अरस्तू के प्राचीन समग्रतावादी दर्शन के अनुसार, किसी वस्तु का ‘संपूर्ण’ उसके ‘भागों’ के योग से अधिक होता है। इसी विचार को आधार मानकर, उत्तराखंड के दूधातोली के बुग्यालों से निकलने वाली गैर हिमानी नदी, नयार के “स्रोत से संगम” तक की यात्रा का आयोजन 21 अप्रैल से 28 अप्रैल 2025 को किया गया। यह यात्रा अस्कोट-आराकोट अभियान के तहत की गई। गैर हिमानी नदी से आशय ऐसी नदी है, जो ग्लेशियर से नहीं निकलती।
यात्री दल में, शोधकर्ता, साहित्यकार, लेखक, पर्यावरण कार्यकर्ता और विद्यार्थियों ने हिस्सा लिया। यात्रा का उद्देश्य नयार नदी को एक पृथक जलधारा के रूप में नहीं, बल्कि स्थानीय भूगोल, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और इतिहास से गहराई से जुड़ी, एक जटिल, सजीव पारिस्थितिक प्रणाली के रूप में समझना था।
उत्तराखंड के हिमालयी परिदृश्य से होकर गुजरती यह अद्वितीय वैज्ञानिक और पर्यावरणीय यात्रा जल संरक्षण, पारिस्थितिकीय स्थिरता और समुदाय-आधारित संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण शिक्षाएँ देती है।
नयार नदी, तकनीकी दृष्टि से भले ही दूधातोली के सघन वनों से उद्गमित मानी जाती हो, परंतु वस्तुतः इसका स्वरूप अनेक छोटी-छोटी जलधाराओं की सहयात्रा से निर्मित होता है। ये जलधाराएं, इकाई, दहाई, और सैकड़ा के रूप में, धीरे-धीरे संगमित होकर एक सजीव, स्पंदित नदी का आकार ग्रहण करती हैं।
नयार नदी मात्र एक जलप्रवाह नहीं, अपितु एक समग्र जीवनधारा है, जो इस अंचल की जैव-विविधता, कृषि परंपराओं, सांस्कृतिक स्मृतियों और लोकजीवन की आजीविका का आधार है। किंतु आज यही नदी अपने अस्तित्व के सबसे गहरे संकटों से जूझ रही है—एक पवित्र धारा, जो कभी जीवन का उत्स रही, आज स्वयं जीवनदान की आकांक्षी है।
दूधातोली का जंगल – अर्थात उत्तराखण्ड का पामीर
दूधातोली पर्वत श्रृंखला, जो उत्तराखण्ड के चमोली, पौड़ी और अल्मोड़ा जिलों की सीमाओं को छूती है, 2000 से 2400 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और अपने विशिष्ट भौगोलिक, पारिस्थितिकीय व सामरिक स्वरूप के कारण ‘उत्तराखण्ड का पामीर’ कहलाती है। यह क्षेत्र हरे-भरे बुग्यालों, प्राकृतिक चारागाहों और देवदार, खर्सू, कैल जैसे ऊंचाई पर उगने वाले वृक्षों के घने वनों से समृद्ध है।
जलस्रोतों की दृष्टि से भी यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहीं से उत्तराखंड की पांच प्रमुख गैर-हिमानी नदियां — पश्चिमी रामगंगा, आटागाड़, पश्चिमी नयार, पूर्वी नयार और वूनों/ बूनी — उद्भूत होती हैं, जो क्षेत्र की पारिस्थितिकी, कृषि, संस्कृति और जनजीवन की आधारशिला हैं।
‘दूधातोली’, जिसका अर्थ गढ़वाली भाषा में ‘दूध रखने का बर्तन’ है, कभी समृद्ध पशुपालन परंपरा के लिए प्रसिद्ध था। यहां के हरे-भरे बुग्यालों में कभी लगभग 50,000 गाय-भैंसें चरती थीं, और छानियों में उत्पन्न दूध से बना घी व मक्खन दूर-दराज के गांवों तक पहुंचाया जाता था। किंतु वन संरक्षण कानूनों के लागू होने के बाद, वनों की रक्षा के नाम पर पारंपरिक पशुपालन और मौसमी छानियों को हतोत्साहित किया गया, जिससे यह आजीविका और सांस्कृतिक परंपरा धीरे-धीरे विलुप्त होती चली गई।
आज भी कुछ बुज़ुर्ग गर्मियों के मौसम में इस धरती से अपने पूर्वजों की स्मृति जोड़ने, या परंपरा को जीवित रखने के प्रयास में यहां आते हैं, लेकिन रोजगार की कमी, पशुपालन में नवाचार का अभाव, और कठोर वन कानूनों के चलते नई पीढ़ी गाँव छोड़ने को विवश है। दूधातोली की यह बदलती तस्वीर न केवल एक पर्वतीय क्षेत्र के परिदृश्य का रूपांतरण है, बल्कि हमारी सांस्कृतिक और आर्थिक स्मृति के क्षरण की भी मौन साक्षी है, जिसे पुनर्जीवित करने के लिए दूरदर्शी योजना और संकल्पबद्ध प्रयासों की आवश्यकता है।
पवित्र उद्गम से संकटग्रस्त जीवनरेखा तक
नयार नदी किसी एकल स्रोत से नहीं उद्भव होती, बल्कि यह सैकड़ों छोटी-बड़ी जलधाराओं, नौलों, चाल-खालों और वनस्पतियों से उपजी सहायक धाराओं के सामूहिक संगम से आकार लेती है। पूर्वी और पश्चिमी नयार का मिलन पौड़ी जिले के बांघाट (सतपुली के निकट) में होता है और आगे चलकर यह व्यासघाट पर गंगा से संगम करती है।
अतः यदि इस महत्वपूर्ण गैर-हिमानी जलधारा—नयार नदी—की रक्षा करनी है, तो केवल दूधातोली के संरक्षण से काम नहीं चलेगा; इसके समस्त जल प्रदात्री गांवों, वनों, और पारंपरिक जल स्रोतों को भी सहेजना होगा, जो अपने छोटे-छोटे अंशों से इसे जीवन और गति प्रदान करते हैं।
परम्परागत पशुपालन, वन संरक्षण और गैर-हिमानी नदियां:
चिपको आंदोलन के पश्चात उत्तराखंड के वन प्रबंधन में महत्वपूर्ण बदलाव आया और हिमालयी क्षेत्र में पारंपरिक पशुपालन—विशेष रूप से बुग्यालों में पशु चराई—के पारिस्थितिक प्रभावों पर गंभीर चर्चा शुरू हुई। कुछ संरक्षणवादियों का मानना है कि बुग्यालों में चराई से यह नाजुक पारिस्थितिक तंत्र प्रभावित होता है, जबकि अन्य विशेषज्ञों का तर्क है कि नियंत्रित व मौसमी चराई पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में सहायक होती है, जिससे छोटी जड़ी-बूटियों और फूलों को पनपने का अवसर मिलता है।
नयार नदी के स्रोत से संगम तक की यात्रा के दौरान हमने पाया कि उत्तराखंड के दूधातोली बुग्यालों में चराई पर प्रतिबंध का पारिस्थितिकी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। यहां अनेक पुराने वृक्ष सूख गए हैं, कई जड़ से उखड़ चुके हैं और नए पौधों की वृद्धि लगभग नहीं के बराबर है—जो पारिस्थितिक पुनरुत्पादन में अवरोध का संकेत देता है। जबकि यहां पर कई दशकों से पशु चरान लगभग बंद है।
अनेक वैज्ञानिक अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि नियंत्रित और मौसमी चराई से बुग्यालों की नाज़ुक पारिस्थितिकी संतुलित रहती है। इकोलॉजी लैटर्स (2010) में आर. बागची और ई. जी. रिची ने दिखाया कि चराई जैव द्रव्य के संतुलन, पोषक तत्वों की वृद्धि और वनस्पति विकास में सहायक होती है। चमोली के 'वैली ऑफ फ्लॉवर्स' में चराई बंद होने के बाद कुछ घासों ने प्रभुत्व जमा लिया, जिससे वनस्पतियों की विविधता घटी और आग का खतरा बढ़ा। प्लांट एंड सॉइल (2003) और कंजर्वेशन बायोलॉजी (2005) में प्रकाशित अन्य अध्ययनों से भी यह सिद्ध होता है कि चराई रुकने पर जैव विविधता घट सकती है। वैज्ञानिकों के अनुसार, रोटेशनल चराई को पारिस्थितिक पुनरुत्थान का उपकरण माना जाना चाहिए।
अस्तिव के लिए जूझती नयार नदी:
नयार नदी इस समय गहरे बहुआयामी संकट से जूझ रही है। वर्ष 2017-18 में भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट "हिमालयी क्षेत्रों में जल स्रोतों की स्थिति और पुनर्जीवन" के अनुसार, भारतीय हिमालयी क्षेत्र में लगभग 50 प्रतिशत बारहमासी जलस्रोत या तो सूख चुके हैं या उनका प्रवाह बहुत कम हो गया है।
इस संकट के पीछे कई कारक हैं, जिनमें वनों से लोगों का टूटा संबंध, परंपरागत जल स्रोतों (खाल-चाल) की उपेक्षा, खेतों का बंजर हो जाना और सरकारी योजनाओं की ठेकेदारी-केन्द्रित संरचना प्रमुख हैं। ‘हर घर नल, हर घर जल’ जैसे अभियानों के तहत दूरस्थ जल स्रोतों से पानी तो खींचा जा रहा है, पर पारंपरिक स्रोतों के संरक्षण या पुनर्जीवन का कोई प्रयास नहीं हो रहा। नयार नदी में इस समय 50 से अधिक पम्पिंग योजनाएं सक्रिय हैं, जो पानी तो खींचती हैं लेकिन बदले में नदी को सिर्फ प्रदूषण लौटाती हैं। इसके अतिरिक्त, जलवायु परिवर्तन, पुनर्भरण में गिरावट और अनियंत्रित शहरीकरण से जल उपलब्धता लगातार घट रही है। जलीय जीवन भी संकट में है। गोल्डन महाशीर जैसी मछलियां अब विलुप्ति के कगार पर हैं।
समाधान: समुदाय आधारित पुनरुत्थान
स्रोत से संगम – नयार नदी यात्रा” केवल एक भौगोलिक अन्वेषण नहीं थी, बल्कि यह एक गहरी पारिस्थितिकीय तीर्थयात्रा थी। इस यात्रा के दौरान दो समूहों ने पूर्वी और पश्चिमी नयार की धाराओं का अनुसरण करते हुए सतपुली में संगम किया और वहां से व्यासघाट तक की सामूहिक पदयात्रा की। यह यात्रा नदी के साथ ग्रामीण समुदायों के टूटे हुए भावनात्मक और सांस्कृतिक संबंधों को फिर से जोड़ने का प्रयास थी। गांव-गांव में जन संवाद, पारंपरिक गीत-संगीत, सांस्कृतिक प्रस्तुतियां, अनुष्ठान और सामूहिक संकल्पों के माध्यम से नदी के संरक्षण को जन चेतना से जोड़ा गया।
यात्रा के दौरान कुछ प्रमुख समाधान बिंदु उभर कर सामने आए—स्थानीय प्रजातियों से वनीकरण को प्रोत्साहित करना, नियंत्रित और मौसमी चराई की पारंपरिक व्यवस्था को पुनर्जीवित करना, पारंपरिक जलस्रोतों और धारों की रक्षा करना, तथा एकीकृत नदी घाटी प्रबंधन हेतु प्रयास करना होगा. नयार जैसी गैर हिमानी नदियों को बचाना केवल तकनीकी उपायों से संभव नहीं है, इसके लिए जनसहभागिता और सांस्कृतिक पुनरुत्थान की दीर्घ कालीन योजना की आवश्यकता है।
निष्कर्ष एवं आह्वान:
नयार नदी की यात्रा ने यह स्पष्ट किया कि नदी संरक्षण केवल वैज्ञानिक उपायों या नीतिगत ढांचों का प्रश्न नहीं है, बल्कि यह स्मृतियों, लोक संस्कृति, सामूहिक चेतना और जीवनशैली से गहरे जुड़ा हुआ विषय है। नयार सिर्फ एक नदी नहीं, बल्कि उन संबंधों की प्रतीक है जो मनुष्य को प्रकृति से जोड़ते हैं। इस यात्रा ने विज्ञान और संस्कृति के बीच सेतु बनाकर यह सिखाया कि नदी को बचाना केवल पर्यावरण नहीं, एक सभ्यता को बचाना है। हिमालय की चुपचाप सूखती इन नदियों का संकट हमें विकास की मौजूदा परिभाषा पर पुनर्विचार करने और पुनः प्रकृति से जुड़ने का आह्वान करता है। नयार की यह यात्रा अंत नहीं, एक सामूहिक पुनरारंभ है—जहाँ नदी को बचाना, दरअसल स्वयं को बचाना है।
लेखक इस यात्रा के यात्री दल में शामिल थे