स्वच्छता

अब रेलगाड़ियों के शौचालय से खुद ब खुद होगा कचरे का निपटान

जहां जैव शौचालयों में प्रति यूनिट एक लाख की लागत लगती है, वहीं नई तकनीक की लागत मात्र पंद्रह हजार रुपये है।

Dayanidhi

भारतीय रेलवे की शौचालय व्यवस्था को बनाए रखने के लिए भारतीय वैज्ञानिक ने शौचालय के कचरे के संग्रह के लिए एक स्वचालित तकनीक बनाई है। इस तकनीक के उपयोग से कचरे का निपटान अपने आप हो जाता है। यह तकनीक एक बार लगाने के बाद लगातार काम करती रहती है। इस तकनीक के बारे में जानकारी देते हुए बताया गया है कि यह जैव-शौचालय की तुलना में सात गुना सस्ता विकल्प है।

मौजूदा जैव शौचालय में मानव अपशिष्ट को गैस में परिवर्तित करने के लिए एनारोबिक बैक्टीरिया का उपयोग करते हैं। लेकिन यह बैक्टीरिया यात्रियों द्वारा शौचालय में फेंके गए प्लास्टिक और कपड़े की सामग्री को नष्ट या विघटित नहीं कर सकता है। इसलिए टैंक के अंदर ऐसी अपघटित नहीं होने वाली सामग्री का रखरखाव और इसे बाहर निकालना मुश्किल हो जाता है।

यह तकनीक डॉ. आर.वी. कृष्णैया द्वारा विकसित की गई है। चेब्रोलू इंजीनियरिंग कॉलेज के डॉ. कृष्णैया ने चलती ट्रेनों से शौचालय के कचरे के संग्रह और विभिन्न सामग्रियों को अलग करने और उपयोगी चीजों में बदलने के लिए स्वचालित प्रणाली का निर्माण किया है।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) के उन्नत विनिर्माण प्रौद्योगिकी कार्यक्रम की सहायता से विकसित तकनीक, 'मेक इन इंडिया' पहल के तहत इसे पांच राष्ट्रीय पेटेंट दिए गए हैं जो अभी परीक्षण के चरण में है।

इस स्वचालित प्रणाली में तीन सरल चरण होते हैं - सेप्टिक टैंक : जिसे ट्रैक के नीचे रखा जाता है, यानी ट्रेन की लाइन पर और उपरी सिरे के कवर को खोला जाता है जब ट्रेन रेडियो फ्रीक्वेंसी आइडेंटिफिकेशन (आरएफआईडी) सेंसर और रीडर का उपयोग करके सेप्टिक टैंक के स्थान पर पहुंचती है। इसी तरह जब इंजन और सेप्टिक टैंक की स्थिति में, शौचालय टैंक में सीवरेज सामग्री को सेप्टिक टैंक में गिरा दिया जाता है जब वे परस्पर एक साथ होते हैं और अंत में जब ट्रेन इससे दूर जाती है तो सेप्टिक टैंक कवर अपने आप बंद हो जाता है।

रेलगाड़ी (ट्रेन) के शौचालयों से एकत्रित सीवरेज सामग्री को इस तरह अलग किया जाता है कि मानव अपशिष्ट को एक टैंक में जमा किया जाता है, और अन्य सामग्री जैसे प्लास्टिक सामग्री, कपड़ा सामग्री, आदि को दूसरे टैंक में संग्रहीत किया जाता है। मानव अपशिष्ट को अलग से संसाधित किया जाता है। जबकि दोबारा सामग्री में परिवर्तित करने के लिए प्लास्टिक और कपड़े की सामग्री को अलग से संसाधित किया जाता है।

इस तकनीक को विशेष रूप से लागत में कमी के उद्देश्य से और समय लेने वाली एनारोबिक बैक्टीरिया उत्पादन की आवश्यकता को समाप्त करने के उद्देश्य से भारतीय रेलवे को ध्यान में रखते हुए विकसित किया गया है। एक लाख प्रति यूनिट की लागत वाले जैव शौचालयों के विपरीत, नई तकनीक की लागत केवल पंद्रह हजार रुपये तक आती है। डॉ. आर.वी. कृष्णैया ने इस तकनीक को और बेहतर बनाने के लिए एमटीई इंडस्ट्रीज के साथ करार किया है।