प्लास्टिक जलाना ग्रामीण भारत में एक आम बात है। एक नई रिपोर्ट से पता चला है कि भारत में औसतन 67 फीसदी ग्रामीण परिवार नियमित रूप से प्लास्टिक कचरा जलाते हैं। यह वो कचरा है जिन्हें कबाड़ी वाले भी नहीं खरीदते हैं। यह जानकारी संगठन प्रथम द्वारा जारी नई रिपोर्ट “रूरल प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट स्टडी 2022” में सामने आई है। इस रिपोर्ट में देश के 15 शहरों में 70 जिलों के कुल 700 गांवों को शामिल किया गया था। इस अध्ययन का लक्ष्य ग्रामीण भारत में प्लास्टिक कचरे की स्थिति को समझना था।
रिपोर्ट में जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनके अनुसार देश के अधिकांश गांवों में कचरा प्रबंधन के लिए बुनियादी ढांचा नहीं है। जानकारी मिली है कि जहां केवल 36 फीसदी गांवों में कचरे के लिए सार्वजनिक कूड़ेदान की व्यवस्था है। वहीं करीब 70 फीसदी गांवों में कचरा जमा करने के लिए वाहन की व्यवस्था नहीं है, जबकि केवल 47 फीसदी गांवों में एक सफाई कर्मचारी है।
गांवों में अधिकांश स्थानों जैसे जनरल स्टोर, मेडिकल स्टोर, क्लीनिक, अस्पतालों और भोजनालयों के पास प्लास्टिक कचरा पाया गया था। पता चला है कि अध्ययन किए गए 50 से अधिक प्रतिष्ठानों के पास प्लास्टिक कचरे की उपस्थिति पाई गई थी। इनके आसपास आमतौर पर कागज, कार्डबोर्ड, और प्लास्टिक कचरा जैसे रैपर, बोतलें और डिब्बे देखे गए थे।
देखा जाए तो देश के ज्यादातर गांवों में ठोस कचरे के प्रबंधन के लिए कोई औपचारिक तंत्र मौजूद नहीं है। पता चला है कि देश में 20 फीसदी से भी कम गांवों को ठोस कचरे के प्रबंधन के लिए सिस्टम स्थापित करने के लिए सहायता राशि मिली है। ऐसे में 80 फीसदी गांवों की क्या स्थिति है उसका अंदाजा आप स्वयं ही लगा सकते हैं।
74 फीसदी ग्रामीणों को नहीं पता प्लास्टिक जलाने के दुष्परिणाम
ऐसे में औपचारिक बुनियादी ढांचे की कमी का मतलब है कि गांव कबड्डीवालों जैसी अनौपचारिक व्यवस्थाओं पर निर्भर हैं। जो घर-घर जाकर कचरा इकट्ठा करते हैं। पता चला है कि सप्ताह में कम से कम एक बार यह कबाड़ीवाले गांव में हर घर तक जाते हैं। इसके बावजूद रिपोर्ट के अनुसार जिन गांवों का दौरा किया गया था उनमें से ज्यादातर जगहों पर प्लास्टिक कचरे के ढेर देखे गए थे।
देखा जाए तो देश में कचरा प्रबंधन में कबाड़ीवाले एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पता चला है कि ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 93 फीसदी परिवारों की कबाड़ी वालों तक नियमित पहुंच है। हालांकि वो हर तरह का कचरा लेंगें इसकी कोई गारंटी नहीं है। जहां यह लोग कागज, मेटल और कार्डबोर्ड जैसी सामग्री को लेते हैं, वहीं सिंगल यूस प्लास्टिक जैसे रैपर, पाउच, प्लास्टिक पैकेजिंग को यह कबाड़ीवाले नहीं लेते हैं।
ऐसे में यह सिंगल यूज़ प्लास्टिक इन गांवों में एक बड़ी समस्या पैदा कर रहे हैं। गांव वाले इस समस्या से निपटने के लिए या तो इन्हें जला देते हैं, या फिर ऐसे ही खुले में फेंक देते हैं, जबकि इन प्लास्टिक को खुले में जलाने वाले ग्रामीणों में से 74 फीसदी लोग इसके दुष्प्रभावों के बारे में नहीं जानते हैं।
इतना ही नहीं रिपोर्ट में यह भी पता चला है कि किसी भी सामुदायिक अपशिष्ट निपटान वाहनों द्वारा अक्सर अधिकांश दुकानों और भोजनालयों पर दौरा नहीं किया जाता है। गौरतलब है कि 2013 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल द्वारा प्रतिबंधित किए जाने के बावजूद देश में अभी भी प्लास्टिक कचरे को जलाया जा रहा है, जोकि पर्यावरण और स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से एक बड़ी समस्या है।
रिपोर्ट से पता चला है कि देश में सर्वे किए गए 8400 से ज्यादा ग्रामीण घरों में से 67 फीसदी प्लास्टिक कचरे को जला रहे हैं। इसके साथ-साथ मेडिकल स्टोर और अस्पतालों के साथ-साथ अन्य प्रतिष्ठानों द्वारा फेंका और जलाया जा रहा प्लास्टिक वेस्ट भी अपने आप में एक बड़ा खतरा है। पता चला है कि इनमें से ज्यादातर लोग अपने घरों और प्रतिष्ठानों के आसपास ही इस प्लास्टिक कचरे को जला रहे हैं। वहीं कुछ मामलों में तो इन्हें घरों में चूल्हों में भी जलाया जा रहा है।
प्लास्टिक कचरे से निपटने के लिए भारत सरकार ने बहुत सार्थक कदम उठाया था, जब 01 जुलाई 2022 से सिंगल यूज़ प्लास्टिक के निर्माण, आयात, भंडारण, वितरण, बिक्री और उपयोग को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया था।
लेकिन जैसा की सभी कानूनों के साथ होता है जब तक की इनके कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए लोगों को जागरूक नहीं किया जाता और इससे जुड़े मुद्दों पर कठोरता से कार्रवाई नहीं की जाती तब तक वो महज कागजों पर ही बने रहते हैं। ऐसा सिंगल यूज प्लास्टिक के साथ न हो इसके लिए इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है।