अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रही मध्यप्रदेश की ‘मोक्षदायिनी’ क्षिप्रा नदी के लिए राज्य की नई सरकार ने एक योजना की घोषणा की है। इसके तहत क्षिप्रा के प्रदूषण के लिए घोषित जिम्मेदार कान्ह (खान) नदी को उज्जैन शहर से बाहर ले जाना है, लेकिन जानकारों का कहना है कि इससे उज्जैन शहर में बहने वाली क्षिप्रा तो साफ हो सकती है, लेकिन आगे जाकर कान्ह फिर से क्षिप्रा नदी में मिलकर प्रदूषित करेगी।
इंदौर जिले के ग्राम मुण्डलादोस्तदार से निकली क्षिप्रा नदी 195 किमी का सफर तय कर रतलाम जिले में शिपावरा नामक स्थान पर चम्बल नदी में मिल जाती है। इस नदी को मध्यप्रदेश की गंगा भी माना जाता है। स्कंद पुराण के अनुसार इसके किनारे समय बिताने और स्नानादि करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी नदी के किनारे उज्जैन में हर 12 वर्ष में सिंहस्थ कुम्भ का आयोजन होता है और 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकालेश्वर मंदिर यहीं स्थित है। महाकालेश्वर मंदिर में दर्शन हेतु आने वाले श्रद्धालु क्षिप्रा नदी में स्नान अवश्य करते है, विशेषकर तीज-त्यौहारों पर यहां स्नान के लिये बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं।
लेकिन अब क्षिप्रा पहले जैसी नहीं रही। नदी के उद्द्गम स्थल मुंडलादोस्तदार गांव से संगम स्थल उज्जैन तक इन दिनों बूंद भर पानी नहीं है। मुण्डला दोस्तदार के निकट सूखे पड़े प्रवाह मार्ग पर कुछ जगह कांक्रीट की पक्की नहर बना दी गई है, ताकि उसमें लिफ्ट कर डाला गया नर्मदा का पानी बहाया जा सके। क्षिप्रा में प्रदूषण का बड़ा कारण कान्ह नदी को बताया जाता है। कान्ह भी कभी नदी रही है लेकिन फिलहाल तो वह लगातार 7 बार सबसे स्वच्छ घोषित शहर इंदौर के सीवरेज और रास्ते में पड़ने वाले औद्योगिक अपशिष्टों की वाहक मात्र है।
साल 2016 के सिंहस्थ कुम्भ के दौरान क्षिप्रा नदी में जल उपलब्धता हेतु 432 करोड़ की नर्मदा-क्षिप्रा लिंक परियोजना का 2014 में शिलान्यास किया गया था। इस योजना के तहत नर्मदा नदी का पानी 2 बार लिफ्ट कर के ग्राम सजवाय लाया गया और नहर के माध्यम से इसे क्षिप्रा गांव में नदी में मिलाया गया। सजवाय गांव से ही एक छोटी पाइप लाइन मुण्डला दोस्तदार ग्राम की ककड़ी-बड़ली पहाड़ी पर स्थित एक क्षिप्रा मंदिर तक पहुंचाई गई है। इस मंदिर के सामने एक छोटा से कुण्ड, जिसे क्षिप्रा का उद्द्गम स्थल बताया जाता है, को नर्मदा जल से भरा जाता है।
6 जनवरी 2024 को इस प्रतिनिधि ने पाया कि मुण्डला दोस्तदार की ककडी-बड़ली पहाड़ी पर क्षिप्रा मंदिर के सामने का उदगमकुण्ड सूखा पड़ा था। पहाड़ी के नीचे सरकार ने करोड़ों रुपये खर्च कर वाटर पार्क बनाया है जहां इस समय पानी सड़ा हुआ है और उसमें जलीय खरपतवार पनप रही है। वाटर पार्क में छुट्टी के दिनों में शहरी लोग तफरीह के लिए आते हैं और गन्दगी फैला जाते हैं।
क्षिप्रा मंदिर के पुजारी के बेटे रजत शर्मा बताते हैं कि पानी की मोटर खराब हुए एक महीने से अधिक हो गया है। कई बार सम्बंधित अधिकारियों को सूचना दे चुके हैं, लेकिन कोई सुनने वाला नहीं है।
उज्जैन शहर के दक्षिण में स्थित त्रिवेणीघाट पर क्षिप्रा नदी में इंदौर से आने वाली प्रदूषित कान्ह नदी मिलती है। कान्ह नदी को क्षिप्रा के प्रदूषण का जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। तीज-त्यौहारों के अवसर पर कान्ह नदी को क्षिप्रा में रोकने के लिए त्रिवेणी घाट पर मिट्टी का अस्थाई बांध बनाने की कवायद की जाती है।
नर्मदा के साफ पानी को गंदा होने से बचाने के लिए नरसिंह घाट से आगे के घाटो का प्रदूषित पानी खाली कर दिया जाता है। इसके बाद क्षिप्रा गांव के डेम से नर्मदा का जल छोड़ा जाता, जो 8 से 10 घण्टों में उज्जैन स्थित क्षिप्रा में पहुंचता है स्नान-आचमन के बाद मोटर पंप बंद कर दिए जाते हैं।
त्रिवेणी संगम स्थित कान्ह नदी पर बनाया अस्थाई बांध प्रदूषित पानी के ओवरफ्लो होने से कुछ दिनों में टूट जाता है और क्षिप्रा नदी फिर से पहले जैसी प्रदूषित हो जाती है। क्षिप्रा को कुछ दिनों के लिए साफ दिखाने की यह प्रक्रिया साल भर चलती रहती है जिसे सरकार, साधु-संत, श्रध्दालु और आम नागरिक सभी ने सहज रुप से स्वीकार कर लिया है।
7 जनवरी 2024 को इस प्रतिनिधि ने उज्जैन के रामघाट पर देखा, नहाने वालों की संख्या बहुत कम थी और नदी में गन्दगी साफ नजर आ रही थी। इसी दिन त्रिवेणीघाट पर क्षिप्रानदी में भरा पानी खाली किया गया था। क्षिप्रा का नदी तल जलीय खरपवार से भरा पड़ा थे और चारों ओर दुर्गंध का सामाज्य था। कान्ह नदी के प्रदूषित पानी को रोकने के लिये डम्परों व जेसीबी की सहायता से पास में ही मिट्टी का अस्थाई बांध बनाया जा रहा था ताकि मकर सक्रांति के दिन स्नान संभव हो सके।
क्षिप्रा की तरह इंदौर की कान्ह नदी की सफाई के नाम पर भी सिर्फ पैसा बहाया जा रहा है। विगत 15 सालों में इस नदी पर 1,157 करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद हालात जस के तस बने हुए हैं। केंद्र सरकार की नमामि गंगे योजना से हाल ही में 598 करोड़ रुपये फिर से स्वीकृत किए गए हैं। इस राशि का उपयोग कान्ह नदी को डायवर्ट करने, स्टापडेम बनाने, जल उपचार संयंत्र स्थापित करने में किया जाएगा।
बांधों, नदियों और लोगों पर दक्षिण एशिया नेटवर्क (सेंड्रप) के समन्वयक हिमांशु ठक्कर बताते हैं कि एक नदी से पानी लाकर दूसरी में प्रवाहित किया जाना तकनीकी रुप से संभव तो है लेकिन वित्तीय दृष्टि से अत्यंत महँगा होने के कारण भारत जैसे तीसरी दुनिया के गरीब देशों के लिए यह तरीका कारगर नहीं है।
प्रदूषण पर निगरानी रखने वाली संस्था प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की क्षमता पर सवाल खड़ा करते ठक्कर कहते हैं कि भारत में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का गठन हुए 50 साल हो गये है। इस बोर्ड की इकाईयां राज्यो में काम करती है। लेकिन इस बोर्ड ने आज तक किसी एक छोटी सी भी जल संरचना या नदी को साफ किया हो करवाया हो ऐसा उदाहरण नहीं मिलता।
वह बताते हैं कि यह बोर्ड सरकार के अधीन काम करता है जिसका अपना कोई बुनियादी ढाँचा नहीं है। इसके अपने न तो कोई लक्ष्य निर्धारित हैं और न ही इसकी कोई जवाबदेही है। इसके क्रियाकलाप में पारदर्शिता भी नहीं है ऐसे में इससे किसी जल संरचना के प्रदूषण मुक्त करने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? वे कहते हैं कि स्वायत्तता देकर ही इससे कोई उम्मीद की जा सकती है।
योगमठ उज्जैन के अध्यक्ष पण्डित योगाचार्य जयवर्द्धन भारद्वाज के अनुसार उज्जैन पहुंचने वाले श्रद्धालु अब क्षिप्रा स्नान की बजाय महाकाल मंदिर के दर्शन हेतु आते हैं।उन्हें उम्मीद है कि 2028 के सिंहस्थ के पहले मुख्यमंत्री क्षिप्रा शुद्धिकरण योजना में सफल होंगे क्योंकि वे स्वयं उज्जैन से हैं और क्षिप्रा की दुर्दशा से परिचित हैं।