स्वच्छता

कचरे के प्रति व्यवहार में बदलाव लाना जरूरी

पिछले कुछ सालों में देश में कूड़ा प्रबंधन की रणनीति में तेजी से बदलाव हुआ है, लेकिन अब लोगों को अपने व्यवहार में बदलाव लाना होगा

Sunita Narain

घरों, संस्थानों और फैक्टरियों से निकलने वाले अपशिष्ट (कूड़ा) से निपटने के लिए भारत सरकार अपनी नीतियों को तेजी से विकसित कर रही है। अब ये बदलाव हमारी गतिविधियों में भी परिलक्षित होना चाहिए।

हमारा कूड़ा हमारा संसाधन बनना चाहिए, जोकि दोबारा काम और इस्तेमाल लायक बनाया जा सके। यह कदम हमारी दुनिया में न सिर्फ अधिक से अधिक सामान की खपत को कम करेगा, बल्कि पर्यावरण को होने वाले नुकसान से भी बचाएगा। यह सभी के लिए हितकारी समाधान है।

हम जानते हैं कि समाज जब अमीर और शहरी बनता है तो ठोस अपशिष्ट की प्रकृति बदल जाती है। सड़नशील (गीला) कूड़े की जगह घरों से प्लास्टिक, कागज, धातु और अन्य गैर-सड़नशील (सूखा) कूड़ा ज्यादा निकलता है।

साथ ही प्रति व्यक्ति कूड़े का उत्पादन भी बढ़ जाता है। देश के बहुत सारे शहरी इलाकों में कूड़ा उत्पादन में भारी इजाफा हो गया है।

साल 2020 में जब पहला म्युनिसिपल साॅलिड वेस्ट रूल्स आया था, तो वो बहुत सारे अन्य देशों में पहले से मौजूद नियमों पर आधारित था। इसके तहत कूड़े को संग्रह कर उसे परिवहन के माध्यम से सुरक्षित लैंडफिल साइट पर ले जाना और उसका निपटान करना था।

इसका मुख्य उद्देश्य हमारे आसपास की गंदगी को हटाकर शहर को “साफ” करना था। लेकिन यह नीति व्यवहार में प्रतिबिंबित होने में विफल रही और हमारे शहर में कूड़े का कहर बढ़ता चला गया।

नगरपालिका सेवाओं की कमी के चलते जो कूड़ा नहीं उठाया जा सका, वो हमारे पड़ोस में जमा हो गया। जिसे उठाया गया, उसे डम्प कर दिया गया और वो आज शर्मिंदगी के “पहाड़” के रूप में दिख रहा है।

पिछले कुछ सालों में देश में कूड़ा प्रबंधन की रणनीति में तेजी से बदलाव हुआ है। केंद्र सरकार की वर्तमान नीति जिसके तहत स्वच्छ भारत अभियान (एसबीएम) 2.0 को शुरू किया गया है। इसका पूरा ध्यान स्रोत पर ही कूड़े की छटाई, गीले और सूखे कचरे का प्रसंस्करण और कम से कम कूड़े को लैंडफिल साइट्स पर भेजना है।

एसबीएम 2.0 के दिशा-निर्देशों के मुताबिक, केवल प्रतिक्रयाहीन और प्रसंस्करण में रिजेक्ट हो चुके अपशिष्ट, जिनका गीले या सूखे रूप में अपशिष्ट प्रबंधन नहीं किया जा सकता है, उन्हें ही लैंडफिल साइट्स पर भेजा जा सकता है, लेकिन इनकी मात्रा कुल अपशिष्ट का सिर्फ 20 प्रतिशत होना चाहिए। यानी कि निर्देशों का मुख्य आधार यह है कि शहर लैंडफिल से मुक्त हो।

वे सभी अपशिष्टों को रिकवर और उनका पुनः प्रसंस्करण करें। गाइडलाइन इस बात पर जोर देती है कि “अपशिष्ट से ऊर्जा” (डब्ल्यूटीई) प्रोजेक्ट आर्थिक और संचालन के रूप में तभी व्यावहारिक है, जब प्रतिदिन न्यूनतम 150-200 टन गैर पुनर्चक्रण और उच्च ऊर्जा मान वाले पृथक किये गये सूखे अपशिष्ट जाएं।

हमारी सीख यह रही है कि म्युनिसिपल अपशिष्ट को जलाकर ऊर्जा उत्पादन करने का वादा करने वाला डब्ल्यूटीई कोई जादूई हथियार नहीं है। ये गंभीर है कि जलाने और ऊर्जा उत्पादन के लिए जो अपशिष्ट भेजा जाता है, वो उच्च गुणवत्ता का होता है और उसे उच्च स्तर पर पृथक करने की जरूरत है और ऐसा स्रोत स्थल पर करना ही बेहतर है। यह सब किये बिना प्लान्ट्स उत्पादन क्षमता से कम काम करते हैं और निष्क्रिय हो जाते हैं।

दिशानिर्देश 3,000 लैंडफिल साइट्स को अपशिष्ट मुक्त करने का भी अवसर देता है, जहां केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक 800 मिलियन टन अपशिष्ट पड़ा हुआ है। यह न केवल बहुमूल्य जमीन को मुक्त करेगा जिससे कि उस जमीन को हरा-भरा कर बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता है बल्कि ये पर्यावरणीय आपदाओं को रोकने में भी मदद कर सकता है।

इन पारम्परिक लैंडफिल्स में डम्प हुए अपशिष्ट की बायोमाइनिंग कर उन्हें दोबारा इस्तेमाल करने के लिए विचारपूर्वक रणनीति की जरूरत है। शहरों से भी इन लैंडफिल साइट्स में अपशिष्ट भेजना बंद करना होगा अन्यथा साफ किये जाने के बाद भी ये दोबारा भर जाएंगे।

अच्छी खबर यह है कि भारत की ठोस कूड़ा-कचरा प्रबंधन रणनीति इस तरह से तैयार की गई है जो वस्तु की खपत के बाद उसे दोबारा इस्तेमाल के लायक बनाती है। यह असल चक्रीय अर्थव्यवस्था के लक्ष्य पर आधारित दृष्टिकोण है। चूंकि रणनीति में चीजों के पूरी तरह दोबारा इस्तेमाल और बेकार नहीं रखने पर जोर है, तो हम सीख पाएंगे कि हम किन चीजों की रीसाइक्लिंग नहीं कर सकते और ऐसी चीजों का इस्तेमाल कम करेंगे।

यह नीति और व्यवहार को और भी पर्यावरण हितैषी बनाएगा। नीतियां तो विकसित हो रही हैं, लेकिन हमारे व्यवहार में तेजी आना बाकी है। स्रोत स्थल पर अपशिष्ट को पृथक करना अब भी हमारा कमजोर पक्ष है। यह जिस स्तर पर और जिस तेजी से होना चाहिए, वैसा हो नहीं रहा है। अगर घरेलू स्तर पर अपशिष्ट को पृथक किया भी जाता है, तो वो पृथक रूप में प्रसंस्करण इकाइयों तक पहुंचता नहीं है। सच तो यह है कि प्रसंस्करण दुर्घटनावश हो रहा है और वो भी इसलिए हो रहा है क्योंकि ऐसे लोग भी हैं जिन्हें रोजी-रोटी के लिए अपशिष्ट चाहिए। इन्हें हम कूड़ा बीनने वाला कहते हैं।

शहर प्रबंधक अब भी इस कूड़े के प्रसंस्करण और प्रभावी तरीके से प्रबंधन कर इससे कमाई करने के लिए कई विकल्पों पर काम कर रहे हैं। बुरा तो यह है कि प्लास्टिक कूड़ा, जिसका बड़ा हिस्सा पैकेजिंग से आता है, हमारे शहरों में बढ़ और भर रहा है। हम अब भी यह स्वीकार नहीं करते कि ज्यादातर “प्लास्टिक” जिसका हम इस्तेमाल करते हैं, उन्हें रीसायकल नहीं किया जा सकता है और इसलिए इनका इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए। “सिंगल यूज” प्लास्टिक की वर्तमान नीति, जिसमें कुछ उत्पादों का चयन इसे भविष्य में खत्म करने के लिए किया गया है, इस वृहद समस्या से निपटने के लिए काफी नहीं है।

हम विकास के एक रोमांचक चरण में हैं, जहां शहर के प्रबंधक और नेता अपशिष्ट रणनीतियों पर दोबारा काम कर रहे हैं। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट ने “वेस्ट-वाइज” शहरों के बेहतर कामों का दस्तावेजीकरण करने के लिए नीति आयोग के साथ साझेदारी की है। यह नई सीख और सबक वाली पुस्तक की तरह होगी जिसे हमें बड़े पैमाने पर अभ्यास करना है। बदलाव का यह एक वास्तविक मौका है।