नदी

गंगा दशहरा पर विशेष: मोक्षदायिनी गंगा को पाताल गमन से रोक पाएंगे?

सरकार कितनी भी योजनाएं बना ले जब तक जनमानस प्रयास नहीं करेगी योजनाएं धरी की धरी रह जाएंगी।

DTE Staff

विनीता परमार और कुशाग्र राजेंद्र

भारतीय जनमानस के आस्था की प्रतीक पतितपावनी गंगा को मार्च 2017 में उत्तराखंड हाईकोर्ट से जीवित मानव का दर्जा मिलने का फैसला मिला, लेकिन यह फैसला कुछ समय के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की गले की हड्डी बन गई।

गंगा एवं यमुना में दुर्घटना या इसके इर्द-गिर्द नहर, ट्रेंच या विभिन्न निर्माण कार्यों में भविष्य में आने वाली परेशानियों के मद्देनजर उत्तराखंड सरकार ने सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला लिया तो केंद्र सरकार पूर्व में ही सुप्रीम कोर्ट में विशेष याचिका दायर की।

इन निर्माण कार्यों के लिए बीच का रास्ता निकाल लिया गया। क्योंकि गंगा को भले ही कोर्ट ने जीवित मानव सरीखे मूल अधिकार दे दिए, लेकिन इन मौलिक अधिकारों को प्रत्यक्ष रूप से लागू करने वाले मनुष्य ही हैं। नदी के सौंदर्य को बढ़ाने और पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर गंगा नदी के किनारे प्रयोग पर प्रयोग किए जा रहे हैं। 

गौरतलब है कि गंगा प्रदूषण की भयावहता को देखते हुए उतराखंड हाईकोर्ट ने गंगा और यमुना को विगत 20 मार्च 2017 को जीवित मानव की तरह संवैधानिक अधिकार देने का फैसला सुनाया था। एक बार पुनः गंगा को स्वच्छ बनाने में सरकार की ईच्छाशक्ति के सामने जनमानस में नदियों को पवित्र और प्रदूषणमुक्त रख पाने की कार्यशैली का अभाव दिखता है, लेकिन हाल के दिनों में, जल प्रदूषण की दर में वृद्धि के कारण नदी की नौवहन क्षमता में गिरावट आई है।

हालांकि वर्तमान केंद्र सरकार ने नदी की स्थिति और नदी के किनारे स्थित गांवों के विकास के लिए गंगा ग्राम नमामि गंगे परियोजना को लागू किया है। योजना की विशालता केंद्र सरकार को नदी और उसके किनारों पर स्थित गांवों को विभिन्न चरणों में विकसित करने के कार्य से निपटने के लिए मजबूर करती है।

केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश को छोड़ कर उत्तराखंड, बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल के गंगा नदी के तट पर स्थित गांवों एक वृहद् सूची प्रकाशित की है, जहा गंगा ग्राम की परियोजना लागु की जा रही है।गंगा नदी देश की जीवन रेखा है। न केवल नदी देश के लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण धार्मिक प्रतीक है, बल्कि इसने देशवासियों को जीवनदायिनी जल भी प्रदान किया है। 30 मई 2023 को गंगा दशहरे के अवसर पर लगभग 15 लाख लोग गंगा में डुबकी लगाएंगे। हमारे देश में किसी भी पूजा या आस्था के पूर्व स्वत: ही मुंह से निकल पड़ता है-

“गंगे च यमुने चैव गोदावरी च सरस्वती,

नर्मदे, सिंधु, कावेरी जलेस्मिन सन्निधिम्म कुरु”

यह सिर्फ एक मंत्र नहीं यह उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम के सभी लोगों को जोड़ने का उद्घोष है। गंगा सिर्फ एक नदी नहीं, ये भारतीयता की प्रतीक है। ऐसी मान्यता है कि गंगा दशहरा के दिन किसी भी नदी में गंगा का स्मरण कर स्नान कर लिया जाए तो गंगा नदी में नहाने के समान पुण्य मिलता है।

उत्तर में जितना गंगा स्नान का महत्व है उतना ही दक्षिण के लोगों के लिए है, वे अपनी ज़िंदगी का एक लक्ष्य गंगा स्नान को भी मानते हैं। मृत्यु के पूर्व एक बूंद गंगाजल की चाह सभी की होती है। ऐसा विश्वास है कि गंगाजल में अस्थियों को भी गलाने की क्षमता होती है जिनकी अंतिम यात्रा गंगा किनारे नहीं सम्पन्न हो पाती उनकी अस्थियों को गंगा में विसर्जन के पश्चात मोक्ष की प्राप्ति मान लिया जाता है।

गंगा और उसकी सहायक नदियां बारहमासी नदियां हैं जो सिंचाई के साथ - साथ मनोरंजन के प्रमुख साधन हैं।  

प्रतिवर्ष ज्येष्ठ के शुक्ल पक्ष गंगा के जन्मोत्सव को गंगा दशहारा के रूप में मनाया जाता है इस दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व है। मान्यता है कि इसी शुक्ल पक्ष के दशमी तिथि के दिन गंगा धरती पर अवतरित हुई थी। अगर इस मान्यता और राजा भागीरथ के अभियंत्रण कौशल को ध्यान से देखा जाये तो आज के लोग बहुत पीछे नजर आते हैं।

तिब्बत को स्वर्ग माना जाये जहाँ बर्फ़ के रूप में गंगा बहती होगी वहाँ से शंकर की जटा यानि पहाड़ों में फंसी गंगा को अकाल में मारे गये प्रजा की आत्मा की शांति एवं जीवन बचाने हेतु धरती पर लाया होगा। इस अनूठी इंजीनियरिंग को देखा जाये तो गोमुख से बंगाल की खाड़ी तक गंगा अविरल धारा के रूप में बहती थी।

लेकिन केंद्रीय जल आयोग की ताजा रिपोर्ट के अनुसार गंगा के पानी का बहाव बहुत ही कम होता जा रहा है। विगत वर्षों में गंगा का पानी औसतन दो से ढाई फीट कम हुआ है।  गंगा सिकुड़ती जा रही है और कई जगहों पर अपना मार्ग बदल रही है। फैक्टरियों से निकलने वाले कचरे के अलावा प्लास्टिक कचरे गंगा की गहराई को कम करते जा रहे।

विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार उत्तरप्रदेश की 12 प्रतिशत बीमारियों की वजह प्रदूषित गंगाजल है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार गंगा में गंगा में आर्सेनिक, फ्लोराइड और क्रोमियम जैसे विषैले तत्व भी पाये गये।

नदियों में स्वत: अपने को स्वच्छ करने की क्षमता होती है गंगा में तो विशेष विषाणु बैक्टीरिओफेज पाये जाते हैं जो जीवाणुओं एवं सूक्ष्ग जीवों का नाश कर देते है अभी प्रदूषण की वजह से विषाणुओं की संख्या भी कम हो गई है साथ ही साथ गंगा को निर्मल एवं स्वच्छ बनाने वाले कछुए, मछलियों तथा तलछट में पाए जाने वाले अनेक प्राणियों की संख्या दिन-ब-दिन कम होती जा रही है।

दुर्भाग्य से समय के साथ आबादी में वृद्धि, अनियोजित औद्योगीकरण और असंवहनीय कृषि कार्यों के कारण गंगा एवं इसकी सहायक नदियों में प्रदूषक तत्त्वों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।

लगभग हर वर्ष उतराखंड में गंगा में आनेवाले बाढ़ का मूल कारण नदी के प्राकृतिक बहाव में बाधा बनते हाइड्रो इलैक्ट्रिक पावर प्लांट की एक श्रृंखला हैं जो उचित प्रबंधन की कमी की वजह से भयानक त्रासदी का कारण बनते हैं, जिसकी एक बानगी दो साल पहले फरवरी के महीने में धौली गंगा-ऋषि गंगा में आयी तबाही हैं।

आज मोक्षदायिनी गंगा के अस्तित्व पर मडराते खतरे के देखते हुए प्रदूषण नियंत्रण के लिए बनाये गये विभिन्न क़ानूनों के साथ  गंगा को “राष्ट्रीय नदी”, “राष्ट्रीय धरोहर” घोषित किया गया इसके अलावा गंगा एक्शन प्लान व राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना लागू की गई।

हालांकि, फ्लैगशिप परियोजना 'नमामि गंगे' के क्रियान्वयन के बाद धीरे-धीरे गंगा नदी में प्रदूषण काफी कमी रिपोर्ट की जा रही है, पर अभी भी नदी को प्राकृतिक स्वरुप तक लाने का संकल्प बहुत दुरूह कार्य है। इस परियोजना के तहत सार्वजनिक नीतियों, प्रौद्योगिकी का प्रयोग एवं सामुदायिक भागीदारी को शामिल करते हुए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाया गया है।

लेकिन जुलाई 2022 में राष्ट्रिय हरित प्राधिकार (एनजीटी) ने कहा कि लगभग 50% अनुपचारित सीवेज अभी भी गंगा में बहाया जा रहा है।  एनजीटी अपनी समीक्षा में कहा कि विभिन्न राज्य के अधिकारियों द्वारा निष्पादन कार्य में तत्परता अपर्याप्त है और स्वच्छ गंगा के लिए राष्ट्रीय मिशन गैर-अनुपालन के खिलाफ सख्त कदम उठाने की स्थिति में नहीं दिखता है।

गोमुख से गंगा जैसे ही हरिद्वार से आगे बढ़ती है इसकी निर्मलता समाप्त होती दिखती है, सरकार कितनी भी योजनाएं बना ले जब तक जनमानस प्रयास नहीं करेगी योजनाएं धरी की धरी रह जाएंगी। टिकाऊ विकास की आड़ और वर्तमान जरूरतों के मोह में गंगा खुद की सांसें बचाने में लगी है। आस्थवादियों, विकासवादियों और पर्यावरणविदों के दंभ के बीच मे जीवनदायिनी गंगा जी की खुद की   जान साँसत में है।

आज भी गंगा विश्व की पांच सबसे प्रदूषित नदियों में से एक है। गंगा की सफाई और पर्यावरणविदों की राय के अनुसार - "गंगा को साफ करने के लिए निर्धारित धन नदी की वास्तविक सफाई और नदी को पुनर्जीवित करने पर खर्च किया जाना चाहिए, न कि रिवरफ्रंट विकास जैसी परिधीय गतिविधियों पर।"

विशेषज्ञों की माने तो, अधिक घाट नदी तक अधिक लोगों को पहुंचने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप खुले में शौच और नदी में स्नान करते समय साबुन का उपयोग करने वाले लोगों के कारण प्रदूषण हो रहा है। लोगों के लिए आध्यात्मिक जुड़ाव और रिवरफ्रंट के बेहतर प्रबंधन की दृष्टि से घाट महत्वपूर्ण हो सकते हैं। लेकिन घाट और गंगा की रक्षा के लिए नियमों को और सख्त बनाना होगा।

 अपनी मां की अस्तित्व की रक्षा और निर्मलता बनाये रखने हेतु आम जनमानस को अपने छोटे-छोटे प्रयासों से गंगा को मैली होने से बचाना होगा कि हर वर्ष कम–से–कम हम गंगा का अवतरण दिवस मना सके। गंगा की कराह अगर राजा भागीरथ को सुनाई पड़ रही होगी तो उनकी आत्मा भी कचोटती होगी कि क्यों मैं इस नदी को धरती पर लाया?

यह मानव जाति अपने लोभ और राजनीति में अपनी मां को मारने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है। पिछले चार दशकों से गंगा की सफाई पर करोड़ों बह चुके लेकिन गंगा की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है।

अगर वास्तव में गंगा नदी का कायाकल्प करना है तो दो चीजों को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। एक, सभी उद्योगों में शून्य तरल निर्वहन (जीरो डिस्चार्ज) होना चाहिए क्योंकि औद्योगिक अपशिष्ट नदी प्रदूषण का पहला और सबसे महत्वपूर्ण कारण है। दूसरा, नदी में पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित किया जाना चाहिए, यानी पर्याप्त पानी को पूरे साल नहरों आदि में मोड़ने की बजाय अपनी पूरी लंबाई में बहनी चाहिए।

नदी संरक्षण का दूरदर्शी लक्ष्य तो ये होना चाहिए की किसी भी तरह का औधोगिक कूड़ा या तरल अपशिष्ट का निस्तारण में नदी को किसी भी स्तर पर शामिल ना किया जाये, जो की सर्कुलर इकॉनमी के अनुरूप भी होगा। जहां तक नदी में प्राकृतिक बहाव का सवाल है तो हमें मृतप्राय यमुना नदी से सीख लेनी चाहिए कि कैसे यमुनोत्री से दिल्ली तक आते-आते नदी का अपना एक बूंद भी बहाव नहीं बचता, सारा का सारा जल कृषि, उद्योग और पीने के पानी के लिए चूस लिया जाता है और दिल्ली में जो बहाव दीखता है वो बस हमारे घरो का मल, मूत्र और अपशिष्ट ही होता है।

मोबाईल के साथ मशगूल पीढ़ी विभिन्न घाटों की आरती देखने के आकर्षण से नहीं बच पा रही है। काल प्रवाह की तीव्र गति में फंसकर तथा इसके चलते होने वाले सभ्यता से इतर हमारी हजारों वर्षों की संस्कृति अपनी प्रवृति को छोड़ते जा रही है। दिखावे की होड़ में गंगा के किनारे गोआ बनाने बनाने में जहाँ एक ओर पवित्रता नष्ट होती रही है वहीं इनकी दिव्यता एवं भव्यता में भी गिरावट आयी है।

इसके अतिरिक्त आधुनिकता और झूठी शान के नाम पर तीर्थों का पर्यटन केन्द्र के रूप में इस्तेमाल होने लगा है। इससे इन तीर्थ स्थलों में जाकर लोगों के मन-मस्तिष्क में जहाँ पहले शांति एवं अध्यात्म की तरंगें हिलोरे लेने लगती थी वहीं अब इनकी दुर्दशा देखकर मन क्लेश से भर उठता है। यह आनंद इतना क्षणिक होता है कि भीड़ और कोलाहल के साथ पसीना बन निकल जाता है और रेटिने पर टिक नहीं पाता है।