पश्चिमी घाट की सह्याद्रि पर्वतमाला में मुला और मुठा नदियों का उद्गम है। तकरीबन छह करोड़ वर्ष पहले ज्वालामुखी विस्फोट के चलते सह्याद्रि का निर्माण हुआ था। मुला और मुठा नदियां करीब एक करोड़ वर्ष पुरानी हैं। पत्थर के औजारों के रूप में होमो सेपियन्स की बस्तियों के प्रमाण लगभग पंद्रह से बीस हजार वर्ष पुराने हैं। संगम क्षेत्र यानी दो नदियों के मिलन स्थल के नजदीक होने के कारण इस बस्ती को पुण्यविषय, पुण्यकविषय, पुण्यनगरी और बाद में पुणे कहा गया।
छत्रपति शिवाजी के शासनकाल में इस नगर को प्रमुखता हासिल हुई। अठारहवीं सदी का मध्य भाग इस शहर और यहां की नदियों का स्वर्णिम काल था। श्रीमंत नानासाहेब पेशवा के शासनकाल में नगर खूब फला-फूला। नदी तट पर बने मंदिरों और घाटों ने इसकी सुंदरता को और निखार दिया। मुठा के तट पर लगभग एक किमी के हिस्से में निर्मित करीब चौदह घाट नदियों के साथ नागरिकों के संपर्क के स्तर को दर्शाते हैं।
आज दोनों ही नदियां भारत की सबसे प्रदूषित नदियों में शुमार हैं। नदियों की दुर्दशा भरी मौजूदा स्थिति अचानक शुरू नहीं हुई बल्कि ये एक क्रमिक प्रक्रिया रही। इसकी शुरुआत 1880 में खडकवासला में मुठा नदी पर पहले बांध के साथ हुई, जिसके बाद तीन और बांध बनाए गए। शहर में पानी के लिए नदी पर सीधी निर्भरता न होने से नदियों के प्रति उदासीनता भरे रुख की शुरुआत हुई।
शहर और यहां की नदियों के बीच बदतर होते रिश्ते पर निर्णायक चोट 1961 की बाढ़ से लगी। मुठा की सहायक नदियों में से एक अंबी नदी पर पानशेत में बना बांध ढह गया। इसके चलते मुठा पर बने खडकवासला बांध में दरार आ गई। जिन दो बांधों से आने वाले पूरे साल शहर की प्यास बुझनी थी, वो उस दिन कुछ ही घंटों में खाली हो गए। इस आपदा में जान और माल का भी नुकसान हुआ। बाढ़ का पानी तटों पर बने खूबसूरत उद्यानों और विरासती संरचनाओं को बहा ले गया। स्वाभाविक रूप से नदी तल की तुलना में जल आपूर्ति की बहाली को प्राथमिकता दी गई। उखड़े हुए पेड़ और चट्टानें जस की तस पड़ी रहीं, जिससे गाद और ठहरा हुआ पानी जमा हो गया। एक समय खूबसूरती बिखेरने वाला नदी का तल और किनारा पलक झपकते ही एक मैली जगह में तब्दील हो गया। शहर ने मानो हमेशा के लिए अपनी नदियों से मुंह मोड़ लिया।
जैसे-जैसे शहर के ऊपरी हिस्से में बने बांध पानी की आपूर्ति के एकमात्र स्रोत बन गए, नदियां उपेक्षित स्थिति में आ गईं। जो अतीत में एक सांस्कृतिक केंद्र और वाद-संवाद का स्थान हुआ करते थे वो बड़ी तेजी और आसानी से सीवेज और कचरे का बोझ ढोने वाले केंद्र बन गए। मुठा नदी में प्रदूषण मुख्य रूप से घरेलू है, जबकि मुला नदी पिंपरी-चिंचवाड़ के औद्योगिक क्षेत्र से होकर बहने वाली अपनी सहायक नदी पवना के कारण औद्योगिक प्रदूषण का बोझ ढो रही है।
1950 के दशक में डॉ. वी. डी. वर्तक और 1980 के दशक की शुरुआत में जाने-माने पारिस्थितिकी-विज्ञानी प्रकाश गोले द्वारा किए गए अध्ययन से नदी की जैव विविधता में स्पष्ट रूप से गिरावट का पता चला।
प्रदूषण और उसके चलते जलकुंभियों के प्रसार से स्थानीय वनस्पतियां सिकुड़ने लगीं। पानी के मैलेपन से गोते लगाने वाली बत्तखें विलुप्त हो गईं और केवल थपथपा कर तैरने वाली बत्तखें (डैबलिंग डक्स) ही बची रह गईं। नदी के स्वास्थ्य के अच्छे संकेतक जैसे पाइड किंगफिशर और तीतर-पूंछ वाले जकाना नदी को छोड़कर चले गए और कौवे और चील जैसे मुर्दाखोर पक्षियों ने उनकी जगह ले ली।
पुणे शहर में मुठा के पूरे मार्ग विस्तार ने एक समय समृद्ध रहे तटवर्ती क्षेत्र को तबाह कर दिया। इसमें सुधार के लिए जरूरी राजनीतिक इच्छाशक्ति और पर्याप्त बुनियादी ढांचे की कमी के कारण 33 प्रतिशत अनट्रीटेड सीवेज नदी में जस का तस प्रवाहित हो जाता है। मॉनसून के महीनों को छोड़कर बाकी समय इन नदियों में घुलनशील ऑक्सीजन वांछित स्तर से काफी नीचे रहता है।
निर्माण का मलबा और ठोस कचरा नियमित रूप से नदी और नदी तल में फेंक दिया जाता है। टूथपेस्ट, साबुन, शैंपू, क्लीनर और डिटर्जेंट जैसे दैनिक उपयोग के उत्पादों के रसायन नदी में घुलते रहते हैं। इनकी मौजूदगी उन स्थानों पर दिखाई देने वाली झाग के जरिए स्पष्ट होती है जहां अंतर्धारा चट्टानों और बांधों के कारण हिलोरें और हलचल पैदा होती हैं।
पुणे शहर के निचले इलाकों जैसे कवाडी पाट और लोनी कालभोर में ऐसी दर्दनाक तस्वीर दिखाई देती है। पुणे शहर ने न केवल नदियों से अपना संबंध खत्म कर लिया, बल्कि नदियों के पास रिहाइश को असंभव बनाकर निचले इलाके के लोगों के भावनात्मक संबंधों को भी तार-तार कर दिया।
किसी भी शहरी नदी की तरह बाढ़ क्षेत्र के भीतर अतिक्रमण और निर्माण का खतरा आम है। विट्ठलवाड़ी क्षेत्र में मुठा नदी के किनारे ब्लू लाइन के भीतर पुणे नगर निगम (पीएमसी) द्वारा सड़क के अवैध निर्माण का मामला इसकी एक मिसाल है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने पीएमसी को सड़क हटाने का आदेश दिया था। सड़क निर्माण की लागत 17.5 करोड़ रु थी जबकि उसे हटाने में तकरीबन 4 करोड़ रुपए खर्च हुए। 4,000 टन स्टील बर्बाद हो गया। कुल मिलाकर पारिस्थितिकी तंत्र को हुए नुकसान का क्या? जो मूल्यांकन की परंपरागत प्रणालियों में अपरिवर्तनीय और गैर-जवाबदेही भरा है।
इन नदियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती उस शहर की उदासीनता है। नदी में फेंका जा रहा कूड़े से भरा थैला महज कूड़े का थैला नहीं है, यह इंसानों और नदियों के बीच गुम हो चुका रिश्ता है। किसी भी बदलाव के लिए दो चीजों की आवश्यकता होती है- क्षमता और इच्छाशक्ति। इन दोनों की कोई कमी हमारे देश में नहीं है। हालांकि, एक व्यापक दृष्टिकोण की जरूरत है जो नदियों की समग्र समस्याओं का निराकरण करता हो।
मुठा नदी घरेलू सीवेज का प्रदूषण झेल रही है तो मुला नदी औद्योगिक प्रदूषण की मार खा रही है। इन दोनों नदियों को उपेक्षित बना दिया गया है। मुठा नदी में करीब 33 फीसदी गैर-शोधित सीवेज नदी में सीधा प्रवाहित हो रहा है
जागरुकता की कमी : जागरुकता के ऊंचे स्तरों और नागरिक पहल के बावजूद पुणे शहर में गंदगी का अंबार लगा हुआ है।
नागरिक/एनजीओ पहल स्थानीय सफलता की कहानियां बन जाती हैं लेकिन शायद ही समस्या की तह तक पहुंच पाती हैं।
प्रयासों का पैमाना बढ़ाने में नाकामी: विभिन्न पहलें एकाकी रूप से काम करती हैं, संसाधनों को खत्म करती हैं और ऐसे नतीजे हासिल करती हैं जो सकारात्मक होते हुए भी किसी प्रत्यक्ष पैमाने तक नहीं पहुंच पाती हैं।
सरकारी मशीनरी का विखंडीकरण: स्थानीय प्रशासन के संसाधन जैसे पीएमसी, जिनपर पहले से ही काफी बोझ है, वो ऐसे अलग-थलग प्रयासों में हाथ बंटाते हुए कई ओर से दबावों का सामना करते हैं।
समग्र दृष्टिकोण का अभाव: हरेक संगठन अपनी विशेषज्ञता के अनुसार पहलों को लागू करता है, और अक्सर समग्र दृष्टिकोण और प्रभाव हासिल करने में नाकाम रहता है।
अनुकरण के योग्य कोई प्रणालीगत मॉडल नहीं: एक बड़े भौगोलिक क्षेत्र में फैले खंडित प्रयास अनुकरण के योग्य कोई भी प्रणालीगत मॉडल तैयार करने में असफल रहते हैं।
संभावित समाधान: एक विशाल भौगोलिक क्षेत्र, यानी पुणे शहर में प्रयासों और संसाधनों को फैलाने की बजाए प्रभाव हासिल किए जाने वाले छोटे से हिस्से पर ध्यान केंद्रित करें। जिसे जागरुकता निर्माण के साथ-साथ नीतिगत-शासन उपायों में सुधारात्मक, निवारक और सख्त प्रावधानों के संयोजन के जरिए एक समग्र, अनुकरणीय मॉडल बनाकर प्रदर्शित किया जा सकता है। इसके अलावा इस निर्दिष्ट क्षेत्र पर काम करने के लिए सभी व्यक्तियों, गैर सरकारी संगठनों और स्थानीय सरकारी एजेंसियों को एकजुट करें।
(लेखिका जीवित नदी-लिविंग रिवर फाउंडेशन की संस्थापक-निदेशक हैं)