एनजीटी ने उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूपीपीसीबी) को सेप्टिक टैंक से हो रहे ओवरफ्लो के मामले में रिपोर्ट दाखिल करने का आदेश दिया है। मामला अलीगढ़ के मैसर्स उन्नाव कंस्ट्रक्शन प्राइवेट लिमिटेड से जुड़ा है। जिसपर यह आरोप लगा था कि इस क्षेत्र में सेप्टिक टैंक से ओवरफ्लो हो रहा था जिससे पर्यावरण और स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। साथ ही मैसर्स उन्नाव कंस्ट्रक्शन प्राइवेट लिमिटेड ने इस सेप्टिक टैंक के लिए वैधानिक अनुमति भी नहीं ली थी।
अदालत को जानकारी दी गई है कि उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 28 अगस्त, 2019 को इस बाबत एक पत्र लिखा था, जिसमें परियोजना के प्रस्तावक को उपचारात्मक कार्रवाई करने के लिए कहा था। लेकिन इसके बावजूद उसकी तरफ से कोई कार्रवाई नहीं की गई थी।
18 अगस्त, 2020 को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के जस्टिस आदर्श कुमार गोयल और जस्टिस सोनम फेंटसो वांग्दी की खंडपीठ ने राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों (एसपीसीबी) एवं प्रदूषण नियंत्रण समितियों (पीसीसी) को निर्देश दिया कि रेलवे अपशिष्ट प्रबंधन सहित पर्यावरणीय मानदंडों का पालन सुनिश्चित करे। यथा स्थिति के लिए जोनल एवं डिवीजनल रेलवे अधिकारियों को इस मामले पर संबंधित राज्य पीसीबी व पीसीसी को घोषणा पत्र प्रस्तुत करना होगा।
एनजीटी का यह आदेश 13 जुलाई की केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) द्वारा सौंपी गई रिपोर्ट के मद्देनजर आया था।
रिपोर्ट के द्वारा ट्रिब्यूनल को सूचित किया गया कि सीपीसीबी और संबंधित राज्य पीसीबी एवं पीसीसी की टीमों ने जल अधिनियम, 1974, वायु अधिनियम और पर्यावरण संरक्षण (ईपी) अधिनियम की आवश्यकता के संदर्भ में 36 रेलवे स्टेशनों का मूल्यांकन किया है।
सीपीसीबी की एक विशेषज्ञ समिति ने रेलवे स्टेशनों को लाल, नारंगी और हरे रंग की श्रेणियों में वर्गीकृत किया। रिपोर्ट में 'रेलवे स्टेशनों के पर्यावरण प्रदर्शन आकलन' का अवलोकन भी शामिल है।
सीपीसीबी की रिपोर्ट के अनुसार, केवल 11 ने जल अधिनियम और वायु अधिनियम के संदर्भ में 'सहमति' के लिए आवेदन किया है और केवल 3 ने वायु अधिनियम और पर्यावरण संरक्षण (ईपी) अधिनियम के तहत वैधानिक नियमों के अनुसार आवेदन किया है।
एनजीटी ने कहा कि शेष प्रमुख रेलवे स्टेशनों (कुल 720 में से) को आज से तीन महीने के भीतर सहमति एवं प्राधिकरण के लिए आवेदन करने का निर्देश दिया। हालांकि, शुल्क केवल 1 अप्रैल, 2020 से देय होगा और साथ ही कहा गया कि बकाया राशि के भुगतान करने की आवश्यकता नहीं है।
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने 17 अगस्त, 2020 को रेत खनन को लेकर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को निर्देश दिया। एनजीटी ने अवैध रेत खनन के मामले में पर्यावरण क्षतिपूर्ति को ठीक से लागू करने के लिए तय की गई कार्यप्रणाली पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया। समिति को परिदृश्य का विश्लेषण करने के लिए भी कहा गया है। एनजीटी का आदेश 30 जनवरी को सीपीसीबी के द्वारा सौंपी गई रिपोर्ट के मद्देनजर आया था। रिपोर्ट में पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति को तय करने के लिए दो दृष्टिकोणों पर विचार किया गया था। जो निम्नलिखित है :
(अ) दृष्टिकोण 1: पारिस्थितिक नुकसान को देखते हुए, रेत निकालने का मुआवजा बाजार मूल्य के आधार पर होना चाहिए।
(ब) दृष्टिकोण 2: पारिस्थितिक क्षति के लिए एक आसान शुद्ध वर्तमान मूल्य (एनपीवी) की गणना करना।
निष्पक्ष सलाहकार ने कहा कि सुझाए गए मुआवजे का निर्धारण करने का तरीका कठिन है और वर्तमान पारिस्थितिक महत्व के बारे में बताने में इसमें चूक हुई है। छूट की दरों के संबंध में जटिलता है। प्रत्यक्ष मुआवजा देने की विधि बेहतर है लेकिन इसमें और बदलाव करने की आवश्यकता है।
एनजीटी ने निर्देश दिया कि उपरोक्त सुझाव को समिति द्वारा देखा जाना चाहिए और उसके बाद मुआवजे के पैमाने को अंतिम रूप दिया जाना चाहिए।
एनजीटी के समक्ष लक्ष्मी चौहान की ओर से दलीलों का एक संक्षिप्त सारांश प्रस्तुत किया गया, जिसमें छत्तीसगढ़ में 3.1 से 3.5 करोड़ (31 से 35 मिलियन) टन प्रति वर्ष (एमटीपीए) से दीपका ओपन कास्ट कोल माइंस के विस्तार के लिए दी गई पर्यावरणीय मंजूरी (ईसी) को चुनौती देने का कारण बताया गया।
पर्यावरणीय मंजूरी (ईसी) केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा 20 फरवरी, 2018 को साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड को कोयला खनन के विस्तार के लिए प्रदान किया गया था। दलीलों में कहा गया कि केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा दी गई पर्यावरणीय मंजूरी गैरकानूनी, अनुचित और अनियमित है।
पर्यावरणीय मंजूरी (ईसी) से पहले पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए) रिपोर्ट और सार्वजनिक जन सुनवाई की कार्रवाई सहित अन्य दस्तावेजों की विस्तृत जांच करना विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति (ईएसी) का कर्तव्य था। ईएसी ने अनिवार्य जन सुनवाई के बिना विस्तार करने की अनुमति दी। भले ही ईआईए अधिसूचना का प्रावधान अनिवार्य था, लेकिन विस्तार की अनुमति देते समय ईएसी द्वारा इसकी अनदेखी की गई थी।
रिपोर्ट में कहा गया है कि परियोजना ने वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 का उल्लंघन कर 409.056 हेक्टेयर वन भूमि में खनन किया है।
सुप्रीम कोर्ट ने मुंबई में हो रहे औधोगिक प्रदूषण के मामले में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल से अपना अंतिम आदेश देने से पहले फिर से सुनवाई करने के लिए कहा है। यह आदेश 14 अगस्त, 2020 को दिया गया है। मामला मुंबई के अंबापाड़ा और महुल का है।
गौरतलब है कि इस मामले पर एनजीटी ने 30 जून, 2020 को एक आदेश जारी किया था। जिसमें महुल और अंबापाड़ा में हो रहे वायु प्रदूषण पर सीपीसीबी से रिपोर्ट तलब की थी। अपने इस आदेश में एनजीटी ने सीपीसीबी से पूछा था कि वो महाराष्ट्र के महुल और अंबापाड़ा वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों (वीओसी) की मात्रा का आंकलन किस तरह कर रहे हैं। यह मामला मुंबई के बाहरी इलाकों में अंबापाड़ा और माहुल के आसपास हो रहे प्रदूषण और उसके नियंत्रण के लिए उठाए जा रहे क़दमों से जुड़ा था।
गौरतलब है कि इस क्षेत्र में हो रहे वायु प्रदूषण के लिए मुख्य रूप से लॉजिस्टिक सर्विसेज, तेल, गैस और रासायनिक वस्तुओं के भंडारण के साथ-साथ तेल कंपनियों द्वारा किया जा रहा उत्सर्जन जिम्मेवार था। इस इलाके में खतरनाक रसायनों की लोडिंग, भंडारण और अनलोडिंग के कारण वीओसी के साथ-साथ अन्य प्रदूषकों का भी उत्सर्जन हो रहा है।
इस मामले में इससे पहले सीपीसीबी ने 18 मार्च, 2020 को एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। जिसमें प्रदूषण के कारण पर्यावरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य को होने वाले नुकसान का मूल्यांकन किया गया था। साथ ही इसमें उस अनुपात के बारे में भी लिखा था जिस हिसाब से प्रदूषण फैला रही इकाइयों से जुर्माना वसूलना है। इस मामले में आवेदकों ने 1.5 करोड़ रूपए का हर्जाना मांगा था।
इस रिपोर्ट पर भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड, हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड और एजिस लॉजिस्टिक्स लिमिटेड ने कड़ी आपत्ति जताई थी । उनके अनुसार सीपीसीबी ने रिपोर्ट में जो उत्सर्जित वीओसी की मात्रा दिखाई है, वो सही नहीं है। साथ ही उन्होंने इस बात की मांग की थी कि सीपीसीबी ने किस तरह वीओसी की मात्रा का आकलन किया है उसके आधार का खुलासा करे।