भारत में पिछले पांच दशकों में बाढ़ की घटनाओं में तीन गुना वृद्धि हुई है
बाढ़ से उत्तर और पूर्वी राज्यों में जनजीवन प्रभावित हुआ है
जलवायु परिवर्तन, अनियमित मानसून और शहरीकरण ने इस समस्या को बढ़ाया है
बाढ़ प्रबंधन के लिए तकनीकी और सामुदायिक प्रयासों की आवश्यकता है,
लेकिन संसाधनों की कमी और प्रशासनिक बाधाएं चुनौती बनी हुई हैं
पिछले पांच दशकों में भारत में बाढ़ की आवृत्ति और तीव्रता दोनों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। गंगा, ब्रह्मपुत्र, कोसी, यमुना, सतलुज और रावी आदि नदियों ने लगातार अधिकतम जलस्तर की सीमा को पार किया है। देश में पिछले 50 वर्षों में मानसून के दौरान भीषण बाढ़ की घटनाओं में तीन गुना वृद्धि दर्ज की गई। उत्तर भारत से लेकर पूर्वी राज्यों, जैसे ओडिशा और पश्चिम बंगाल में भी वर्षा से उपजी बाढ़ ने सामान्य जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया है।
डाउन टू अर्थ में छपी जानकारी के अनुसार, वर्ष 2023-2024 में बाढ़ ने 20 लाख से अधिक लोगों को प्रभावित किया। केंद्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, इस अवधि में चक्रवात, बाढ़, भूस्खलन और बादल फटने जैसी प्राकृतिक आपदाओं से 2,616 लोगों की मौत हुई, जो पिछले वर्ष की तुलना में 24 प्रतिशत अधिक थी। यह आंकड़ा देश में बढ़ती जलवायु आपदाओं की गंभीरता को रेखांकित करता है। इस वर्ष उत्तर भारत में मानसून के दौरान सैकड़ों लोगों की मृत्यु हो चुकी है। वहीं इस सैलाब के कारण होने वाली बीमारियों और आजीविका पर प्रभाव के फिलहाल कोई स्पष्ट आंकड़े मौजूद नहीं हैं।
बाढ़ की बढ़ती जटिलता के प्रमुख कारकों में जलवायु परिवर्तन, मानसून की अनियमितता, ग्लोबल वॉर्मिंग और बारिश की तीव्रता बढ़ जाना है। इस वर्ष मानसून में आए बदलाव कई कारकों का परिणाम हैं। अरब सागर में स्थायी निम्न दबाव और विदर्भ क्षेत्र पर सक्रिय ट्रफ के चलते मानसून समय से पहले शुरू हुआ और वातावरण में नमी बढ़ी। बंगाल की खाड़ी में बने निम्न दबाव तंत्र ने ट्रफ को उत्तर की ओर खींचा, जिससे नमी और ऊर्जा का बहाव और बढ़ गया। इसका असर उत्तर और मध्य भारत में वर्षा की तीव्रता में स्पष्ट रूप से दिखा।
तेजी से बढ़ता शहरीकरण, भूमि का दोहन, बिना नियोजन के नदी तल और बाढ़ मैदानों (फ्लडप्लेन) पर अतिक्रमण हर जगह देखने को मिलता है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता से लेकर छोटे शहरों तक नदियों के आसपास अवैध कॉलोनियां बसाई गई, जिससे नदियों के जल निकासी मार्ग बाधित हुए। नदियों के मूल प्रवाह में हस्तक्षेप, जलाशयों की क्षमता से अधिक जल संचय और अपर्याप्त तटबंध संरक्षण ने भी इस समस्या को अधिक विकराल बनाया है। 1978 की यमुना बाढ़, 1988 की पंजाब की तुंग- बाढ़, 2008 की काली नदी बाढ़ और विशेषकर 2014 में कश्मीर की झेलम नदी बाढ़ के उदाहरण बताते हैं कि यह समस्या समय के साथ कितनी गहरी होती जा रही है। वर्तमान में बाढ़ की आवृत्ति, मानसून काल की एक नियमित चुनौती बन गई।
भारत में बाढ़ प्रबंधन के लिए एक जटिल प्रणाली कार्यरत है, जिसमें ग्राम स्तर से राज्य और राष्ट्रीय स्तर तक समन्वय का प्रयास जारी है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) ने व्यापक रणनीतियां विकसित की हैं, जबकि राष्ट्रीय आपदा राहत बल (एनडीआरएफ) को त्वरित बचाव एवं राहत के लिए तैयार किया गया है। एनडीआरएफ के प्रशिक्षित दल देशभर में आपदा प्रभावित क्षेत्रों में त्वरित राहत कार्य करते हैं। इससे बारिश के बढ़ते प्रभाव और नदियों के जलस्तर से जुड़ी चेतावनी के लिए मध्यवर्ती उपायों का विकास हुआ है।
अच्छे और मजबूत बाढ़ प्रबंधन के लिए तकनीक एक मजबूत पहलू है जिसके इस्तेमाल से व्यापक रणनीति बनाई जा सकती है। बाढ़ प्रबंधन के लिए केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) के सहयोग से गूगल ने नदी क्षेत्रीय बाढ़ जोखिम की सूचनाओं के लिए प्लगइन विकसित किया है, जो समय पर जलस्तर और बाढ़ की स्थिति की सूचना देता है। उपग्रह डेटा, रेडार चित्रण और डिजिटल मॉनिटरिंग सिस्टम से पूर्व चेतावनी प्रणाली मजबूत हो रही है।
गांवों में सामुदायिक ज्योति जागरूकता कार्यक्रमों के जरिए बाढ़ के लिए पहले से तैयार रहने की संस्कृति विकसित करने का प्रयास भी देखा जा रहा है। इसमें स्कूलों, पंचायतों और स्थानीय संगठनों के माध्यम से सुरक्षित स्थल चिन्हित किए जा रहे हैं। लेकिन, कई बार प्रशिक्षण की कमी और अवसंरचना की कमी बड़ी बाधाएं बनती हैं, जो तत्काल प्रतिक्रिया को प्रभावित करती हैं।
भारत के उत्तर और पूर्वी क्षेत्र बाढ़ के प्रति सबसे संवेदनशील माने जाते हैं। बिहार, असम, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, पंजाब और हरियाणा को बार-बार भारी बाढ़ का सामना करना पड़ता है। इन राज्यों की भौगोलिक स्थिति, गंगा-ब्रह्मपुत्र की विस्तृत नदी घाटियों और मानसूनी बारिश की केंद्रित धाराओं के कारण यह समस्या व्यापक है। गंगा और ब्रह्मपुत्र बेसिन, जो भारत की समृद्ध सिंचित कृषि भूमि हैं, वर्षा के 80 प्रतिशत हिस्से को ग्रहण करते हैं। इसलिए इन्हें जलभराव के लिए अधिक संवेदनशील माना जाता है।
हिमालय की पिघलती बर्फ और मानसून मानसून की तीव्र बारिश ने इन नदियों को अस्थिर बनाया है। उदाहरण के लिए, बिहार में कोसी नदी में नियमित रूप से बांध का टूटना और गंगा के जलस्तर में तेजी से बढ़ोतरी होना आम हो गया है। वहीं, पूर्व में असम में पारंपरिक स्थानीय विधियों के बावजूद भी नदियां आबादी और कृषि के लिए लगातार खतरा बनी हुई हैं। सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश से बहने वाली नदियां भी मानसून के दौरान अचानक उफान पर आ जाती हैं, जिससे भूस्खलन और तेज बाढ़ की स्थिति पैदा होती है।
बाढ़ के प्रभाव से निपटने के लिए हर स्तर पर अलग-अलग प्रयास भी देखने को मिलते हैं, जो अन्य क्षेत्रों के लिए बाढ़ प्रबंधन के विकल्प भी प्रस्तुत करते हैं।
पंजाब में बाढ़ प्रबंधन के क्षेत्र में नागरिक समाज की भूमिका न केवल तात्कालिक राहत कार्यों तक सीमित है, बल्कि यह सामुदायिक पुनर्बहाली में भी मील का पत्थर साबित हुई है। राज्य में सामाजिक संस्थाएं, धार्मिक संगठन, स्थानीय स्वयंसेवी समूह आदि तत्काल राहत शिविर, भोजन वितरण, प्राथमिक चिकित्सा और फार्मास्युटिकल सहायता हेतु प्रभावी रूप से जुटे रहते हैं। हाल ही में 2025 की बाढ़ के दौरान, स्थानीय लोगों ने नावों का निर्माण कर आपातकालीन परिस्थितियों में सहायता प्रदान की। ये स्वयंसेवी कई बार सरकारी राहत कार्यों से पहले सक्रिय होकर प्रभावित परिवारों तक पहुंच गए। धार्मिक संस्थाओं ने भोजन, दवा, कपड़ा और साफ पीने के पानी की व्यवस्था की। इस प्रकार, पंजाब में नागरिक भागीदारी ने सरकारी प्रयासों की पूर्ति की और संकट में एक ठोस राहत प्रणाली विकसित की। यह इस बात का प्रमाण है कि आपदा प्रबंधन केवल प्रशासनिक नीतियों से नहीं, बल्कि सामाजिक नेटवर्क और स्थानीय ज्ञान से भी संबद्ध होता है।
बिहार हर वर्ष बाढ़ की मुसीबत का सामना करता है। यहां नदियां नेपाल के हिमालयी झरनों से भारी तलछट लेकर आती हैं, जिससे नदी तल का स्तर बढ़ता जा रहा है। साथ ही, पुराने और जर्जर बांधों का क्षतिग्रस्त रहना और अपर्याप्त तटबंध संरक्षण लगातार संकट बढ़ाता है। ऐसे में बड़े स्तर पर जान-माल का नुकसान होता है। सरकार के प्रयासों के बावजूद बिहार में बाढ़ की समस्या क्यों बनी हुई है, इसका एक कारण है संसाधनों की अक्षमता और सामाजिक-प्रशासनिक बाधाएं। यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि बाढ़ के कुप्रबंधन ने यहां आर्थिक और मनोवैज्ञानिक संकट की जड़ें जमा ली हैं।
पंजाब और बिहार के बाढ़ प्रबंधन के तरीकों में भिन्नता देखने को मिलती है, जो सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक संरचनाओं के आधार पर भिन्न है। पंजाब में नागरिक समाज की मजबूत भागीदारी, सामाजिक संस्थाओं की सक्रियता और बेहतर प्रशासनिक तंत्र ने राहत कार्यों को ज्यादा प्रभावी बनाया है। इसके अलावा, राष्ट्रीय राजनीतिक संवेदनशीलता के अभाव में बिहार के नुकसान को ‘दूसरे दर्जे’ की त्रासदी मान लिया जाता है। यह ‘दुख का वर्गीकरण’ (हायरेरकी ऑफ सफरिंग) का स्पष्ट उदाहरण है, जो नीति निर्माण और संसाधन आवंटन को प्रभावित करता है।
भारत के अन्य राज्यों में भी बाढ़ प्रबंधन में उन्नत और सफल रणनीतियां अपनाई जा रही हैं, जिन्हें अन्य प्रदेशों के लिए उदाहरण माना जा सकता है। ओडिशा की ‘प्रारंभिक चेतावनी वितरण प्रणाली’ (ईडब्ल्यूडीएस) ने आपदा सूचना के प्रसार को त्वरित और प्रभावी बनाया है। केरल में आधुनिक तकनीक, जैसे ड्रोन से बाढ़ की निगरानी और डिजिटलीकरण, बाढ़ के डाटा संकलन में क्रांति लेकर आई है। असम में पारंपरिक जुड़ाव व जल-जैविक तंत्र के संरक्षण के तरीकों, जैसे बाढ़ सहिष्णु खेती, स्थानीय बनावट वाले आश्रय केंद्र और जल-जैव विविधता के संरक्षण के तरीकों को प्राथमिकता दी जा रही है। सभी मामलों में ‘गैर-संरचनात्मक’ उपाय, जैसे बाढ़ मैदानों में जोनिंग, जल संसाधन प्रबंधन और स्थानीय समुदायों की भागीदारी टिकाऊ समाधान साबित हो रहे हैं।
भारत में बाढ़ प्रबंधन के लिए संरचनात्मक और गैर-संरचनात्मक दोनों तरह के उपायों को अपनाया जाता है। संरचनात्मक उपायों में बांध, जलाशय, तटबंध, नदी प्रवाह का सुधार, जल निकासी व्यवस्था, बाढ़ जल का मोड़, वाटरशेड प्रबंधन, कटाव रोधी कार्य और तटीय क्षरण नियंत्रण जैसी भौतिक अवसंरचनाएं शामिल हैं। वहीं, गैर-संरचनात्मक उपायों में बाढ़ क्षेत्र का जोन, बाढ़ पूर्वानुमान, जलाशयों का समन्वित संचालन, बांध सुरक्षा एवं आपातकालीन कार्य योजना, अंतरिक्ष तकनीक का इस्तेमाल और तटीय क्षेत्रीय नियमों का पालन शामिल है। बाढ़ प्रबंधन को मजबूत करने के उद्देश्य से केंद्र सरकार द्वारा “बाढ़ प्रबंधन कार्यक्रम” चलाया गया है।
भारत में बाढ़ एक जटिल समस्या है जो भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कई आयामों से जुड़ी हुई है। इसका समाधान विविध क्षेत्रों में सुधार, प्रशासनिक दक्षता और व्यापक सामाजिक सम्मिलन पर निर्भर है। यह सामूहिक प्रयास, सूक्ष्म पूर्वानुमान, संरचनात्मक व गैर-संरचनात्मक मापदंड और सामाजिक जागरूकता के बिना संभव नहीं है। आखिरकार, बाढ़ प्रबंधन केवल आपदा नियंत्रण नहीं है, बल्कि स्थायी विकास, पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक न्याय की आधारशिला है। हमें इसके लिए ठोस नीति, सक्रिय प्रशासन और मजबूत सामुदायिक भागीदारी की आवश्यकता है, ताकि आने वाले वर्षों में बाढ़ के प्रति हमारी प्रतिक्रिया प्रभावी और संवेदनशील हो सके।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, राष्ट्रीय आपदा राहत बल, केंद्रीय जल आयोग जैसे संस्थान बाढ़ प्रबंधन और राहत कार्यों में लगे हुए हैं। बावजूद इसके, राज्यों के बीच समन्वय न होने होने और अवसंरचना की कमी जैसे मुद्दे समस्या के चिंताजनक स्वरूप को रोकने में अड़चन बने हुए हैं। असम, ओडिशा और केरल जैसे राज्यों ने सामाजिक जागरूकता और तकनीकी उपायों का प्रभावी उपयोग किया गया है, जिन्हें भारत के अन्य हिस्सों के लिए मिसाल माना जाता है। समय के साथ बदलती स्थिति को देखते हुए योजनाओं को व्यापक नजरिये से देखने की आवश्यकता है। बाढ़ प्रबंधन में केवल संरचनात्मक उपाय नहीं, बल्कि व्यापक सामुदायिक भागीदारी, गैर-संरचनात्मक विधियां, डेटा-संचालित विश्लेषण और राज्यों व एजेंसियों के बेहतर समन्वय पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। पूरे भारत में बाढ़ को प्रकृतिक संकट मानकर नहीं, बल्कि नियंत्रित और प्रबंधनीय चुनौती के रूप में स्वीकार कर उसके अनुसार नीति और व्यवहार अपनाने होंगे।
यह लेख इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू (आईडीआर, हिंदी) से लिया गया है, जो एक स्वतंत्र मीडिया प्लेटफार्म है। ऑरीजनल लेख यहां क्लिक करके पढ़ें।