जलवायु परिवर्तन से बिगड़े मौसम, तेज बारिश, बादल फटने की घटनाओं, बांध और पानी के डायवर्सन जैसी घटनाओं ने समूचा नदी तंत्र बाधित कर दिया है। नदियों की संकटग्रस्त अवस्था के मूल में दोहन आधारित विकास का व्यापारिक और मानव केन्द्रित प्रारूप है, जिसका नियंत्रण नदी से सीधे जुड़े समुदाय के पास न होकर अफसरी लालफीताशाही हाथों में है। दशकों में नदियों से संबंधित सांस्कृतिक, आध्यात्मिक परंपराओं और नदी पारिस्थितिकी समझ की अनदेखी होती आई है। इसी छिछली समझ के साथ सरकारी स्तर पर गंगा और यमुना जैसी नदियों में प्रदूषण के निपटारे के प्रयास हुए। लेकिन अरबों रुपए खर्च कर देने के बाद भी नदियों की स्थिति सुधरी नहीं।
इसी बीच जलवायु संकट और पर्यावरण क्षय की विकराल होती स्थिति के मद्देनजर पिछले कुछ सालों में नदी या कहें प्रकृति को मानवीय उपभोग नजरिए से न देखकर पर्यावरणीय दृष्टिकोण से देखने की समझ बनने लगी है। भारत सहित वैश्विक स्तर पर स्थानीय नदियों को प्रशासनिक और कानूनी सुरक्षा के दायरे में लाने की कई कोशिशें हुईं हैं।
नदी अपने आप में सम्पूर्ण प्रकृति की एक प्रतिबिम्ब है जिसे केवल उपभोग के लिए नहीं बल्कि मानव, मानवेतर जीवन और भौतिक अव्ययों के एक तंत्र के रूप में देखा जाना चाहिए। इसी कड़ी में प्रकृति के विभिन्न अव्ययों जिसमें नदी प्रमुख है, को मानवीय दोहन से बचाने और प्राकृतिक स्वरूप को संरक्षित करने के लिए इसे एक “कानूनी व्यक्ति” के रूप में देखने की समझ विकसित हो रही है ताकि एक जीवित व्यक्ति की तरह नदी को नदी के रूप में अविरल बहने को कानूनी जामा पहनाया जा सके।
उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने 2017 में गंगा, यमुना और इनको पोषित करने वाले हिमनद, सभी सहायक नदियों और सम्पूर्ण जलग्रहण क्षेत्र को समग्रता में कानूनी व्यक्ति की मान्यता दी। नदी तंत्र को एक आम मनुष्य की तरह सारे कानूनी अधिकारों के योग्य माना गया। उसी साल मध्य प्रदेश विधानसभा ने नर्मदा को जीवित इकाई का दर्जा दिए जाने के शासकीय संकल्प पारित किया।
इसी तरह के एक फैसले में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने चंडीगढ़ में महत्वपूर्ण पानी के स्रोत सुखना झील को जीवित व्यक्ति की संज्ञा दी। राष्ट्रीय नदी संरक्षण आयोग को अभिभावक का दर्जा देते हुए बांग्लादेश के उच्चतम न्यायालय ने तुराग सहित देश की सभी नदियों को कानूनी व्यक्ति की मान्यता देकर, आयोग को सुरक्षा, संरक्षण, प्रदूषण मुक्त प्रवाह और अवैध कब्जे से मुक्ति सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी दी। बाद में उच्चतम न्यायालय ने कानूनी पेचीदगियों का हवाला देते हुए “कानूनी व्यक्ति” के दर्जे सम्बन्धी विमर्श को ठंडे बस्ते में डाल दिय।
वर्तमान समय में प्रकृति के संरक्षण के लिए कानूनी मान्यता के विमर्श की शुरुआत इक्वाडोर द्वारा प्रकृति के अविच्छेद्य अधिकार को सांवैधानिक व्यवस्था (अनुच्छेद 10 और 71-74) देने से मानी जा सकती है। इस संवैधानिक व्यवस्था में आम आदमी को प्रकृति के पक्ष से न्याय मांगने की व्यवस्था दी गई है।
न्यूजीलैंड ने तिउरेवेरा नेशनल पार्क, व्हंगानुई नदी समेत समूचे पारिस्थितिकी तंत्र तथा तारानाकी पहाड़, जो माओरी जनजाति के श्रद्धा का केंद्र है, को संसद से कानूनी व्यक्ति की मान्यता दिलाई है। बोलीविया ने लॉ ऑफ मदर अर्थ पास किया। हाल ही में कनाडा के क्यूबेक राज्य ने मैगपी नदी को संसद द्वारा एक आम इंसान की तरह सारे अधिकार दिए।
नदी, जंगल, पारिस्थितिकी के अधिकार-आधारित कानूनों का उद्देश्य प्रकृति को केवल मानवीय सम्पति न मानकर उनको उनके स्वतंत्र अस्तित्व के रूप में स्वीकार करना है ताकि मनुष्य की देखरेख में प्रकृति का सतत अस्तित्व, पारिस्थितिकी का विकास और प्राकृतिक चक्रों को न सिर्फ मानवीय परन्तु मानवेत्तर सन्दर्भ में बनाए रखा जा सके।
नदियों को कानूनी पहचान देने से नदी में होने वाले मानव जनित दुष्परिणाम के खिलाफ न्यायिक सुरक्षा मिल जाती है। साथ में जिम्मेदार व्यक्ति या संस्था को जबाबदेह ठहराने की शक्ति है, जिसमें क्षतिपूर्ति और अन्य हक भी शामिल हैं। कानूनी सुरक्षा से नदी की मूल पहचान और प्रवृति को बचाए रखने में प्रभावी मदद मिलती है।
सुप्रसिद्ध कानूनविद क्रिस्टोफर डी स्टोन मानते हैं कि पर्यावरण के महत्व को मानवीय महत्वाकांक्षा से अलग रखने की जरूरत है, जो अक्सर मानवीय जरूरत के आगे गौण हो जाता है। नदी का प्राकृतिक बहाव इसके कानूनी व्यक्तित्व की पहचान का आधार है। इस अवधारणा में वे सारे प्रकल्प (प्रोजेक्ट) जो नदी के बहाव और स्वास्थ्य को नकारात्मक रूप से और बड़े स्तर पर प्रभावित करते हैं, उन पर रोक लगाने का कानूनी अधिकार नदी को होगा जिसमें नदी पर बने बांध, शहरी और औद्योगिक प्रदूषण, व्यापक स्तर पर मछली का शिकार आदि शामिल हैं।
इस अवधारणा में एक पेंच है कि नदी खुद अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय तो जाएगी नहीं और इस काम के लिए नदी के लिए एक अभिभावक या संरक्षक की जरूरत होगी जो नदी की ओर से समीक्षा करेगा और कानूनी अधिकार सुनिश्चित करेगा। इस संदर्भ में बांग्लादेश ने राष्ट्रीय नदी संरक्षण आयोग को नदियों का अभिभावक नियुक्त किया है जो न सिर्फ नदी को न्यायालय में प्रस्तुत करता है, बल्कि क्षतिपूति से मिले धन राशि का सम्यक इस्तेमाल भी कर रहा है।
इस संदर्भ में आयोग ने बूढीगंगा नदी में दूषित जल डालने वाले अनेक औद्योगिक इकाइयों को कानूनी तरीके से बंद कराने में सफलता भी पाई है। वहीं न्यूजीलैंड की संसद ने स्थानीय आदिम माओरी जनजाति के साथ सरकार के एक नामित प्रतिनिधि को नदी, पहाड़ सहित पारिस्थितिकी के अभिभावक का दर्जा दिया है।
भारत में यह विमर्श उसी साल लगभग खत्म हो गया था जब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उत्तराखंड उच्च न्यायालय के आदेश को निरस्त कर दिया था। उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने गंगा और यमुना नदी के संरक्षण के उद्देश्य से इन्हें कानूनी व्यक्ति का दर्जा देते हुए राज्य के मुख्य सचिव और महाधिवक्ता को अभिभावक बनाया था। दूसरी तरफ नर्मदा नदी को जीवित इकाई का दर्जा देने वाली प्रक्रिया राज्य के अफसरी लालफीताशाही में न्यायालय की सीढ़ी तक भी नहीं पहुंच पाई।
हालांकि वैश्विक स्तर पर इस दिशा में पारिस्थितिकी और नदी संरक्षण में अच्छे काम हो रहे हैं पर सर्वोच्च न्यायालय ने क्षतिपूर्ति और मुआवजे जैसे मामूली कानूनी मसले का हवाला देते हुए दूरगामी प्रभाव वाले शुरू हुए इस विमर्श को खत्म ही कर दिया। नदी से जुड़े समाज को नदी का अभिभावक न बनाकर सरकारी प्रतिनिधि को यह जिम्मा सौंप दिया गया था, जबकि नदी विघटन के अधिकतर मामलों में सरकार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में शामिल रहती है। ऐसे में नदी के अभिभावक के रूप को पुनः परिभाषित करने की जरुरत थी लेकिन इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया गया।
आज भारत में नदी तंत्र गहरे संकट से गुजर रहे हैं और जलवायु परिवर्तन की स्थिति इसे और भयावह बना रहे हैं। प्रदूषण, बाढ़, बांध, नदी घाटी परियोजना से बड़े क्षेत्र का जलमग्न होने से विस्थापन, जल बंटवारे सम्बन्धी विवाद, बालू खनन, नदी बहाव का छिछला होना, बड़े पैमाने पर नदियों का सूख जाना आदि समस्याएं पूरी नदी तंत्र के विघटन की तरफ इशारा कर रही हैं।
ऐसे में नदी और उससे जुड़ी पारिस्थितिकी को एक आदमी की तरह मौलिक अधिकार से लैस करना एक वैकल्पित न्याय प्रणाली की शुरुआत है जो प्रकृति को मानवीय उपभोग से इतर प्रकृति के मानवेतर संतुलन की ओर एक कदम है। वास्तव में नदी को एक जीवित आदमी यानी होमो सेपिएंस के समान अधिकार देना कानूनी रूप से चाहे कितना भी जटिल हो, पर ये हमारी संयमित समृद्धि और प्रकृति के साथ मानवीय संबंधों के परीक्षण का एक अवसर जरूर है।
इस कड़ी में नदी को जीवित व्यक्ति की कानूनी मान्यता देना, एक नई दृष्टि देता है ताकि प्रकृति सम्यक व्यवस्था का निर्माण हो सके, जहां नदी को अपने प्राकृतिक स्वरूप में न सिर्फ बहने बल्कि पूरे नदी तंत्र के साथ विस्तार मिले।
लोक-कथाओं में जनमानस को न्याय देने वाली नदी का अस्तित्व बचाने के लिए उसे एक अदद जीवित व्यक्ति मानने पर भी सहमति नहीं बन पा रही है। हमारी परंपरा ने नदी को मां माना है, पर आज हमारी विकास की भूख में नदी “मानो तो मैं मां हूं”, न होकर “न मानो तो बहता पानी” होकर रह गई है जिसका बहाव अब शिथिल पड़ता जा रहा है।
आज जरूरत है कि मनुष्य के लिए सदा से जीवनदायिनी रही नदियों को जीवित प्राणी का दर्जा देकर उसके उद्गम से लेकर समुद्र से मिलने तक की सम्पूर्ण धारा को प्रदूषण और मानवीय गांठों (अभियांत्रिकी संरचनाओं) से मुक्त किया जाए।
(कुशाग्र राजेंद्र एमिटी विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ अर्थ एंड एनवायरमेंट विभाग के प्रमुख व विनीता परमार विज्ञान शिक्षिका एवं “बाघ विरासत और सरोकार” पुस्तक की लेखिका हैं)