नदी

नदी की बेसहारा संतानें

नदी पर आश्रित मछुआरे अपने पुश्तैनी पेशे को छोड़कर मजदूर बनने को विवश हो रहे हैं। सरकारी नीतियों में उनके लिए कोई जगह नहीं है

Bhagirath

गणपत उम्मीद हार चुके हैं और निराशा भरी जिंदगी को बोझ की तरह ढो रहे हैं। जिस नदी को वह अपनी मां समझते थे, वह उनका पेट भरने में अब सक्षम नहीं है। अब उन्हें मछलियां नहीं मिलतीं। परिवार का पेट भरने के लिए काम की तलाश में अक्सर शहरों का रुख करना पड़ता है। बांदा जिले के बदुआपुरवा गांव में रहने वाले गणपत मल्लाह समुदाय से आते हैं। उनके पूर्वज सदियों से गांव के बगल से गुजरने वाली केन नदी पर आश्रित रहे हैं और नदी भी उनका लालन-पालन करने में कोई कसर नहीं छोड़ती थी। उन्हें इतनी मछलियां मिल जाती थीं कि जिंदगी की गाड़ी चलती रहती थी। लेकिन अब हालात बदल चुके हैं।

इन बदली हुई परिस्थितियों की तस्दीक मुकेश कश्यप भी करते हैं। अपने कच्चे घर की देहरी पर गुमसुम बैठे मुकेश के परिवार में कुल 15 सदस्य हैं लेकिन कमाने वाले महज तीन लोग ही हैं। उत्तर प्रदेश की औद्योगिक राजधानी कानपुर से 24 किलोमीटर दूर गंगा नदी के तट पर बसे बिठूर कस्बे के अजीमुल्ला नगर वार्ड में 40 मछुआरों का परिवार रहता है। मुकेश का परिवार भी इन्ही में से एक है। इन परिवारों का भी आजीविका का पुश्तैनी साधन लगभग खत्म हो गया है।

आजीविका का पारंपरिक साधन खत्म होने पर अब क्या काम करते हैं और घर का खर्च कैसे चलता है? यह सवाल पूछने पर मुकेश बुझे मन से बताते हैं “हम लोग दिहाड़ी मजदूरी कर रहे हैं। कभी बिठूर, कभी कानपुर तो कभी दूसरे शहरों में चले जाते हैं। पहले साइकिल रिक्शा चलाते थे लेकिन अब वह भी बंद हो गया है।” अजीमुल्ला नगर वॉर्ड में रहने वाले मछुआरे देश के अन्य मछुआरों की तरह भूमिहीन हैं। जमीन के नाम पर नदी किनारे जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा उन्हें मिल जाता है जिस पर वे ककड़ी, खीरा, लौकी, तरबूज आदि उगा (आम बोलचाल में इसे कछुआरा लगाना कहते हैं) लेते हैं लेकिन इससे इतनी आमदनी नहीं हो पाती कि घर चल सके। मुकेश का परिवार 500 गज की जमीन पर कछुआरा लगाता है।

बिठूर से करीब 900 किलोमीटर दूर बिहार के भागलपुर जिले के कहलगांव स्थित कागजीटोला में मछुआरों को गंगा से मछली पकड़ने की स्वतंत्रता है। इसके बावजूद उनकी स्थिति बिठूर के मछुआरे से बेहतर नहीं कही जा सकती है। भागलपुर में जल श्रमिक संघ के प्रांतीय अध्यक्ष योगेंद्र सहनी साफ कहते हैं, “गंगा नदी में मछली नहीं मिलने के कारण मछुआरे भुखमरी की कगार पर पहुंच गए हैं।” वह बताते हैं कि 1971 से पहले गंगा नदी में हिल्सा, सौंक्ची, झींगा आदि मछलियां मिलती थीं। लेकिन अब ज्यादातर मछलियां विलुप्त हो गई हैं।

कागजीटोला में मछुआरों के 800 परिवार हैं जिनमें महज 200 परिवार ही अपने परंपरागत पेशे से जुड़े हैं। बाकी के 600 परिवार या तो काम की तलाश में पलायन कर गए हैं या आसपास फल, मूंगफली, गोलगप्पा और सब्जी आदि बेचने का काम कर रहे हैं। कई मछुआरे दूसरे राज्यों में मजदूरी और कारखानों में काम कर किसी तरह गुजर-बसर कर रहे हैं। कागजीटोला के मछुआरों की दिक्कतें यहीं खत्म नहीं हो जातीं। उन्हें मछली माफिया और अपराधियों का डर भी सताता रहता है। उनके साथ अक्सर लूटपाट और हत्या की वारदात हो जाती है। निराशा जाहिर करते हुए सहनी कहते हैं, “मछुआरे नदी क्षेत्र में पुलिस पेट्रोलिंग की मांग करते-करते थक चुके हैं लेकिन अब तक इस मांग पर ध्यान नहीं दिया गया है।”

गंगा सागर मत्स्य उद्योग सहकारी समिति के अध्यक्ष श्रीराम ढीमर मछुआरों की उपेक्षा की वजह बताते हैं, “मत्स्यिकी विभाग में अधिकारी ऊंची जाति के लोग होते हैं। उन्हें मछुआरों से कोई सरोकार नहीं होता और मछलियों से भी कोई लेना देना नहीं होता।” श्रीराम मध्य प्रदेश के नवगठित निवाड़ी जिले के दर्रेठा गांव में रहते हैं। उनके पूर्वज बेतवा और जामनी नदी से मछलियां पकड़ते थे लेकिन श्रीराम की दिलचस्पी नदी की मछलियों में कम हो गई है। इसकी वजह समझाते हुए वह कहते हैं “नदियों पर मछुआरों का कानूनी अधिकार नहीं है। यदि कोई मछुआरा चोरी छिपे मछली पकड़ने जाता भी है तो वन विभाग के लोग उसे पकड़ लेते हैं और उसकी मछलियां व जाल छीन लेते हैं।” श्रीराम मजबूरी में अब एक समिति के माध्यम से तालाब में मछलीपालन कर रहे हैं।

दुर्दशा का यह अंत नहीं है। हैरानी भरा यह भी है कि इतनी संवेदनशील आबादी का ताजा आंकड़ा तक उपलब्ध नहीं है। पशुधन जनगणना 2013 में मछुआरों की आबादी 1.44 करोड़ आंकी गई थी। इसके बाद की जनगणना में इसकी जरूरत भी नहीं समझी गई। नदी के मछुआरों की तो अलग से कभी गणना ही नहीं हुई। अनुमान है कि करीब एक करोड़ लोग जीवनयापन और पोषण की जरूरतों के लिए नदियों पर निर्भर हैं। इतनी बड़ी आबादी और उसकी आजीविका पर किसी का ध्यान नहीं है। मछुआरों के लिए एक राष्ट्रीय नीति और मंत्रालय बनाने की मांग लंबे समय से हो रही है लेकिन अब तक यह हकीकत का रूप नहीं ले सकी।



नीली क्रांति के बीच दयनीय

भारत में 1.96 लाख किलोमीटर के क्षेत्र में नदियों और नहरों का फैलाव है। ताजे पानी में 765 मछलियों की प्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें 450 प्रजातियां छोटी मछलियों की है। इनमें अधिकांश मछलियों की रिहाइश नदियां हैं और नदियों का 12,363 किलोमीटर का दायरा प्रदूषित है जो गंगा की लंबाई का पांच गुणा है (देखें प्रदूषित जीवनधारा, पेज 19)। पर्यावरण मंत्रालय ने राज्य सभा में पूछे एक गए प्रश्न के जवाब में 12 फरवरी 2019 को बताया कि विभिन्न राज्यों में 351 नदियां प्रदूषित हैं। इसका सीधा असर मछुआरों और उनकी आजीविका पर पड़ रहा है। ब्रह्मपुत्र नदी के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। 2001-05 के बीच गुवाहाटी में इस नदी से हर साल 474.1 टन मछली पकड़ी जाती थी जो 2006-10 में घटकर 173.9 टन प्रति वर्ष हो गई। 2011-15 की अवधि में यह मात्रा और घटकर 90.3 टन प्रति वर्ष पर पहुंच गई। विडंबना देखिए कि यह सब ऐसे समय में हो रहा है जब देश नीली क्रांति (मछली का िरकॉर्ड उत्पादन) के दौर से गुजर रहा है। भारत में 2009-10 में अंतर्स्थलीय (इनलैंड) मछली उत्पादन 78 लाख 53 हजार टन से बढ़कर 2016-17 में 114 लाख 9 हजार टन पर पहुंच गया है। ये आंकड़े भारत को चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा मछली उत्पादक देश बनाते हैं।

प्रदूषण मछलियों और मछुआरों को किस हद तक नुकसान पहुंचाकर रहा है इसकी झलक कानपुर में स्थानीय पत्रकार प्रवीण मोहता की बातों से मिलती है। वह बताते हैं कि उत्तर प्रदेश के हरदोई से निकलने वाली और कन्नौज में गंगा में मिलने वाली गर्रा नदी में पिछले साल मई में लाखों मछलियां मर गईं। बकौल मोहता, “शाहजहांपुर और हरदोई की फैक्ट्रियों से गर्रा नदी में जहरीला पानी आया था जिससे छोटी से लेकर बड़ी मछलियों तक को मार दिया।” मई 2018 में ऐसा ही एक वाक्या पंजाब के बटाला में भी हुआ था। यहां चीनी मिल का शीरा ब्यास नदी में मिलने से 10 लाख से अधिक मछलियां मर गई थीं। श्रीराम बताते हैं कि मछली माफिया नदी में जहर भी घोल देते हैं। साथ ही डायनामाइट से विस्फोट भी करते हैं और कभी-कभी नदी में करंट तक छोड़ देते हैं। इस कारण छोटी से लेकर बड़ी मछलियां तक मर जाती हैं। कम बारिश और सूखे के हालात भी मछुआरों और मछलियों पर असर डाल रहे हैं।

कागजीटोला के योगेंद्र सहनी को अब भी याद है कि पहले गंगा में मछलियों की अनगिनत प्रजातियां मिलती थीं। वह बताते हैं कि 70 के दशक तक गंगा में मसार, हिल्सा, झींगा, सीलन, सौंक्ची, बड़ी भुलवा, मिरका, बड़ा बुल्ला आदि मछलियों बहुतायत में थीं लेकिन अब सिहोरा, टेंगरी, बगार, सुतली जैसी कुछ प्रजातियां ही बची हैं। यह स्थिति मुख्तय: तीन वजह से हुई। पहला प्रदूषण, दूसरा गंगा में फरक्का बैराज का बनना और तीसरा अपराधियों व ठेकेदारों द्वारा छोटी से छोटी मछलियों का विनाश।

मुसीबत बढ़ा रहे हैं बांध

साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम, रिवर्स एंड पीपल्स (एसएएनडीआरपी) से जुड़ी परिणीता दांडेकर लंबे समय से नदी संरक्षण और मछुआरों पर नजर रख रही हैं। वह मछुआरों की बदहाली को सीधे तौर पर बांधों से जोड़ती हैं। परिणीता बताती हैं, “हम लोग नदियों के पोषक मछुआरों की उपेक्षा कर रहे हैं। ये मछुआरे देश के सबसे निर्धनतम लोगों में शामिल हैं जिन्होंने व्यवस्था से कभी कुछ नहीं मांगा और व्यवस्था ने भी कभी उन पर ध्यान नहीं दिया।” उनका कहना है कि जब भी कोई बांध बनता है तो मछुआरों के गांव के गांव गायब हो जाते हैं। गरीबी में जी रहे इस समुदाय को अपने अधिकारों की जानकारी नहीं है। केवल गुजरात के भरूच, गोवा और गंगा के मछुआरों की ही आवाज कभी-कभी सुनने को मिलती है। उनका कहना है कि देश में 5,000 से ज्यादा बड़े बांध हैं जो मछुआरों को उनकी आजीविका के साधन से वंचित कर रहे हैं। इन बांधों से मछली पकड़ने का अधिकार परंपरागत मछुआरों को नहीं है।

परिणीता मानती हैं कि इन बांधों के कारण मछलियों का आवागमन रुक जाता है और इससे अंतत: मछुआरे ही प्रभावित होते हैं। इसका उदाहरण देते हुए वह बताती हैं, “ब्रह्मपुत्र में तटबंधों के बनने से मछलियां 60 से 70 प्रतिशत तक कम हो गईं। वहीं असम जैसा राज्य जिसकी संस्कृति में मछलियां अहम हिस्सा थीं, वहां भी दूसरे राज्यों से मछलियां आ रही हैं। नर्मदा से महासीर मछली खत्म होती जा रही है और गोदावरी में झींगा मछली भी विलुप्ति की कगार पर है।”

ओडिशा ट्रेडिशनल फिशवर्कर्स यूनियन के अध्यक्ष के. अल्लेया मछुआरों की बदहाली को औद्योगिक प्रदूषण के साथ-साथ खेती में उर्वरकों के अत्यधिक इस्तेमाल से जोड़ते हैं। अल्लेया बताते हैं, “नदी के मुहाने में भारी मात्रा में गाद जमा होने के कारण बारिश के वक्त नदी का पानी नियमित तरीके से समुद्र में नहीं पहुंच जाता। इससे समुद्र से नदी में आने वाली मछलियों का रास्ता अवरुद्ध हो जाता है।”

पश्चिम बंगाल में बड़े पैमाने पर मछली का उत्पादन होता है और लगभग हर घर के भोजन में मछलियां शामिल हैं। अनुमान है कि राज्य में 3 लाख से ज्यादा मछुआरे प्रत्यक्ष रूप से नदियों पर निर्भर हैं। राज्य में मछुआरों के संगठन दक्षिणबंगा मत्स्यजीवी फोरम (डीएमएफ) के महासचिव मिलन दास बांधों, वनों की कटाई, सिंचाई के लिए नदी के पानी का उपयोग और शहरों व उद्योगों को इस हालात का जिम्मेदार मानते हैं। वह बताते हैं, “इन वजहों से नदी का बहाव और जलविज्ञान प्रभावित हुआ है। नतीजतन, मछलियों का आवागमन बाधित हुआ और वे एक छोटे हिस्से में सीमित रह गईं।” नदियों से सिंचाई के लिए भारी मात्रा में पानी निकालने से नदियों और नहरें सूख गईं और इससे मछलियों के अस्तित्व पर संकट खड़ा हो गया।

उत्तरी बंगाल के गाजोलडोबा में रहने वाले मछुआरे बबलू बताते हैं, “तीस्ता बैराज के निचले हिस्से में साल के ज्यादातर समय में हमें मछलियां मिलनी बंद हो गई हैं। यह स्थिति इसलिए आई क्योंकि बैराज के कारण नदी का बहाव थम गया है।” नदियों में औद्योगिक कचरा बहाने का हश्र क्या हो रहा है, यह बात मछली पकड़ने का परंपरागत काम करने वाली सबीता अच्छी तरह जानती हैं। वह अपना दर्द बयान करती हैं, “भारत-बांग्लादेश सीमा पर बांग्लादेश के दर्शना नगर में चीनी व शराब की एक फैक्ट्री है। इससे निकलने वाला अपशिष्ट माथाभंगा चूर्णी नदी में बहाया जाता है। इस जहरीले कचरे ने नदी से मछलियों को लगभग खत्म कर दिया है।” सबीता आगे बताती हैं कि हम दिन प्रतिदिन गरीब होते जा रहे हैं जबकि वे (फैक्ट्री वाले) हमारी आजीविका बर्बाद करके अमीर होते जा रहे हैं। स्थानीय मछुआरों के अनुसार, पश्चिम बंगाल में मछलियों की कुचिया, बेले, भेड़ा, पाकल, चांग, लता, शोल, चंदा, बोयल, सुरपुती आदि प्रजातियां गंभीर संकट में हैं।



बेदखली के नए-नए कारण

मछुआरों की समस्याएं यहीं खत्म नहीं होतीं। फरक्का से सागर आइलैंड तक गंगा को हिल्सा संरक्षण परियोजना में शामिल किया गया है। इस परियोजना के कारण मछुआरे 6 महीने से ज्यादा वक्त तक मछली नहीं पकड़ सकते। इस प्रतिबंध की भरपाई करने के लिए मछुआरों को किसी तरह का मुआवजा नहीं दिया जाता। इतना ही नहीं, टाइगर संरक्षण के नाम पर सुंदरबन की नदियों को मछुआरों से मुक्त घोषित कर दिया गया है। इन तमाम तरीकों से नदियों के हजारों मछुआरों को उनकी पुश्तैनी आजीविका से बेदखल किया जा रहा है। एक तरह से उन्हें केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और दिल्ली में पलायन करने और दिहाड़ी मजदूर बनने के लिए बाध्य किया जा रहा है।

हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी राज्य में अवैध खनन और सड़क निर्माण के दौरान मलबा नदी में जाने से भी मछलियां प्रभावित हो रही हैं। यह बात खुद सरकार ने विधानसभा में लिखित जवाब में स्वीकार की है। मत्स्यिकी मंत्री वीरेंदर कंवर ने माना है कि असमान बारिश के कारण गोविंद सागर, पोंग, कोल, चमेरा और रणजीत सागर जलाशयों में पानी का जलस्तर कम हुआ है जिससे पिछले कुछ सालों में मछलियों का उत्पादन प्रभावित हुआ है। हिमाचल प्रदेश के मछली विभाग ने 2006 में जारी अपने “विजन एंड पर्सपैक्टिव प्लान” में कहा था कि जल विद्युत परियोजनाओं के चलते नदियों के सिकुड़ने और उनमें भारी मात्रा में गाद भर रही है।

यह बताता है कि इन परियोजनाओं से कांगड़ा, कुल्लू और चंबा में नदियों का पर्यावरणीय प्रवाह बुरी तरह बाधित हुआ है। इसी तरह उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले में भागीरथी नदी में बनने वाली कोटलीभेल-2 जल विद्युत परियोजना ने उत्तराखंड की राजकीय मछली गोल्डन महासीर को खतरे में डाल देगा। यह मछली मैदानी इलाकों से प्रजनन के लिए नैयर नदी में आती है। परियोजना के कारण बैराज बनने से मछली का मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा।

साल 2017 में एक्वाटिक ईकोसिस्टम हेल्थ एंड मैनेजमेंट जर्नल में प्रकाशित उत्पल भौमिक के शोधपत्र में नर्मदा नदी तंत्र पर बांधों का नदियों की पारिस्थितिकी और मछलियों पर प्रभाव का अध्ययन किया गया है। अध्ययन के अनुसार, बांधों से महासीर मछली सबसे बुरी तरह प्रभावित हुई। बांध बनने से बड़ी झींगा और हिल्सा मछली में क्रमश: 46 और 75 प्रतिशत गिरावट आई। इसी तरह रोहू मछली और कैटफिश के उत्पादन में भी 17 से 36 प्रतिशत कमी देखी गई। नर्मदा कभी महासीर मछली का प्राकृतिक प्रजनन स्थल था जो अब लगभग खत्म हो गया है।

केंद्रीय अंतर्स्थलीय मात्स्यिकी अनुसंधान संस्थान में वरिष्ठ वैज्ञानिक अमिय कुमार साहू बताते हैं पिछले 50 सालों में नदियों के पारिस्थितिक तंत्र में काफी बदलाव आए हैं। उनके अनुसार, “केवल बांध और प्रदूषण को मछली के गायब होने के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। यह एक लंबी प्रक्रिया है और इसके विभिन्न पर्यावरणीय पहलू हैं”। उनका मानना है कि बांध पानी की जरूरतें पूरी करने के लिए अहम हैं। इसी को ध्यान रखकर सभी नदियों पर बांध बनाए गए। तब यह आकलन नहीं देखा गया कि मछलियों और मछुआरों पर इसका क्या असर पड़ेगा लेकिन इस दिशा में काम हो रहा है।

यह तथ्य है कि हम नदी के एक किलोमीटर के क्षेत्र में महज 0.3 टन मछलियां ही पकड़ रहे हैं जो इसकी क्षमता का केवल 15 प्रतिशत ही है। अगर इस क्षेत्र खासकर छोटी मछलियों पर ध्यान दिया जाए तो नीली क्रांति को पंख देने में यह अहम भूमिका निभा सकता है। यह एक आदर्श स्थिति है जिसकी उम्मीद बहुत धुंधली है। साहू बताते हैं नदी और मछली को बचाने के लिए सामूहिक प्रयास की जरूरत है। यह एक संस्था या एक व्यक्ति के बस ही बात नहीं है। परिणीता कहती हैं, “मछुआरों की खुशहाली स्वस्थ और जीती जागती नदी का प्रतीक है। मछुआरों की स्थिति सुधारने की दिशा में सबसे पहले यह स्वीकार करना होगा कि उनका भी अस्तित्व है।” अपनी आजीिवका बचाने के लिए मछुआरों का एकजुट होकर बड़े वोटबैंक के रूप में तब्दील होना होगा, तभी राजनीतिक मशीनरी का ध्यान उनकी ओर जाएगा। अन्यथा वे भी नदी की मछलियों के साथ विलुप्त हो जाएंगे।