“यह अनिवार्य है कि डिस्ट्रिक्ट सर्वे रिपोर्ट (डीएसआर) को तभी वैध माना जाए जब उसमें पुनर्भरण (रीप्लनिशमेंट) स्टडी शामिल हो।” यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट ने 22 अगस्त 2025 को दिए एक आदेश में की है। सुप्रीम कोर्ट के हालिया और विस्तृत फैसले की यह पंक्ति बताती है कि नदियों में खनन से पहले भरपाई को समझना अब महज एक औपचारिकता नहीं बल्कि कानून की सबसे कठोर शर्त बन गई है।
इसका अर्थ साफ है कि अब नदियों में रेत का एक कण हिलाने से पहले उसकी भरपाई का विज्ञान तय करना अनिवार्य होगा। यह फैसला न केवल कागज में एक सोए हुए पुराने नियम को जगा रहा है बल्कि एक सख्त चेतावनी भी है कि अगर नदियों में पुनर्भरण का खाका नहीं तो खनन का लाइसेंस भी नहीं मिलेगा।
सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता ऑन रिकॉर्ड सृष्टि अग्निहोत्री ने डाउन टू अर्थ को बताया, “यह फैसला अहम है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने मौजूदा कानूनी व्यवस्था को दोहराया है, जिसके अनुसार पुनर्भरण अध्ययन डीएसआर का जरूरी हिस्सा है। इसलिए बिना पुनर्भरण अध्ययन वाली डीएसआर मान्य नहीं होगी।” अग्निहोत्री ने वरिष्ठ अधिवक्ता अनीथा शेनॉय की मदद की, जिन्होंने यह मामला श्रीनगर के पर्यावरण कार्यकर्ता राजा मुजफ्फर भट की ओर से सुप्रीम कोर्ट में रखा।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश श्रीनगर में भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) की चार-लेन बाईपास और रिंग रोड परियोजना से जुड़ा है, जहां रेत खनन के लिए तीन स्थान चिन्हित किए गए थे। इनमें ड्रेगाम पुल डाउनस्ट्रीम, बंडरपोरा अपस्ट्रीम और पंजाम से ट्रुम्पी पुल डाउनस्ट्रीम शामिल थे। हालांकि, इस परियोजना में पर्यावरण मंजूरी देते समय नियमों की खूब अनदेखी की गई थी।
दरअसल, 19 अप्रैल 2022 को जम्मू-कश्मीर स्टेट एनवायरमेंट इंपैक्ट एसेसमेंट अथॉरिटी ने इन्हीं तीन खनन परियोजनाओं को अकारण और त्रुटिपूर्ण तरीके से पर्यावरणीय मंजूरी (ईसी) दी थी। इसके खिलाफ पर्यावरणीय कार्यकर्ता राजा मुजफ्फर भट ने 2022 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में अपील दायर की। इस अपील में इन पर्यावरण मंजूरियों को चुनौती दी गई थी।
अपील में कहा गया था कि जम्मू-कश्मीर विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति (जेकेईएसी) ने 3 जनवरी, 2022 को 81वीं बैठक में में इन्हीं परियोजनाओं को इस आधार पर खारिज किया था कि संबंधित क्षेत्र अत्यधिक दोहन का शिकार है। यह भी आरोप था कि इन परियोजनाओं में जम्मू-कश्मीर माइनर मिनरल कंसेशन रूल, 2016 का उल्लंघन है जो तटबंध से 25 मीटर के भीतर खनन पर रोक लगाता है। साथ ही गाइडलाइंस के अनुरूप डिस्ट्रिक्ट सर्वे रिपोर्ट (डीएसआर) का अभाव था जहां रिपोर्ट में रीप्लनिशमेंट स्टडी नहीं थी और जेकीईएसी ने भी पर्यावरण मंजूरी देने से पहले इस तथ्य को दर्ज किया था।
इस मामले में यह भी पाया गया कि पर्यावरणीय मंजूरी मिलने के बाद भारी मशीनरी के इस्तेमाल जैसी गतिविधियां की गईं, जिन्हें सख्ती से रोकने की बात थी। एनजीटी ने इस मामले में सुनवाई के बाद माना कि बिना रीप्लनिशमेंट स्टडी के डीएसआर अधूरी है और उस पर आधारित पर्यावरण मंजूरी अवैध है। इसलिए एनजीटी ने अपने आदेश में परियाजनओं 19 अप्रैल, 2022 को जारी सभी पर्यावरणीय स्वीकृतियों को रद्द कर दिया।
इसके बाद परियोजना प्रस्तावक एनजीटी के फैसले के विरुद्ध मामला लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे जहां 22 अगस्त 2025 को सुप्रीम कोर्ट का फैसला रीप्लनिशमेंट स्टडी की अनिवार्यता के रूप में नजीर बनकर आया और सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर, एनएचएआई और परियोजना प्रस्तावक की अपीलें खारिज कर दीं।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि हमने सबसे पहले उत्तर प्रदेश राज्य बनाम गौरव कुमार मामले में आदेश दिया था कि रेत खनन के लिए वैध पर्यावरणीय स्वीकृति (ईसी) केवल तब दी जा सकती है जब जिला सर्वे रिपोर्ट (डीआरएस) पूर्ण और प्रभावी हो। केवल ड्राफ्ट डीएसआर पर दी गई अनुमति कानूनन अमान्य है। डीएसआर को ईआईए नोटिफिकेशन 2016 और 2016 व 2020 की सैंड माइनिंग गाइडलाइन्स के अनुसार तैयार करना अनिवार्य है ताकि खनन का निर्णय वैज्ञानिक आधार पर और वार्षिक रीप्लनिशमेंट दर के आकलन के बाद ही हो।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा “जिस प्रकार जंगलों में कटाई से पहले वृक्षों की वृद्धि दर देखना जरूरी है, उसी तरह नदियों का प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने के लिए रीप्लनिशमेंट स्टडी आवश्यक है।” 2020 की गाइडलाइन के अनुसार यह अध्ययन बताता है कि खनन नदी की भौतिक विशेषताओं, प्रवाह, तलछट और पारिस्थितिकी पर क्या असर डाल सकता है। इसलिए कोई भी डीएसआर तभी वैध मानी जाएगी जब उसमें रीप्लनिशमेंट स्टडी शामिल हो।
एक बड़ा सवाल इस आदेश के बाद पैदा होता है कि क्या ऐसा अध्ययन संभव है और क्या अब देशभर में खनन पर तब तक रोक लग जाएगी जब तक सभी नदियों के संभावित खनन स्थलों में खनन के बाद रेत की भरपाई का अध्ययन नहीं कर लिया जाता? नदियों का डायनेमिक्स हर साल बदलता रहता है ऐसे में हर साल कितनी बालू आकर नदियों में जमा होगी यह बता पाना एक दुरूह काम है।
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से डाउन टू अर्थ ने इससे जुड़े सवालों का जवाब हासिल करने की कोशिश की, हालांकि अभी तक जवाब नहीं दिया गया है। वहीं, रेत की भरपाई अध्ययन से जुड़े हाइड्रोलॉजिस्ट ऐसा मानते हैं कि यदि अध्ययन होगा तो खनन पर अध्ययन के दौरान तो रोक लगानी ही पड़ेगी और इस दौरान अवैध खनन के मामलों में बढ़ोतरी हो सकती है।
बिहार के राज्य पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन समिति में पूर्व में शामिल रहने वाले हाइड्रोलॉजिस्ट और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी पटना के प्रोफेसर रमाकर झा बताते हैं कि लगातार शहरीकरण बढ़ रहा है और रेत, बजरी जैसी निर्माण सामग्री पर दबाव बन रहा है। ऐसे में नदियों में गलत तरीके से हो रहे खनन के रूप में इसका नकारात्मक असर दिख रहा है। यह इस बात के महत्व को और ज्यादा बढ़ा देता है कि नदियों में खनन से पहले पुनर्भरण अध्ययन अनिवार्य तौर पर किया ही जाना चाहिए।
झा आगे कहते हैं, सवाल यह है कि क्या नदी में कहीं से भी और कितना भी बालू खनन कर सकते हैं? ऐसा नहीं हो सकता। हम कम से कम तीन वर्षों के अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकालते हैं कि किसी नदी क्षेत्र में औसत कितना खनन कर सकते हैं। यह लगातार चलने वाली अवधारणा है, इसलिए हमें साल में प्री-मॉनसून और पोस्ट मॉनसून दोनों सीजन में इसे हर साल करना पड़ता है। यानी किसी नदी क्षेत्र में कम से कम तीन वर्षों तक प्री मॉनसून और पोस्ट मॉनसून डाटा के जरिए जब तक लगातार तीन वर्षों तक यह नहीं देखा जाता कि असल में उस नदी में कितना रेत पहुंच रहा है तब तक वहां एक मीटर तक भी खनन की अनुमति देना खतरनाक होगा।
इस तरह की स्टडी को अवरोध मानकर अवैध खनन बढ़ने की आशंका की बात पर वह कहते हैं, यह राज्य सरकारों का काम है कि वह इसे पूरी तरह से रोके और सुनिश्चित करे कि बिना रेत की भरपाई का अध्ययन किए हुए खनन नहीं किया जा सकता।
बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, आईआईटी के डिपार्टमेंट ऑफ माइनिंग इंजीनियरिंग के प्रोफेसर डॉक्टर आरिफ जमाल कहते हैं कि रेत का पुनर्भरण अध्ययन एक सरल नहीं बल्कि बहुत जटिल प्रक्रिया है। वह आगे कहते हैं, नदी से रेत निकालना भी एक अनिवार्य काम है, यदि ऐसा नहीं करेंगे तो बाढ़ की विभीषिका बढ़ सकती है और नदियों के आस-पास के क्षेत्र में रहने वाले लोगों को इसका शिकार होना पड़ सकता है।
हालांकि, यह भी ध्यान देना होगा कि नदियों से रेत का निकाला जाना और वापस प्रकृति के द्वारा उसकी भरपाई एक लंबी प्रक्रिया हो सकती है। इसलिए वैज्ञानिक अध्ययन जरूरी है। जमाल मानते हैं कि जहां नदियों में खनन की संभावना है वहां कम से कम तीन वर्ष लगातार अध्ययन होना चाहिए यानी वर्षा के छह ऑब्जर्वेशन चाहिए।
जमाल एक बड़ी दिलचस्प बात भी बताते हैं कि इतना अध्ययन होने के बाद भी खनन के पुनर्भरण की 70 फीसदी तक ही सटीक व्याख्या संभव है, जिसमें मौसम, प्रवाह जैसे कई अन्य कारक भी शामिल होते हैं। वह इस जटिलता का बखान करते हैं कि मिसाल के तौर पर जब हिमालयी नदियों में मॉनसून के दौरान पानी के साथ रेत आती है तो वह ऐसा सस्पेंडेड सॉलिड होता है जो न ही एक जगह पूरा सेटल होता है और न ही पूरी तरह बह रहा होता है।
वह पानी के प्रवाह में बीच में होता है जो अपने हल्केपन या भारीपन के कारण गंगोत्री से डेल्टावन तक अलग-अलग जगहों पर विभिन्न मात्रा में डिपॉजिशन करता है। ऐसे में किसी एक स्थान पर एकदम सटीक डिपॉजिशन का पता लगाना बड़ा मुश्किल और जटिल काम है।
भले ही सुप्रीम कोर्ट ने रेत पुनर्भरण अध्ययन की अनिवार्यता को लेकर एक बार फिर से सरकारों और प्राधिकरणों को याद दिलाया हो, नदियों से रेत खनन और उसकी भरपाई के अध्ययन को लेकर 2016 से ही नियम बने हुए हैं। 2016 की सस्टेनबल सैंड माइनिंग मैनेजमेंट गाइडलाइंस में जिला सर्वे रिपोर्ट (डीएसआर) तैयार करते समय वार्षिक रीप्लनिशमेंट दर का आकलन करने का प्रावधान था, लेकिन इसमें यह केवल सुझाव के रूप में था और यह स्पष्ट नहीं था कि कितनी बार और किस समय अध्ययन करना जरूरी होगा।
हालांकि, इसके विपरीत, 2020 की एनफोर्समेंट एंड मॉनिटरिंग गाइडलाइंस फॉर सैंड माइनिंग ने इसे अनिवार्य नियम का रूप दिया। नए नियमों के तहत शुरुआती वर्षों में चार सर्वे करना जरूरी है। इसके तहत अप्रैल में मॉनसून से पहले, खनन बंद होने से पहले, माॅनसून के बाद और वित्त वर्ष की समाप्ति पर मार्च के अंत में यह सर्वेक्षण करना होगा।
इन सर्वेक्षणों से माॅनसून से पहले निकाली गई मात्रा, माॅनसून के बाद प्राकृतिक रूप से वापस जमा हुई रेत और पूरे वित्त वर्ष के कुल खनन का आकलन करने की बात है। तीसरे वर्ष से आगे यह प्रावधान है कि तीन सर्वे ही पर्याप्त होंगे। इस तरह 2020 की गाइडलाइन ने रीप्लनिशमेंट स्टडी को स्पष्ट, समयबद्ध और अनिवार्य बनाया और जो कि 2016 की गाइडलाइन में केवल सुझाव के रूप में ही मौजूद था।
झा बताते हैं, आमतौर नदियों से खनन के लिए एक मीटर तक की अनुमति दे दी जाती थी ताकि यदि अगले वर्ष प्राकृतिक तौर पर भरपाई न हो तब भी नदी जीवंत बनी रहे लेकिन समस्या यह होती है कि इस तरह की खनन अनुमतियों में परियोजना प्रस्तावक पांच गुना अधिक तक खनन कर देता है जिसकी भरपाई कई वर्षों तक नहीं हो सकती है, इसलिए वह एक मीटर भी खनन की अनुमति से पहले अध्ययन पर जोर देते हैं।
सुप्रीम कोर्ट में एनजीटी के आदेश से असंतुष्ट प्रतिवादी पक्ष का तर्क था कि एक मीटर गहराई का खनन पर्याप्त सुरक्षा देता है, जबकि एनजीटी ने पहले ही स्वीकृति रद्द करते हुए कहा था कि एक मीटर खनन के लिए भी डीएसआर और पुनर्भरण अध्ययन आवश्यक है।
सर्वोच्च अदालत ने पाया कि ऐसा कोई कानूनी प्रावधान नहीं है जो उथले खनन के लिए पुनर्भरण अध्ययन आवश्यकताओं से छूट की अनुमति देता हो। अदालत ने पुनर्भरण अध्ययन को वैध डीएसआर का अभिन्न और अविभाज्य हिस्सा बताया, जिससे कोई भी डीएसआर बिना ऐसे अध्ययन के कानूनी रूप से अमान्य हो जाता है।
खनन में अध्ययन की कमी के मामले को अदालत पहुंचाने वाले राजा मुजफ्फर भट कहते हैं, "इससे पर्यावरणीय निकायों की जवाबदेही जरूर तय होगी। हालांकि वह यह नहीं रुकेंगे। वह कहते हैं, जेकेईआईएए और पर्यावरण मूल्यांकन समिति ने पर्यावरणीय स्वीकृतियां प्रदान करते समय गंभीर चूकें की हैं। मैंने पहले ही जम्मू-कश्मीर प्रदूषण नियंत्रण समिति के अध्यक्ष से एनकेसी प्रोजेक्ट्स प्रा.लि. द्वारा शालिगंगा धारा में हुए पर्यावरणीय नुकसान का आकलन करने का अनुरोध किया है। इसके अलावा मैं निर्माण कंपनियों को पर्यावरणीय स्वीकृति देने में की गई इन चूकों के लिए जम्मू-कश्मीर पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण और जम्मू-कश्मीर पर्यावरण मूल्यांकन समिति दोनों के खिलाफ एक अलग मामला भी दायर करूंगा।"
साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपुल (एसएएनडीआरपी) से जुड़े और पर्यावरणकर्ता हिमांशु ठक्कर कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश सतत तरीके से रेत खनन करने की बात को दोहराता है। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के पुराने नियम में रीप्लनिशमेंट स्टडी की बात पहले से मौजूद है लेकिन इसका पालन नहीं हो रहा था।
यह आदेश यह भी कहता है कि नदी का जो भी पर्यावरणीय, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक लाभ समाज को मिलता है, वह किसी भी तरह से प्रभावित नहीं होना चाहिए और जितनी रेत नदी के किसी स्ट्रेच से निकल सकती है, उतनी ही निकाली जानी चाहिए। रेत खनन और बाद में प्राकृतिक तौर पर उसकी भरपाई को समझने के लिए वैज्ञानिक तीन वर्ष की मांग करते हैं। इसके बाद ही उनकी समझ यह बन सकती है कि किसी स्ट्रेच में कितना सरप्लस बालू और वहां क्या भरपाई की संभावना है।
ठक्कर कहते हैं, जलवायु परिवर्तन के इस दौर में नदियों के व्यवहार में बहुत तेजी से बदलाव आ रहा है। ऐसे में यह अध्ययन जो न्यूनतम पांच वर्ष में एक बार होना चाहिए उसे हर साल ही करना पड़ सकता है। ठक्कर रेत की प्राकृतिक भरपाई के अध्ययन में छिपी बड़ी चिंता को भी जाहिर करते हैं।
वह कहते हैं, “यह परियोजनाओं में होने वाले पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन से बिल्कुल अलग होगा क्योंकि इसके लिए अलग विशेषज्ञता की जरूरत होती है। सरकार बालू खनन करने वालों से इस अध्ययन के लिए पैसे ले सकती है हालांकि, यह अध्ययन उसे परियोजना प्रस्तावक के भरोसे न छोड़कर खुद ही कराना चाहिए। नहीं तो जैसा ईआईए में परियोजना प्रस्तावक अपनी मनमानी रिपोर्ट लिखते हैं, वैसा ही इसका भी हाल हो सकता है।”
ठक्कर के मुताबिक, अदालतों में परियोजनाओं में ईआईए की गड़बडियों के मामलों की भरमार है, इसलिए नदियों के खनन से पहले पुनर्भरण अध्ययन में इस पहलू का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए।