गंगा सिर्फ एक नदी ही नहीं, यह पर्यावरण के नजरिए से बेहद अहम होने के साथ-साथ धार्मिक आस्था का भी प्रतीक है; फोटो: आईस्टॉक 
नदी

जहरीली होतीं जीवनधाराएं: गंगा ने क्यों खोई अद्वितीय शक्ति

गंगा तब तक अपनी पुरातन अवस्था में नहीं लौट सकती, जब तक पारिस्थितिकी तंत्र को ठीक करने का रोडमैप न बने

Shashi Shekhar

गंगा, जिसे एक पूजनीय और पवित्र नदी माना जाता है और भारत में जिसके किनारों पर समाज और संस्कृति विकसित हुई, आज बदहाल दशा में है। माॅनसून के मौसम के बिना इस नदी का अधिकांश हिस्सा सूखा रहता है या नाले के रूप में बहता है। इसकी सहायक नदियां विशेष रूप से यमुना नदी और उनकी उप-सहायक नदियां सबसे खराब हालत में हैं। बांधों और जलाशयों के निर्माण के माध्यम से पानी का अत्यधिक दोहन, सीवेज और औद्योगिक अपशिष्टों का प्रवाह, पहाड़ों पर प्राकृतिक वनस्पतियों का विनाश, डूब क्षेत्रों के अतिक्रमण ने मिलकर विशाल गंगा नदी को इस मौजूदा स्थिति में ला दिया है।

गंगा एक्शन प्लान (गैप) अस्सी के दशक में शुरू हुआ और साल 2014 से नमामि गंगे के रूप में इसे गति मिली, लेकिन यह नदी को अपनी पुरातन अवस्था में वापस लाने में मदद नहीं कर सकता क्योंकि यह एक उपशामक है यानी सिर्फ लक्षणों को कम करने वाला है। जब तक पूरी नदी पारिस्थितिकी तंत्र को संबोधित नहीं किया जाता है तब तक ऐसा ही रहेगा। गंगा नदी और उसकी सहायक नदियां वर्तमान क्षय की स्थिति में क्यों पहुंच गई हैं? इसका असल जवाब नदी पारिस्थितिकी तंत्र को समझने से मिलेगा।

नदी का पारिस्थितिकी तंत्र उसका अभिन्न अंग होने के साथ-साथ इसका उत्पाद भी है, जिनमें नदी का ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र, प्राकृतिक वनस्पतियां, बाढ़ का मैदान, वेटलैंड, जलभर (एक्विफर), जीव-जंतु, नदी का घुमाव क्षेत्र और डेल्टा आदि शामिल हैं। एक नदी को कुछ तय पारिस्थितिक कार्य करने होते हैं जैसे कि साल भर बहना, माॅनसून में विस्तार लेना और कम वर्षा वाले मौसम में सिकुड़ना, उफान होने पर बाढ़ के मैदान बनाना, मैदानी क्षेत्रों में तलछट (मिट्टी, बालू या चट्टानों के छोटे कण) और गाद को ले जाना, जिससे अत्यधिक उत्पादक जलोढ़ मिट्टी की भरपाई होती है, फ्लोरा और फौना यानी वनस्पतियों और जीवों को जीवन को सहारा देना, नदी तल से 50 किलोमीटर दूर तक मौजूद जलभरों को रिचार्ज करना।

ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र में मौजूद प्राकृतिक वनस्पति बारिश के पानी को जड़ें के माध्यम से मिट्टी के सबसे ऊपरी परत के नीचे की परत (सबसॉइल) में रिसने देती है। साथ ही नदी का फैलाव और सिकुड़ना भूजल को रिचार्ज करने में मदद करता है। वहीं, सूखे के समय में जलभर नदी को जल-प्रवाह प्रदान करते हैं। इन कुछ बुनियादी कामों के जरिए एक नदी अमूल्य पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं प्रदान करती है, जिन्हें पैसों में नहीं मापा जा सकता।

नदी की कार्यप्रणाली को समझे और जाने बिना गंगा बेसिन में सिंचाई और पनबिजली पैदा करने के मकसद से बनाए गए बांधों और जलाशयों ने उसे बुरी तरह से क्षतिग्रस्त कर दिया है। सिंचाई के लिए पानी मोड़ने से जलाशय के नीचे के हिस्से में पानी का बहाव व्यावहारिक तौर पर खत्म हो जाता है। गंगा सबसे ज्यादा बांधों वाली नदी है, जहां मुख्य धारा और इसकी सहायक नदियों पर 900 से अधिक बांध और जलाशय बनाए गए हैं। वे नदी के प्रवाह को रोक देते हैं और जैसा कि यमुना जिए अभियान के संस्थापक दिवंगत मनोज मिश्रा कहा करते थे कि यह नदी को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाता है।

अपने बहुत उच्च स्तर के ऑक्सीजन को अवशोषित करने की क्षमता और कुछ औषधीय गुणों के कारण गंगा का पानी पहले सदियों तक खराब नहीं होता था। लेकिन अब यह गंभीर रूप से प्रभावित हो गया है। क्योंकि वो तलछट जो गंगा की इस अनोखी विशेषता में मदद करती थी अब जलाशयों में फंस गई है। हर दिन नगरों और उद्योगों से अरबों लीटर गंदा पानी और औद्योगिक अपशिष्ट नदी में डालने से कई जगहों पर पानी ईयूट्रोफिक स्थिति के करीब पहुंच गया है, जिससे नदी की कुछ मूल जैव विविधता लगभग समाप्त हो गई है। ईयूट्रोफिक स्थिति उस अवस्था को कहते हैं जब पानी के किसी स्रोत में पोषक तत्वों, विशेषकर नाइट्रोजन और फास्फोरस की अत्यधिक मात्रा होती है। यह अक्सर उर्वरकों, गंदे पानी और अन्य प्रदूषकों के प्रवाह के कारण होता है।

नमामि गंगे कार्यक्रम सिर्फ गंगा नदी पर केंद्रित है लेकिन सहायक नदियों या उनकी उपनदियों में प्रदूषण रोकने की कोई ठोस योजना अब तक नहीं है

गंगा एक्शन प्लान (जीएपी) से नमामि गंगे कार्यक्रम बनने के बाद अब नदी में डिस्चार्ज से पहले सीवेज और औद्योगिक प्रवाह के शोधन पर काफी जोर दिया जा रहा है। खासतौर से गंभीर प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों जैसे पल्प एंड पेपर, टेनरीज, शुगर, डिस्टलरी, टेक्सटाइल्स के लिए यह अनिवार्य किया जा रहा है कि वह प्रवाह उपचार संयंत्र (ईटीपी) स्थापित करें और जीरो डिस्चार्ज के लक्ष्य को हासिल करें।

नमामि गंगे के अधीन पब्लिक प्राइवेट पार्टनरिशप (पीपीपी) मॉडल के तहत सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) निर्माण में निजी भागीदारों की जवाबदेही तय की गई है। इसके लिए हाइब्रिड एन्युटी भुगतान प्रणाली को लागू किया गया है। यह एक तरह का वित्तीय मॉडल है जिसका उपयोग पीपीपी परियोजनाओं में जवाबदेही के लिए किया जाता है ताकि परियोजना की गुणवत्ता और प्रभावशीलता बढ़ सके। इस वित्तीय मॉडल में परियोजना निर्माण से लेकर प्रदर्शन तक को देखकर निजी भागीदार को भुगतान किया जाता है। इसलिए एसटीपी में जिस अपशिष्ट का उपचार किया जा रहा है, यदि वह केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के मानकों पर ठीक है तभी भुगतान किया जाएगा।

इसके अलावा “एक शहर, एक ऑपरेटर” का नियम भी लागू किया गया है। इसका मतलब है कि किसी शहर में जल बोर्ड या पीपीपी के तहत निजी भागीदारी से बनाए गए सभी एसटीपी का एक ही ऑपरेटर प्रबंधन करेगा। साथ ही उस ऑपरेटर की यह जिम्मेदारी होगी कि सभी आउटपुट मानकों को पूरा करें। यह पीपीपी में जवाबदेही के अलावा एक और अहम कदम है। यह दो कदम नमामि गंगे को सकारात्मक बदलाव लाने में मदद कर रहा है। नमामि गंगे के तहत प्रदूषण से निपटने और जवाबदेही तय करने के लिए इन दोनों महत्वपूर्ण कदमों को मैंने तब जल संसाधन मंत्रालय के सचिव के रूप में प्रस्तावित किया था। उस वक्त राज्य सरकारों ने इन दोनों कदमों का मजबूत विरोध किया। हालांकि, इस बात के लिए मोदी सरकार को श्रेय जाता है कि वह मेरे इन दोनों प्रस्तावों को लागू करने के लिए अपने निर्णय पर अडिग रही।

गंगा नदी बेसिन के लिए विशेष रूप से अधिसूचित एक अधीनस्थ कानून के तहत कार्य योजना बनाई गई है, जिसमें सभी उद्योगों से पानी के उपयोग को कम करने, अपशिष्ट का उपचार करने और जीरो लिक्विड डिस्चार्ज को प्राप्त करने के लिए एक रोडमैप विकसित करने की मांग की गई है। यह योजना क्रियान्वयन में है और रिपोर्ट के अनुसार इसमें अच्छी प्रगति हो रही है। सीपीसीबी द्वारा किए गए अध्ययन में यह पाया गया है कि नदी के पानी की गुणवत्ता में फीकल कोलिफॉर्म, जैविक ऑक्सीजन और रासायनिक ऑक्सीजन मांग के मामले में काफी सुधार हुआ है। परियोजनाओं का कार्यान्वयन भी गति बनाए हुए है। सवाल यह है कि क्या अब तक किए गए प्रयास गंगा नदी को पुनर्जीवित करने के लिए पर्याप्त हैं? नमामि गंगे के तहत सीवेज और औद्योगिक प्रदूषण नियंत्रण योजना केवल मुख्य गंगा नदी के लिए लागू की जा रही है लेकिन सवाल है कि सहायक नदियों और उनकी उपनदियों का क्या? इसके अलावा वह प्रदूषण जो गैर स्रोतों से होता है उसे रोकने की कोई योजना नहीं दिखाई देती। मिसाल के तौर पर सैकड़ों नालियां जो सीवेज सहित बड़ी मात्रा में घरेलू प्रदूषक नदी में लाती हैं या फिर खेती-किसानी में इस्तेमाल किए जाने वाले रसायनों का वह प्रवाह जो नदी में पहुंचता है उसे रोकने के लिए कोई रोडमैप नहीं है।

वहीं, पीपीपी मॉडल के तहत निजी भागीदार को कार्यक्रम के तहत सरकार द्वारा अनुदान के रूप में दी जाने वाली एन्युटी का भुगतान किया जाता है, जो टिकाऊ नहीं है। यदि इसे गंगा बेसिन के सभी शहरों में लागू किया जाए तो इसके लिए भारी-भरकम धनराशि की जरूरत होगी। इस समस्या का हल “पॉल्यूटर पे प्रिंसिपल” में है। इसके तहत सेवा शुल्क के रूप में लोगों द्वारा पीपीपी के निजी भागीदार को भुगतान किया जा सकता है। साथ ही जो भी पानी उपचारित किया जाए उसे सभी उद्योगों, बागवानी, रेल और विद्युत संयंत्रों को अनिवार्य रूप से बेचा जाए।

इससे जो राजस्व उत्पन्न होगा वह कैपेक्स यानी निर्माण संबंधी दीर्घकालिक निवेश और ओपेक्स यानी रोजमर्रा की गतिविधियों को पूरा करने के लिए पर्याप्त होगा। यह एक टिकाऊ मॉडल होगा जो गंगा के सभी शहरों के लिए अपनाया जा सकता है। हालांकि, यदि गंगा नदी के पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण नहीं किया जाता है तो गंगा की स्वच्छता नहीं होगी। पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र में प्राकृतिक वनस्पति को फिर से स्थापित करना होगा। यह सुनिश्चित करना होगा कि नदी मार्ग में नए बांध न बनाए जाएं। इसके अलावा उन सभी बांधों को गिरा देना होगा जो अपनी उपयोगी अवधि पूरी कर चुके हैं या अब आर्थिक रूप से लाभदायक नहीं हैं। डूब क्षेत्र और आर्द्रभूमियों से अतिक्रमण को हटाना और उनका संरक्षण करना एक अहम काम है। भूजल पर पड़ रहे अत्यधिक दोहन के दबाव को भी कम करना होगा ताकि वह नदी के बेस फ्लो के लिए पानी प्रदान कर सके। लगातार नालों और नदी में कचरा न फेंकने की अपील करते रहना भी जरूरी है। इन सभी प्रयासों को आगे कई वर्षों तक करते रहने की जरूरत है, वरना गंगा का पुनर्जीवन स्वप्न ही रहेगा। यदि गंगा बहती रहेगी और इसका पारिस्थितिकी तंत्र बड़े पैमाने पर पुनर्स्थापित होगी तो यह खुद से ही स्वच्छ रहेगी और अपनी उन अद्वितीय विशेषताओं को वापस हासिल करेगी जिसके लिए गंगा नदी भारत में पूजनीय है। निर्मलता और अविरलता के लिए एक साथ प्रयास करने की जरूरत है।

(लेखक केंद्रीय जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय के पूर्व सचिव हैं)