वैज्ञानिकों ने एक ऐसी नई प्रक्रिया विकसित की है जिसकी मदद से इलेक्ट्रॉनिक कचरे से कुछ सेकंडों के भीतर ही बहुमूल्य धातुएं प्राप्त हो जाएंगी। यह तकनीक न केवल पर्यावरण के दृष्टिकोण से बेहतर है साथ ही यह वर्तमान में इस काम के लिए प्रयोग की जा रही विधि की तुलना में 500 गुना कम ऊर्जा की खपत करती है।
राइस यूनिवर्सिटी द्वारा विकसित यह प्रक्रिया पिछले साल खोजी गई फ्लैश जूल हीटिंग पद्धति पर आधारित है। इस पद्धति का फायदा यह है कि इसमें इलेक्ट्रॉनिक कचरे से बहुमूल्य धातुओं को प्राप्त करने के बाद जो उपोत्पाद बचता है वो पूरी तरह सुरक्षित होता है, जिसे लैंडफिल में डाला जा सकता है। इससे जुड़ा शोध जर्नल नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित हुआ है।
राइस लैब में केमिस्ट जेम्स टूर ने दिखाया कि इस तरीके से वेस्ट को रीसायकल करते समय उसमें से क्रोमियम, आर्सेनिक, कैडमियम, मरकरी और लेड जैसी अत्यधिक जहरीली धातुओं को दूर किया जा सकता है, जिससे जो उपोत्पाद बचता है उसमें धातुएं नहीं होती हैं।
कैसे काम करती है यह तकनीक
इस पद्धति में बिजली की मदद से कचरे को 3,400 केल्विन (5,660 डिग्री फ़ारेनहाइट) तक गर्म किया जाता है जिससे कीमती धातुएं वाष्पीकृत हो जाती हैं, जबकि गैसों को अलग एकत्र करने या निपटान के लिए निकाल दिया जाता है।
इस बारे में इस शोध से जुड़े अन्य शोधकर्ता बिंग डेंग ने बताया कि एक बार जब यह धातुएं वाष्पीकृत होकर अलग हो जाती हैं तो इस वाष्प को एक फ्लैश चेंबर से वैक्यूम के तहत दूसरे बर्तन में एकत्र कर लिया जाता है, जोकि ठंडा होता है, जहां वे घटक अपनी धातुओं में संघनित होने लगते हैं। बाद में इन धातुओं को उनकी रिफाइनिंग विधियों की मदद से शुद्ध कर लिया जाता है।
शोधकर्ताओं के अनुसार एक फ्लैश जूल प्रतिक्रिया से इसमें मौजूद लीड की सांद्रता को 0.05 भाग प्रति मिलियन से कम किया जा सकता है। गौरतलब है कि इतनी मात्रा है जिसे यदि मिटटी में दबा दिया जाए तो भी यह कृषि के दृष्टिकोण से हानिकारक नहीं रहती है। इसी तरह फ्लैश जूल प्रतिक्रिया में वृद्धि करके आर्सेनिक, पारा और क्रोमियम के स्तर को भी कम किया जा सकता है।
वैज्ञानिकों की मानें तो इस पद्दति में प्रति टन सामग्री के लिए करीब 939 किलोवाट-घंटे बिजली की जरुरत होती है जोकि वाणिज्यिक तौर पर धातुओं को गलाने के लिए प्रयोग की जा रही भट्टियों की तुलना में 80 गुना कम है जबकि प्रयोगशाला में प्रयोग होने वाली ट्यूब भट्टियों की तुलना में 500 गुना कम ऊर्जा की खपत करती है।
आज जैसे-जैसे तकनीकी विकास हो रहा है वैसे-वैसे हम तेजी से नए इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों को अपनाते जा रहे हैं। समय के साथ इन उत्पादों में बड़ी तेजी से बदलाव आ रहा है जिससे इन्हें बड़ी तेजी से बदल दिया जाता है, नतीजन इनसे पैदा होने वाला इलेक्ट्रॉनिक कचरा भी तेजी से बढ़ रहा है।
कई देशों में इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों के मरम्मत की सीमित व्यवस्था है, यदि हैं भी तो वो बहुत महंगी है| ऐसे में जैसे ही कोई उत्पाद ख़राब होता है| लोग उसे ठीक कराने की जगह बदलना ज्यादा पसंद करते हैं| इस वजह से भी इस कचरे में इजाफा हो रहा है।
केवल 17.4 फीसदी ई-वेस्ट को किया जा रहा है रीसायकल
यूनाइटेड नेशंस यूनिवर्सिटी द्वारा जारी एक रिपोर्ट 'ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनिटर 2020' के मुताबिक वर्ष 2019 में वैश्विक स्तर पर करीब 5.36 करोड़ मीट्रिक टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा हुआ था, जिसके बारे में अनुमान है कि पिछले 5 वर्षों में इसमें 21 फीसदी की वृद्धि हुई है, वहीं अनुमान है कि वो 2030 तक बढ़कर 7.4 करोड़ मीट्रिक टन पर पहुंच जाएगा।
अनुमान है कि 2019 में केवल 17.4 फीसदी इलेक्ट्रॉनिक कचरे को ही एकत्र और रिसाइकल किया गया था। इसका मतलब है कि इस वेस्ट में मौजूद लोहा, तांबा, चांदी, सोना और अन्य बहुमूल्य धातुओं को ऐसे ही डंप या फिर जला दिया जाता है| ऐसे में इस कचरे में मौजूद वो कीमती धातुएं जिनको पुनः प्राप्त किया जा सकता है वो बर्बाद चली जाती हैं, इससे संसाधनों की बर्बादी हो रही है|
यदि 2019 में इस वेस्ट को रिसाइकल न किये जाने से होने वाले नुकसान की बात की जाए तो वो करीब 4.3 लाख करोड़ रुपए के बराबर है, जोकि दुनिया के कई देशों के जीडीपी से भी ज्यादा है| यदि ई-कचरे के भीतर मूल्यवान सामग्री का पुन: उपयोग और पुनर्नवीनीकरण कर लिए जाये, तो उसे फिर से प्रयोग किया जा सकता है, इससे संसाधनों की बर्बादी भी रुक जाएगी और साथ ही सर्कुलर इकॉनमी को भी बढ़ावा मिलेगा।