नर्मदा नदी पर कम-से-कम एक बांध तो अब चालू नहीं हो पाएगा। नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) ने पिछले चार दशकों से नर्मदा पर बड़े बांधों के निर्माण के खिलाफ संघर्ष किया है। यह लड़ाई गुजरात के नवगांव में स्थित सरदार सरोवर बांध से शुरू हुई थी। इस जनआंदोलन ने देश में पहले बने अन्य नदियों के बांधों की तुलना में नर्मदा पर बनने वाले विभिन्न बांधों से प्रभावित परिवारों के लिए बेहतर पुनर्वास और पुनर्स्थापन सुनिश्चित करवाया है। फिर भी पारिस्थितिकी (ईकोलॉजिकल) और सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से हानिकारक इन बांधों के निर्माण को रोकना संभव नहीं हुआ। लेकिन मध्य प्रदेश के खरगोन जिले के मंडलेश्वर (महेश्वर) में बनने वाला महेश्वर बांध, जिसको जलविद्युत (हाइड्रोपावर) पैदा करनी थी और जिस पर अब तक लगभग ₹5,000 करोड़ खर्च हो चुके हैं, बहुत संभव है कि कभी भी संचालित न किया जा सके।
11 जुलाई 2025 को राष्ट्रीय कंपनी विधि अधिकरण (एनसीएलटी) की इंदौर विशेष पीठ ने अपने आदेश में निर्देश दिया है कि श्री महेश्वर हाइडेल पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड (एसएमएचपीसीएल), जिसे मंडलेश्वर/महेश्वर बांध का निर्माण और संचालन करने का अनुबंध दिया गया था, को परिसमाप्त (लिक्विडेट) किया जाए। अनेक वित्तीय संस्थानों ने इस परियोजना को ऋण दिया था, जिनमें सबसे बड़ा लेनदार पावर फाइनेंस कॉरपोरेशन (पीएफसी) है। उसी ने एसएमएचपीसीएल के खिलाफ कॉरपोरेट दिवालिया समाधान प्रक्रिया (सीआईआरपी) शुरू करने हेतु एनसीएलटी में आवेदन किया था, क्योंकि कंपनी ऋण चुकाने में चूक (डिफॉल्ट) कर चुकी थी और परियोजना का काम भी छोड़ दिया गया था। सामान्यतः सीआईआरपी को 180 दिनों में पूरा किया जाना चाहिए। लेकिन प्रक्रिया को बढ़ाते-बढ़ाते 840 दिन तक का समय दिया गया और फिर भी कोई समाधान नहीं निकल सका, क्योंकि न तो कोई सरकारी और न ही कोई निजी कंपनी एसएमएचपीसीएल को अपने हाथ में लेने (टेकओवर) के लिए बोली लगाने को तैयार हुई। इसका मुख्य कारण यह था कि यह रिकॉर्ड ही उपलब्ध नहीं था कि अभी कितना निर्माण कार्य और कितना पुनर्वास-पुनर्स्थापन कार्य बाकी है। ऐसे में कंपनी का आधार ही मौजूद नहीं था। इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय के कई आदेशों का हवाला देते हुए एनसीएलटी ने कहा कि सीआईआरपी के लिए पर्याप्त समय दिया जा चुका है, पर कोई खरीदार सामने नहीं आया। अतः कंपनी को समाप्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा।
समस्या यह है कि नदी पर जो संरचना (डैम स्ट्रक्चर) बनी है, वह बस एक ढांचा जैसा है। उसके अलावा कोई वास्तविक परिसंपत्ति मौजूद नहीं है। ऊपर से, मध्य प्रदेश सरकार ने न केवल यह साफ कर दिया है कि वह परियोजना को अपने हाथ में नहीं लेगी, बल्कि इससे पहले अप्रैल 2020 में उसने एसएमएचपीसीएल के साथ किया गया पावर परचेज एग्रीमेंट (पीपीए) भी निरस्त कर दिया था। ऐसे में बिना पीपीए के इस अधूरे बांध संरचना का कोई खरीदार नहीं मिलने वाला। परिणामस्वरूप, यह ढांचा देश में अव्यवस्थित नदी प्रबंधन का मूक गवाह बनकर खड़ा रहेगा।
महेश्वर बांध का निर्माण 1994 में सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) मॉडल के तहत मध्य प्रदेश सरकार और एसएमएचपीसीएल के बीच शुरू किया गया था। 1990 के दशक की शुरुआत में बिजली क्षेत्र को निजीकरण के लिए खोला गया था और इसके दो प्रमुख तर्क दिए गए थे। पहल- कहा गया कि सरकार के पास धन की कमी है, जबकि निजी क्षेत्र पूंजी लगा सकता है। दूसरा- यह दावा किया गया कि निजी कंपनियां परियोजनाओं को समय पर पूरा करेंगी और बेहतर गुणवत्ता की बिजली कम लागत पर उपलब्ध कराएंगी। पर महेश्वर परियोजना जलविद्युत क्षेत्र में निजीकरण के साथ क्या-क्या गलत हो सकता है, इसका उदाहरण बन गई। लागत घटाने के प्रयास में एसएमएचपीसीएल ने प्रभावित परिवारों के उचित पुनर्वास और पुनर्स्थापन की जिम्मेदारी से बचने की कोशिश की। इससे प्रभावित लोगों ने न्याय के लिए नर्मदा बचाओ आंदोलन के बैनर तले संगठित होकर संघर्ष छेड़ दिया। संघर्ष के कारण निर्माण में विलंब हुआ और परियोजना की लागत लगातार बढ़ती गई। निजी पक्ष ने दावा किया कि उसने पूरा वित्तीय प्रबंध कर लिया है, पर वास्तविकता में जरूरी गतिविधियों के लिए धन जुटाना संभव नहीं हुआ और काम की रफ्तार धीमी ही रही।
परियोजना रोकने और उचित पुनर्वास व पुनर्स्थापन सुनिश्चित करने के लिए प्रभावित लोगों का यह शक्तिशाली जनआंदोलन सरकारी दमन झेलते हुए भी जारी रहा। लोग न केवल डटे रहे, बल्कि आलोक अग्रवाल और चित्तरूपा पालित के नेतृत्व में एक शोध के जरिये यह साबित किया कि पीपीए के तहत बिजली की लागत अत्यधिक (लगभग 9 प्रति रुपए यूनिट) होगी, जबकि अपस्ट्रीम में स्थित इंदिरा सागर और ओंकारेश्वर बांधों से या अन्य नवीकरणीय स्रोतों से बिजली की लागत मात्र 3 रुपए प्रति यूनिट तक थी। फिर भी सरकार और एसएमएचपीसीएल परियोजना पर अड़े रहे। विभिन्न सरकारी वित्तीय संस्थानों, जिनका नेतृत्व पावर फाइनेंस कॉरपोरेशन कर रहा था से कुल लगभग 1,900 करोड़ रुपए का ऋण लिया गया, जो कि एसएमएचपीसीएल द्वारा लगाए गए 499 करोड़ रुपए के निवेश से कहीं अधिक था। अंततः सारी धनराशि चुक गई और 2015 तक कार्य पूरी तरह ठप हो गया, जबकि पुनर्वास का काम भी अधूरा था। यह पर्यावरणीय स्वीकृति की उस शर्त का उल्लंघन था, जिसके अनुसार पुनर्वास-पुनर्स्थापन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही निर्माण आगे बढ़ाया जाना चाहिए था। आखिरकार, मध्य प्रदेश सरकार ने पीपीए रद्द कर दिया, जिससे परियोजना पूरी तरह अलाभकारी हो गई। इसके बाद पावर फाइनेंस कॉरपोरेशन और अन्य लेनदारों ने दिवालिया समाधान के लिए एनसीएलटी का रुख किया। पर वहाँ से भी कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला और अब बांध को यूं ही छोड़ना पड़ेगा। इस पूरी प्रक्रिया में नदी का प्रवाह बाधित हुआ, बांध की दीवार के दोनों किनारों पर कुछ लोगों को विस्थापित होना पड़ा और भारी मात्रा में सार्वजनिक धन खर्च हो गया—और हाथ कुछ भी नहीं आया।
इस बीच, एनबीए की मांग है कि मध्य प्रदेश सरकार इस बांध को पूरी तरह गिरा दे और नर्मदा को उसकी मूल, स्वच्छ धारा में बहने दे।
लेखक राहुल बनर्जी एक शोधकर्ता हैं। लेख में व्यक्त किए गए लेखक के निजी विचार हैं