पिछले 45 सालों से भोपाल शहर का कचरा डाला जा रहा है) से सटा हुआ है। हम कह सकते हैं कि जिस तेजी से इस खंती का कचरे का पहाड़ ऊंचा उठता गया, उसी तेजी से हमारे आसपास की हरियाली भी जमींदोज होती गई। आज हालात ये हैं कि हम पिछले साढ़े चार दशक से स्वच्छ वायु के लिए तरस कर रह गए हैं।

मैं यह जानता हूं कि कोई भी मेरा रिश्तेदार जब मेरे घर आता है तो वह घंटे-दो घंटे से अधिक नहीं ठहर पाता। इसका एकमात्र कारण मेरे घर-गांव के आसपास की जानलेवा बदबू है। हम तो ऐसी प्रदूषित वायु के आदी हो चुके हैं लेकिन बाहरी लोग इसे सहन नहीं कर पाते। हालांकि जब मैं अपने बचपन के दिन याद करता हूं तो ऐसा भयावह या प्रदूषित या कुरूप गांव कतई नहीं था मेरा।

आज मैं 62 साल का हो चुका हूं। लेकिन यह अच्छे से याद है जब मैं कक्षा पहली से लेकर कक्षा पांच तक भानपुरा गांव के ही प्राइमरी स्कूल में पढ़ने जाता था, तब हम अपने गांव के खेतों की मेड़ों से होते हुए भानपुरा गांव पहुंचते थे। रास्ते भर कई फलदार वृक्ष होते थे और स्कूल से लौटते हुए हम इन्हीं पेड़ों से फल आदि तोड़कर घर लौटते थे। लेकिन अब न मेड़ है न खेत और न ही पेड़। बस दिखता है तो चारों ओर कचरे का एक भयावह पहाड़। इस पहाड़ ने हमारे गांव के पास बहने वाली नदी की धारा ही बदल दी, हालांकि अब यह नदी न होकर एक नाला बनकर रह गई है।

चालीस एकड़ के खेतों में बना कचरे का यह पहाड़ अब इतना बड़ा हो चुका है कि रातबिरात जब आधी नींद में उठते हैं तो हमें इस बात का धोखा हो जाता है कि हमारे गांव के पास पहाड़ कहां से आ गया? मेरा बचपन, जवानी और अब बुढ़ापे को तो इस कचरे ने कुंद कर दिया लेकिन इसके बावजूद मैं कचरे की खंती को हटाने के लिए पिछले 18 सालों से लड़ा और इसका नतीजा भी हमारे हक में आया। अब इस कचरे में भोपाल का और कचरा नहीं डाला जा रहा है। लेकिन यहां से मात्र आठ-दस किलोमीटर दूरी पर बसा आमदपुर छावनी गांव में दूसरे कचरे का पहाड़ बनना शुरू हुआ है। और इसमें भी नगर निगम कर्मी रोज ब रोज आग लगा देते हैं तो इस कचरे का प्रदूषित धुआं हमारे गांव को घेर लेता है।

कुल मिलाकर मुझे ऐसा महसूस होता है कि हम बस कचरे के ढेर में मरने के लिए ही पैदा हुए हैं। मालूम नहीं कब इस कचरे से मुझे और मेरे गांव को मुक्ति मिलेगी। हम यह भी सोचकर खुश नहीं हो सकते िक चलो हमारे गांव में खंती बंद हुई। लेिकन पास के गांव की जहरीली हवा तो हम तक पहुंचेगी ही। आिखर कोई भी गांव-कस्बा या िरहाइश कचरे के जहर को क्यों झेले। यह िसर्फ हमारे गांव की नहीं पूरे देश की समस्या है।

हमें ऐसे कचरा प्रबंधन की जरूरत है िक कहीं भी कचरे का पहाड़ बनने की नौबत नहीं आए। अगर हम कचरे का ही ठीक से प्रबंधन नहीं कर पाए तो िफर किस बात की िवकास गाथा कहते हैं। हमारी जीवनशैली और तकनीक ऐसी हो िक हर घर के ज्यादातर कचरे का िनपटारा उसके अंदर ही हो जाए।