भारत पूरी तरह खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) होने का दावा करने जा रहा है। अब देखना यह है कि ओडीएफ का यह स्वयंभू दर्जा कितना टिकाऊ होगा। ऐसा माना जा रहा है कि 10 करोड़ शौचालयों से जुड़े हुए अलग-अलग डिजाइन और खामी वाले टैंक और गड्ढ़े या तो भर गए हैं या भरने वाले हैं। ऐसे में इन टैंक या गड्ढ़ों से मल कीचड़ की सफाई, परिवहन और निस्तारण के लिए इतनी बड़ी मशीनरी कहां से आएगी। क्या फिर से लोगों को ही कानून के विरुद्ध मैला ढ़ोने के लिए विवश होना पड़ेगा। आखिर इन गड्ढ़ों में जमा मल निस्तारण के लिए कहां ले जाया जाएगा? क्या लोग दोबारा मैदान में ही मलत्याग के लिए प्रेरित हो जाएंगे?
यह सारे सवाल इसलिए मौजूद हैं क्योंकि 10 करोड़ से अधिक शौचालय वाला यह देश नहीं जानता है कि 2019 में कितना मल कीचड़ (फीकल स्लज) पैदा हो रहा है और उसके निस्तारण की क्या व्यवस्था है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरमेंट (सीएसई) के एक अध्ययन के मुताबिक देश में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन औसतन 250 ग्राम मलत्याग करता है। इस हिसाब से देश की करीब 1 अरब 33 करोड़ 92 लाख आबादी प्रतिदिन औसतन 3.69 लाख टन मलत्याग कर रही है। वहीं, यह माना जाता है कि हर टैंक या गड्ढ़े की सफाई तीन वर्ष पर होनी चाहिए। 2015 से 2019 स्वच्छ भारत मिशन के तहत बनाए गए सभी सेप्टिक टैंक, ट्विन पिट, बायोडाइजेस्टर, बायो टायलेट को अब खाली करने का वक्त आ गया होगा। भविष्य में इनका इस्तेमाल इनकी सफाई पर ही निर्भर होगा। सफाई हुई तो मल का कीचड़ (फीकल स्लज) कहां जाएगा?
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की इन्वेंटोराइजेशन ऑफ सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स रिपोर्ट देश में सीवेज और उसके उपचार को आंकड़ों में समझाने की कोशिश करती है। रिपोर्ट के मुताबिक 2008-09 में 38,254 मिलियन लीटर प्रति दिन (एमएलडी) सीवेज निकासी होती थी जबकि सीवेज शोधन की क्षमता 12,000 एमएलडी थी। वहीं, रिपोर्ट के अनुसार 2015 में पूरे देश में अनुमानित 62,000 एमएलडी सीवेज की निकासी होती है। सीवेज शोधन के लिए 920 एसटीपी हैं जिसकी क्षमता 23,277 एमएलडी है, जिसमें 615 एसटीपी के जरिए 18,883 एमएलडी सीवेज का ही उपचार होता है। अनुमानित सीवेज निकासी का बहुत ही थोड़ा सा हिस्सा शोधित किया जाता है शेष जल और जमीन को प्रदूषित करता है।
सीवेज शोधन प्लांट (एसटीपी) भी सीधे सीवेज नेटवर्क से नहीं जोड़े जा रहे। सीवेज नेटवर्क के बजाए सीवेज ढोने वाली नालियां जो नदियों और जलाशयों से जाकर मिल जाती हैं उनके पानी को रोक कर एक इंटरसेप्टर बनाया जाता है और एसटीपी में डायवर्ट कर दिया जाता है। अभी तक सभी नाले भी इंटरसेप्टर से नहीं जुड़ पाए हैं।
सीवेज का मतलब बिना शोधित मल-मूत्र का पानी है जो सीवेज नेटवर्क में जाता है। वहीं, बाथरुम और किचन से निकला हुआ गंदा पानी भी सीवेज का ही हिस्सा है। जबकि मल कीचड़ (फीकल स्लज) सेप्टिक टैंक में मौजूद होता है। वहीं ट्विन टैंक से जुड़े शौचलयों का मल कीचड़ खाद में बदल सकता है। यदि टैंक की डिजाइन ठीक हो।
सीपीसीबी की सीवेज संबंधी रिपोर्ट एक भ्रम पैदा करती है। रिपोर्ट की शुरुआत में गंदे जल के अध्ययन और आंकड़े की बात कही गई है। शहर का गंदा जल एक बड़ी छतरी है जिसमें सीवेज एक हिस्सा भर है। रिपोर्ट गंदे जल को ही सीवेज बताती है। जबकि सीवेज की परिभाषा है कि जो भी निकासी सीवेज नेटवर्क में है उसे ही सीवेज में गिना जाएगा। पूरे देश में महज 30 फीसदी सीवेज नेटवर्क है। ऐसे में रिपोर्ट यह स्पष्ट नहीं करती कि 62,000 एमएलडी सीवेज का आकलन 30 फीसदी सीवेज नेटवर्क के आकलन पर केंद्रित है या फिर सभी नालों में बह रहे विभिन्न तरह के गंदे जल पर।
ऐसे में सरकार जिसे सीवेज कहना चाह रही है उससे यह साफ अंदाजा नहीं लगता कि वह कितने मल कीचड़ और उसके उपचार की बात कह रही है। सीएसई में सीवेज नेटवर्क और उससे जुड़ी जानकारियों के अध्ययनकर्ता और विशेषज्ञ भितूश लूथरा बताते हैं कि यह बहुत ही भ्रामक है। अगर देश में प्रति व्यक्ति औसत 80 लीटर प्रतिदिन पानी इस्तेमाल करता है तो उसमें से 64 लीटर पानी गंदा पानी बन कर बाहर आता है। यह सिर्फ घरेलू इस्तेमाल की बात है। इसलिए गंदे पानी को ही सीवेज और फीकल स्लज कहना बड़ी टेढ़ी बात है। यह परिभाषा के अनुकूल भी नहीं है।
2015 की इस रिपोर्ट के बाद कोई अध्ययन और आंकड़ा सरकार की तरफ से नहीं पेश किया गया है जिससे यह अंदाजा लगे कि देश में कितना सीवेज निकलता है और कितने का उपचार किया जा रहा है। जो भी जानकारी अभी तक है वह 2015 की है जबकि उसके बाद से स्वच्छ भारत मिशन योजना के तले 10 करोड़ शौचालय बनाए गए हैं। अब इन टैंकों से मल का कीचर कैसे निकलेगा यह सोचा ही नहीं गया।
सीएसई के भितूश लूथरा बताते हैं कि जब अंधाधुंध शौचालय बनाए जा रहे थे तो यह ध्यान ही नहीं रखा गया कि सीवेज नेटवर्क बनाया जाए। स्वच्छ भारत मिशन के तहत चार तरह के शौचालय बनाए गए। शहरों में दो या तीन चैंबर वाले सेप्टिक टैंक और गांवों में ट्विन टैंक। वहीं, इसके अलावा रेलवे की तरह बायोडाइजेस्टर और बायो टायलेट भी बनाए गए।
सेप्टिक टैंक को तो खाली करना ही पड़ेगा लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में मल से खाद बनाने वाले ट्विन टैंक की डिजाईन यदि खराब है तो वह किसी काम का नहीं रह जाएगा। उसे भी खाली ही करना पड़ेगा। उत्तर प्रदेश और झारखंड में करीब 60 से 70 फीसदी टैंक की डिजाईन में कुछ न कुछ खामी है। खासतौर से ट्विन टैंक में भी। इसलिए ओडीएफ पर टिके रहने के लिए बड़े पैमाने पर इनको खाली करते रहना पड़ेगा। वरना ऐसे स्थान जहाँ भू- जल स्तर अधिक है वहाँ प्रदूषण जारी रहेगा।
देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में मल प्रबंधन व्यवस्था को समझने की कोशिश करते हैं ताकि आपको अंदाजा लगे कि यह मल प्रबंधन कितनी बड़ी चुनौती साबित होने वाली है। सीएसई की ओर से 23 दिसंबर 2018 को यूपी के 66 प्रमुख शहरों में फीकल स्लज यानी मल कीचड़ के प्रबंधन वाली रिपोर्ट तैयार की गई थी।
इस रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश में 63 फीसदी लोग सेप्टिक टैंक और पिट लैट्रिन पर निर्भर हैं। इनमें से 11 फीसदी मल कीचड़ का उपचार हो जाता है। 52 फीसदी आबादी के मल का कोई उपचार नहीं होता। इनके टैंक को खाली कर किसी जगह निस्तारण किए जाने की जरूरत है। अब सवाल है कि यह निस्तारण कैसे होगा?
इसके अलावा उत्तर प्रदेश में 29 फीसदी आबादी ऐसी है जो सीवेज नेटवर्क से जुड़ी है। इनमें महज 16 फीसदी ही सीवेज का उपचार होता है। मल कीचड़ का उपचार नहीं हो पाता है।
देश में 20 फीकल स्लज प्लांट पायलट योजना के तहत बनाए गए हैं। ओडिशा को छोड़ कर शेष राज्यों में इनकी रफ्तार बेहद धीमी है। ऐसे में इतनी बड़ी आबादी का मल कीचड़ उपचार के लिए प्लांट तक पहुंचाना और फिर उसका उपचार करना ही बेहद
उत्तर प्रदेश एक चेहरा है जिसे देखकर देशभर की शौचालय व्यवस्था में मल प्रबंधन का अंदाजा लगाया जा सकता है। मल कीचड़ सेप्टिक टैंक से निकलकर नदियों में जाएगा या फिर उसी टैंक में ही पड़ा रह जाएगा। और ओडीएफ भारत फिर से मलत्याग के लिए मैदान, खेत, नालियों की तरफ भागने लगेगा। यह मंजर बहुत जल्द सामने आने वाला है।