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पर्यावरण प्रभाव आकलन का नया ड्राफ्ट जनविरोधी है: मेधा

Anil Ashwani Sharma

पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) 2020 अधिसूचना के ड्राफ्ट पर देशभर के पर्यावरणविदों से लेकर जन संगठन सवाल उठा रहे हैं। क्योंकि यह अधिसूचना पर्यावरण कानून को न केवल कमजोर करेगी, बल्कि विकास योजनाओं से उजड़ने या डूबने वालों के विरोध की आवाज को भी दबाने का काम करेगी। इस मसौदे में जनसुनवाई जैसे महत्वपूर्ण प्रावधान को खत्म करने की बात कही गई है। ऐसे में इस मुद्दे पर बीते तीन दशकों से देश की सबसे बड़ी नर्मदा घाटी परियोजना पर लगातार जनसुनवाई करके सवाल उठाने वाले संगठन नर्मदा बचाओ आंदोलन की कार्यकर्ता मेधा पाटकर से डाउन टू अर्थ ने बातचीत की।

सवाल- देश में पर्यावरण की सुरक्षा के दृष्टिकोण से इसमें कानूनी रूप से कब बड़ा बदलाव आया?

मेधा- पर्यावरण की सुरक्षा के दृष्टिकोण से इसमें कानूनी रूप से सबसे बड़ा बदलाव 1986 में आया। इस साल पर्यावरण सुरक्षा कानून लाया गया और पर्यावरण मंत्रालय को शक्तियां प्रदान की गई। उस समय टीएन शेषन मंत्रालय के सचिव थे, जो पर्यावरण के प्रति सजग और संवेदनशील थे।  तब पर्यावरण के नियम और नीति भी जनपक्षीय आधार पर आगे बढ़ीं। 

सवाल- पर्यावरण प्रभाव आंकलन (ईआईए) पहली बार नोटिफिकेशन कब आया?

मेधा- यह काम हुआ 1994 में जब कांग्रेस सत्ता में थी। उस समय केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय एक नोटिफिकेशन लाया। इस नोटिफिकेशन में सबसे महत्वपूर्ण बात थी, लोगों की जनसुनवाई का प्रावधान। यह प्रावधान पहली बार शामिल हुआ था। उस समय से लेकर अब तक विकास परियोजनाओं से उजड़ने और डूब में आने वाले प्रभावितों के लिए यह एक अस्त्र की तरह काम कर रहा था।

कहने का अर्थ कि यह विरोध करने का एक ऐसा अस्त्र था, जिसे अब खत्म किया जा रहा है। इस प्रकार की जन सुनवाइयों से विकास योजनाओं की असलियत न केवल सामने आती है, बल्कि इससे प्रभावितों की आवाज भी शासन और प्रशासन तक पहुंचाने का सबसे आसान तरीका था। क्योंकि यदि इस प्रकार के लोग सीधे शासन या प्रशासन के पास जाते हैं तो उन्हें खदेड़ दिया जाता है, लेकिन इस जन सुनवाई ने आम लोगों को एक हथियार प्रदान किया। इससे सरकार और जनता दोनों ही पर्यावरण की सुरक्षा का ख्याल रख पा रहे थे।

सवाल- जनसुनवाई को सरकार ने कब से कमजोर करना शुरू किया?

मेधा- इस हथियार का ही नतीजा था कि देशभर की कई विकास योजनाओं को सरकार फिर आकलन करने पर मजबूर हुई। हालांकि इस अस्त्र से सरकार को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। ऐसे में सरकार ने पहली बार इस जनसुनवाई के अस्त्र को कुंद करने की कोशिश 2006 में की। इसमें केंद्र सरकार ने बदलाव किया।

केंद्र सरकार ने 2006 में एक नोटिफिकेशन जारी कर जनसुनवाई को कमजोर करने के लिए कई अड़ंगे लगाए। कहने के लिए इस नोटिफिशन से जनसुनवाई को धक्का जरूर लगा, लेकिन इसके बावजूद लोगों को इस पर भरोसा बना रहा क्योंकि इसे पूरी तरह से कुंद नहीं किया गया था।

सवाल- नए नोटिफिकेशन में सरकार मुख्य रूप से किस प्रावधान को हटाने की कोशिश में है?

मेधा- पहले 2006 में आंशिक रूप से और अब एक बार फिर से केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय इस परिपत्र को बदल रहा है। इस बदलाव को बारीकी से देखने में यह समझ आ रहा है कि इसमें तो सीधे तौर ही कहा गया है कि अब जन सुनवाई ही न हो। और यही नहीं कई अन्य परियोजनाओं जैसे खदानों की खनन की मंजूरी देंगे तो यह एक लंबे समय तक चलती रहेगी और इसमें बीच में किसी प्रकार की पुनर्विचार की जरूरत ही नहीं रहेगी। यह खतरनाक प्रावधान है।

इसके अलावा तो कई परियोजनाओं को सीधे पर्यावरण मंजूरी से ही छुट्टी मिलने वाली है। नियंत्रण और निगरानी जैसे शब्दों को केंद्र सरकार खत्म कर रही है। इसलिए इसमें कहने के लिए नियंत्रण या निगरानी होगी लेकिन वह एक खानापूर्ति बन कर रह जाएगा। यह अधिसूचना न केवल पर्यावरण विरोधी है बल्कि इसे जन विरोधी कहना अधिक प्रासंगिक होगा।

इस देश में पर्यावरण कोई ओजोन का आवरण नहीं है, जल, जंगल, जमीन, खनिज संपदा, भूजल, भूसंपदा सब पर लोगों का जीवन और उनकी आजीविका निर्भर है। यह ध्यान देने वाली बात है कि जो कार्य पर्यावरण विरोधी होता है वह एक तरह से जन विरोधी, महिला विरोधी आदिवासी विरोधी होने के साथ खनन श्रमिक विरोधी होता है। यह आज तक मेरा अपना अनुभव कहता है। इसलिए इस नए नोटिफिकेशन को लॉकडाउन के दौरान सरकार अपने मनमानी कार्रवाई से अपना कार्य को आगे बढ़ाया है इसे पूरी तरह से केंद्र सरकार को वापस लेना चाहिए।