महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई से लगे पालघर जिले के समुद्री तट पर स्थित और पर्यावरण के लिए अति संवेदनशील क्षेत्र वाढवण में बंदरगाह निर्माण को लेकर स्थानीय लोग नाराज हैं। उनका आरोप है कि इस परियोजना के अंतर्गत पर्यावरण को होने वाले नुकसान का पर्याप्त अध्ययन नहीं किया गया।
विरोध का दूसरा कारण यह है कि जैव विविधता और मछुआरों तथा किसानों की आजीविका की दृष्टि से यह पूरी पट्टी 'गोल्डन बेल्ट' के नाम से जानी जाती है और परियोजना के निर्माण से लगभग एक लाख परिवारों की आजीविका प्रभावित होगी। इस परियोजना का प्रभाव 13 गांवों पर पड़ेगा और यहां की करीब चालीस प्रतिशत आबादी के सामने रोजीरोटी का संकट खड़ा होगा।
बता दें कि वाढवण स्थित जवाहरलाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट की यह बंदरगाह परियोजना पांच हजार एकड़ समुद्री क्षेत्र में स्थापित की जा रही है। इसके तहत समुद्र तट से चार किलोमीटर लंबा और 20 मीटर गहरा एक ढांचा तैयार किया जाएगा। वर्ष 2028 तक कुल 38 माल गोदाम बनाने का लक्ष्य रखा गया है। यहां से कोयला, सीमेंट, रसायन और तेल आदि चीजों का सालाना 132 मिलियन टन माल का परिवहन किया जा सकता है। इस बंदरगाह के लिए 350 किलोमीटर लंबी सड़क और 12 किलोमीटर लंबी रेललाइन का निर्माण किया जाएगा।
वर्ष 1995 में एक निजी कंपनी ने पहले भी इस परियोजना का निर्माण शुरू किया था। लेकिन, तब भी भारी जनविरोध के कारण तत्कालीन राज्य सरकार द्वारा इस परियोजना का काम रोक दिया गया था। इसके अलावा डहाणू तालुका पर्यावरण संरक्षण प्राधिकरण ने परियोजना के खिलाफ दायर एक याचिका पर निर्णय लेते हुए वर्ष 1998 में इस बंदरगाह के निर्माण को स्थगित कर दिया था।
उसके बाद वर्ष 2014 में केंद्र में भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे 'ड्रीम प्रोजेक्ट' बताया। जवाहरलाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट (74%) और महाराष्ट्र सागर मंडल (26%) की भागीदारी से 65 हजार करोड़ रुपए की लागत से निर्माण कार्य शुरू करने की मंशा जाहिर की गई। परियोजना समर्थकों का तर्क है कि प्रस्तावित बंदरगाह 24 घंटे चालू रहेगा, इसलिए पूरे क्षेत्र का तेजी से विकास होगा।
परियोजना का विरोध कर रही वाढवण की सरपंच हेमलता बालाशी बताती हैं, "यह परियोजना पारंपरिक कृषि, बागवानी और मछलीपालन से जुड़े एक लाख परिवारों के लिए नुकसानदायक साबित होगी। स्थानीय लोगों ने कई सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर एक संघर्ष समिति बनाई है। इस समिति के बैनर पर हम सभी इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं।"
इसके अलावा परियोजना के विरोध का प्रमुख आधार जैव विविधता के लिए का खतरा बताया जा रहा है। खासकर अनेक तरह की मछलियों को ध्यान में रखते हुए यह समुद्री क्षेत्र जलीय जीव-जंतुओं का घर माना जाता है। ऐसे में यदि यहां बंदरगाह बनाया जाता है तो सबसे बुरा असर एक दर्जन से अधिक गांवों के मछुआरों की आजीविका पर पड़ेगा।
दरअसल, समुद्र की इस पट्टी पर चट्टानें हैं इसलिए मछली की कई प्रजातियां प्रजनन के लिए यहां आती हैं। यही वजह है कि बंदरगाह बनने के बाद आने वाले समय में ऐसी मछलियों की प्रजनन प्रक्रिया और उनकी उपलब्धता प्रभावित हो सकती है। दूसरी आशंका यह है कि मालवाहक नावों से निकलने वाला ज्वार का पानी खाड़ी क्षेत्र में घुसपैठ करेगा और कृषि भूमि को नुकसान पहुंचाएगा।
अर्नाला मच्छीमार संस्था के उपाध्य्क्ष हिराजी तारे बताते हैं, "इससे मछली पालन का पूरा व्यवसाय ध्वस्त हो जाएगा, पूरे इलाके की समृद्ध खेती खत्म हो जाएगी।" वहीं, स्थानीय लोगों का आरोप है कि इस परियोजना को लेकर उनसे कोई राय नहीं ली गई है। इनका यह भी कहना है कि पर्यावरणीय प्रभाव का अध्ययन संतोषजनक ढंग से नहीं किया गया है।
केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा वर्ष 1991 से इस पूरे क्षेत्र को पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया गया है। इसकी वजह से यहां विकास से जुड़ी कई परियोजना पहले से ही लंबित हैं। हालांकि, बंदरगाह परियोजना को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने इसे 'उद्योग' के रूप में नहीं गिनने का फैसला लिया है। इसके अलावा, पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआईए) प्रक्रिया में परियोजना के पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन को अनुमति देने के लिए भी उसे मौलिक रूप से बदल दिया गया है।
एक स्थानीय रहवासी नरेन्द्र पाटिल बताते हैं, "यहां के लोगों द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर एंटी पोर्ट जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं। यहां के किसानों और मछुआरों को स्थानीय व्यापारियों का भी साथ मिल रहा है।"