कानपुर में जाजमऊ टैनरीज क्लस्टर से निकलकर चकेरी क्षेत्र में पहुंचने वाली नहर का गंदा पानी सीधा धान के खेतों में जा रहा है फोटो : विकास चौधरी/ सीएसई
नदी

जहरीली होतीं जीवनधाराएं, भाग-चार: नहर नहीं, जहर से खेती कर रहे हैं किसान

सीपीसीबी ने टैनरीज से निकलकर गंगा नदी में मिलने वाली नहर की जांच में पाया कि इसमें कैंसरकारी उच्च स्तरीय क्रोमियम मौजूद है। कानपुर से ग्राउंड रिपोर्ट

Vivek Mishra

"यह दावा किया जा रहा है कि जाजमऊ में टैनरी कलस्टर के गंदे पानी को साफ करने के लिए कॉमन इफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट (सीईटीपी) बन गया है और काम कर रहा है लेकिन हमारे गांव में संयंत्रों से जुड़ी नहरों में पानी तो पहले जैसा ही गंदा आ रहा है। खेतों में हम यही गंदा पानी लगातार इस्तेमाल कर रहे हैं। चकेरी वार्ड में मोतीपुर गांव के सोनू यादव नहरों की तरफ इशारा करके अपना दुखड़ा सुनाते हैं।

वह आगे कहते हैं, “यही गंदी नहरें सीधा गंगा में जाकर मिल रही हैं।”

क्या वाकई नियमों के तहत इन नहरों में सिंचाई के लिए मौजूद पानी का उपचार किया गया है? सितंबर, 2024 में जमीनी हकीकत जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने जाजमऊ और चकेरी क्षेत्र की यात्रा की। छोटी और बड़ी करीब 400 टैनरीज का सबसे पुराना और अहम गढ़ जाजमऊ रोजाना की तरह काम में व्यस्त है। इनमें कई अवैध छोटी चमड़ा औद्योगिक इकाइयां भी काम कर रही हैं। कुछ इकाइयों के जरिए खुले में ही सड़क पर चमड़े को सुखाया जा रहा है। वहीं, कुछ टैनिंग के काम में व्यस्त हैं, हालांकि इन उद्योगों से निकलने वाले औद्योगिक प्रवाह का उपचार करने वाला कॉमन इफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट (सीईटीपी) पूरी तरह काम नहीं कर रहा है। लिहाजा सीईटीपी से जुड़ी नहर में सिंचाई के लिए छोड़ा जा रहा पानी पहले खेतों में और फिर अंततः गंगा में ही गिर रहा है।

जाजमऊ में 1946 में टैनरियों की स्थापना हुई, करीब 400 चमड़े के कारखाने खुले जो गंगा नदी से 50 मीटर से 1.0 किलोमीटर की दूरी के भीतर लगभग 7.431 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में स्थापित हैं। सबसे छोटी टेनरी 100 वर्ग मीटर क्षेत्रफल की है और सबसे बड़ी 34500 वर्ग मीटर क्षेत्रफल की है।

इन सैकड़ों टैनरीज का औद्योगिक प्रवाह और सीवेज दरअसल 1994 में यूपी जल निगम द्वारा स्थापित 36 मिलियन लीटर प्रतिदिन (एमएलडी) क्षमता वाले सीईटीपी में जाता था। हालांकि, वह अभी काम नहीं कर रहा और यहां पहुंचने वाले टैनरीज के औद्योगिक प्रवाह को जाजमऊ में नए आधुनिक 20 एमएलडी क्षमता वाले सीईटीपी की तरफ डायवर्ट कर दिया गया है। चौंकाने वाली बात यह है कि करीब सात वर्षों से जाजमऊ में बन रहा यह सीईटीपी अभी पूरी तरह चालू नहीं है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के 2017 में गंगा पुनरुद्धार को लेकर दिए गए फैसले के बाद जाजमऊ में इस नए सीईटीपी को बनाने का निर्णय लिया गया था। इसका संचालन टैनरी इकाइयों के सदस्य समूह जाजमऊ टैनरी इफ्लुएंट ट्रीटमेंट एसोसिएशन (जीटीईटीए) और कानपुर जिला प्रशासन को करना है।

इस संबंध में संबंधित विभाग और िजला प्रशासन के लोगों से जब संपर्क किया गया तो उन्होंने बताया कि यह सिर्फ 50 फीसदी क्षमता से ही काम कर रहा है। वहीं, सीईटीपी न चलने के अलावा अलावा जाजमऊ स्थित सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) भी उपचार में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रहे। इस बात की पुष्टि उत्तर प्रदेश सरकार में जल शक्ति मंत्रालय का नमामि गंगे एवं ग्रामीण जलापूर्ति विभाग की जल जीवन मिशन की वेबसाइट करती है। 9 अक्टूबर, 2024 की अपडेट के मुताबिक इसमें मौजूद एसटीपी की जानकारी बताती है कि 36 एमएलडी वाले पुराने सीईटीपी के पास कोई औद्योगिक प्रवाह नहीं है। इसके अलावा 130 एमएलडी क्षमता वाला जाजमऊ का सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) और 43 एमएलडी क्षमता वाला एसटीपी मानकों के मुताबिक नहीं चल रहे हैं। यानी उनसे होने वाला डिस्चार्ज काफी प्रदूषित है।

टैनरी से निकलने वाले औद्योगिक प्रवाह को सीवेज के साथ मिक्स करके उपचारित किया जाता है और उस औद्योगिक प्रवाह का उपचार करके डिस्चार्ज को फिर से दूसरे एसटीपी में उपचार के लिए पहुंचा दिया जाता है। इस तरह की प्रक्रिया से निकलने वाला अंतिम डिस्चार्ज सिंचाई के काम में आ सकता है। हालांकि,यदि इस प्रक्रिया में सीईटीपी या एसटीपी से सही से उपचार नहीं करते हैं तो सिंचाई के लिए किया गया डिस्चार्ज काफी जहरीला हो सकता है। इसी कारण से जाजमऊ के आस-पास के गांव कैंसरकारी क्रोमियम और अन्य भारी धातुओं का सामना कर रहे हैं।

पुराने 36 एमएलडी सीईटीपी की क्षमता के मुताबिक रोजाना 9 एमएलडी औद्योगिक प्रवाह और 27 एमएलडी सीवेज उपचार के लिए भेजा जाता था। हालांकि, अक्सर क्षमता से अधिक औद्योगिक प्रवाह इस सीईटीपी में पहुंच रहा था, जिसके कारण क्रोमियम और अन्य भारी धातु युक्त प्रदूषित प्रवाह आंशिक या बिना उपचार के ही डिस्चार्ज कर दिया जा रहा है। इस बात की पुष्टि यूपी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 2020 और 2021 में सीईटीपी और एसटीपी के इनलेट और आउटलेट डिस्चार्ज के नमूनों में पाई। यूपीपीसीबी ने पाया कि न सिर्फ क्षमता से अधिक यानी जाजमऊ स्थित सीईटीपी 9 एमएलडी के बजाए 19 एमएलडी तक औद्योगिक प्रवाह हासिल कर रहा है बल्कि आंशिक तौर पर उपचारित गंदे जल को सिंचाई के लिए डिस्चार्ज भी कर रहा है।

फूड चेन को बर्बाद कर रहा औद्योगिक प्रवाह

चमड़ा इकाइयों से निकला जहरीला प्रवाह आस-पास की कृषि योग्य मिट्टी और फूड चेन को बर्बाद कर रहा है। आईसीएआर- इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ सॉयल साइंस ने जुलाई-दिसंबर, 2021 में अपनी पत्रिका हरित धारा के अंक में जाजमऊ इंडस्ट्रियल एरिया कानपुर : हब ऑफ क्रोमियम इन द वर्ल्ड शीर्षक से रिपोर्ट प्रकाशित की। इस रिपोर्ट में बताया गया कि जाजमऊ के टैनरीज द्वारा चकेरी क्षेत्र में बड़ी मात्रा में औद्योगिक प्रवाह छोड़ा जा रहा है, जिसमें क्रोमियम के अलावा कई भारी धातुएं हैं जो न सिर्फ मिट्टी को बर्बाद कर रही हैं बल्कि फूड चेन में भी दाखिल हो रही हैं। वहीं, जाजमऊ टैनरीज के प्रदूषण मामले में उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 24 नवंबर, 2023 को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में दाखिल अपनी अनुपालन रिपोर्ट में बताया कि जीटीईटीए के सचिव ने 24 नवंबर, 2023 को बताया कि सीईटीपी और एसटीपी कुल मिलाकर 214 एमएलडी पानी सिंचाई वाली नहर में छोड़ रहे हैं। इसमें जाजमऊ में स्थित कुल 130 एमएलडी +43 एमएलडी +5 एमएलडी +36 एमएलडी एसटीपी/सीईटीपी का डिस्चार्ज शामिल है। जबकि यूपी सरकार की आधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक मौजूदा समय में 36 एमएलडी सीईटीपी और 5 एमएलडी एसटीपी काम नहीं कर रहा और 130 व 43 एमएलडी मानकों पर नहीं चल रहे हैं। एनजीटी में दाखिल रिपोर्ट में यह कहा गया था कि नहर में कुल 240 एमएलडी तक शोधित प्रवाह छोड़ा जा सकता है, साथ ही प्रवाह की सीमा पार न होने की बात भी कही गई थी।

1) पहली तस्वीर में कानपुर के जाना गांव में गंगा में नाव चलाने का काम करने वाले बुजुर्ग किशनपाल के नाखून काले पड़ चुके हैं और एक-एक करके गिर रहे हैं; 2) दूसरी तस्वीर में जाना गांव के ही भीतर किशोर कुमार को बीते 10-12 साल से चर्म रोग है। उनकी दाईं कोहनी के पास काले धब्बे हैं, इसकी वजह वह खराब पानी को मानते हैं जो टैनरीज के प्रवाह से दूषित है; 3) आखिरी तस्वीर जाना गांव के ही 35 वर्षीय अखिलेश की है वह अपनी नाभि दिखाते हैं, जहां चकत्ते पड़ गए हैं। इसका जिम्मेदार वे गांव के दूषित और खराब पानी को मानते हैं

कोई नहीं खाता गांव की उपज

डाउन टू अर्थ ने कानपुर के जाजमऊ के टैनरी क्लस्टर से लेकर गंगा तट पर बसे जाना गांव तक नहरों के किनारे-किनारे की यात्रा की। फिलहाल नहर में आने वाला पानी देखने में काला और झागदार है। रास्तों में धान के खेतों में इसी प्रदूषित पानी से अब भी सिंचाई जारी है। गंगा के तट पर बसे 6,000 की आबादी वाले जाना गांव में टैनरीज से निकलकर नहरों के जरिए पहुंच रहे इस गंदे पानी ने सबकुछ बदल दिया है।

सिंचाई की नहर से ही जुड़ा एक नाला जाना गांव के खेतों से होकर आबादी के बीच होते हुए सीधा गंगा नदी में मिल जाता है। इस नाले में भी काला और झागदार पानी बहना जारी है। स्थिति यह हो चुकी है कि कई लोगों ने अपने ही खेतों का उगाया खाना बंद कर दिया है। वीरू गुप्ता छह साल पहले शहर से आकर जाना गांव में बसे तब उन्हें इस बात की बिल्कुल भी जानकारी नहीं थी कि यहां पानी की ऐसी समस्या होगी कि उनका पूरा जीवन अस्त-व्यस्त हो जाएगा। गुप्ता कहते हैं “मुझे आरओ का पानी खरीदकर लाना पड़ता है। इसके अलावा यहां की सब्जी और अनाज हम बिल्कुल नहीं खाते हैं। बाहर से खरीदकर लाते हैं उसी से काम चल रहा है।” वहीं, गांव की ही एक अन्य महिला बताती हैं कि “हम यहां का उगा हुआ नहीं खाते हैं। पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम (पीडीएस) के जरिए हर महीने में मिलने वाले राशन से ही गुजारा कर रहे हैं।”

गुप्ता अपने घर के सामने से बह रहे नाले की तरफ इशारा करते हैं “पहले इतना बदबू आती थी कि घर के सामने बैठना मुश्किल था, अब बदबू कम हुई है लेकिन पानी अब भी काफी गंदा है।”

जाना गांव में भीतर जाने पर खेती-किसानी करने वाले लोगों से पूछने पर पता चलता है कि टैनरी के प्रवाह को लाने वाली नहर से जुड़े नाले को लेकर परेशान हैं। जाना गांव के 65 वर्षीय श्यामसुंदर ने कहा कि उनके आम के दो पेड़ सड़ गए। खेतों में जो गंदा पानी रहता है उससे पैरों में सड़न भी पैदा हो जाती है।

गांव के कई लोग गंभीर चर्म रोग के शिकार हैं। सभी यह मानते हैं कि टैनरी से छोड़ा जाने वाला प्रवाह इतना गंदा होता है, जिसके कारण लोगों को चर्म रोग हो रहा है। जाना के 35 वर्षीय अखिलेश अपनी शर्ट उठाकर नाभि के पास दूर तक फैले एक काले दाग को दिखाते हैं। वह कहते हैं “जब डॉक्टर को दिखाया तो उन्होंने बताया कि एलर्जी है। यह एलर्जी पानी की वजह से ही है।”

जाना के गांव के भीतर ही किशोर कुमार ने बताया कि 10-12 साल से उन्हें चर्म रोग है। उनकी दाईं कोहनी के पास काले धब्बे पड़ गए हैं। वह बताते हैं कि टैनरी की वजह से पानी इतना खराब हो चुका है कि गांव के कई और लोग चर्म रोग का शिकार हो रहे हैं। कुमार भी अन्य लोगों की तरह बताते हैं कि उनके चिकित्सक इस चर्म रोग की वजह खराब पानी को मानते हैं।

गांव के एक अन्य बुजुर्ग किशनपाल अपने दोनों हाथों की उंगलियों को सामने लाते हैं। उनके नाखून काले पड़ चुके हैं और एक-एक करके खराब हो गए हैं। वह बताते हैं कि गंगा में नाव चलाने का काम करते हैं लेकिन पानी इतना खराब है कि उनके हाथों में यह समस्या पैदा हो गई है।

गांव की महिलाएं बताती हैं कि ज्यादातर लोगों को गैस की समस्या है। साथ ही वह जो भी सोना और चांदी पहनती हैं वह यहां के पानी से काला पड़ जाता है। करीब 55 वर्षीय नन्हीं अपने पैरों में पायल दिखाते हुए बताती हैं “यहां के पानी से पूरी चांदी काली पड़ जाती है।” इसके अलावा गांव वाले बताते हैं कि लोहे के गेट इतनी जल्दी खराब हो जाते हैं कि उन्हें बदलना पड़ता है।

जाना गांव जाते हुए बिजली के खंभे जो लोहे के बने हुए थे, गल कर गिर गए। उनकी जगहों पर नए खंभे लगाए गए हैं। गांव में फिलहाल चम्पा और अन्य फूलों की खेती होती है। इसके अलावा धान और गेहूं की पैदावार होती है। हालांकि, जाना गांव जिस वजह से पहचाना जाता था, उसकी पहचान बदल गई है। जाना गांव के किसान राजबहादुर ने बताया कि “पहले यहां गुलाब की खेती हुआ करती थी। नहर का पानी इतना गंदा था कि गुलाब के पौधे खराब होने लगे और हमारी खेती बर्बाद हो गई। अब इस गांव में कोई गुलाब नहीं लगाता।” अब हम सिर्फ अनाज उगाते हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने 2019 में “मैपिंग ऑफ पॉल्यूशन सोर्सेज एंड देयर इंपैक्ट ऑन रिवर गंगा, फरुर्खाबाद-कानपुर-डलमऊ” रिपोर्ट में यह स्पष्ट बताया था कि इंडस्ट्रियल ड्रेन में डिस्चार्ज की वजह से जाना गांव के नाले में उच्च स्तरीय बॉयोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) मौजूद है। पानी में बीओडी का मान जितना ज्यादा होगा, पानी का प्रदूषण उतना ही गंभीर होगा।

सीपीसीबी ने अपनी रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की थी कि जाना गांव में गंगा नदी से जाकर मिल रहे सिंचाई नाले से नमूने एकत्र किए थे। इनमें बीओडी की मात्रा 63.9 एमजी प्रति लीटर थी, जबकि सीपीसीबी की ओर से तय मानक के हिसाब से नदी में बीओडी का स्तर 3-6 एमजी प्रति लीटर तक ही होना चाहिए। सीपीसीबी ने अपनी इसी रिपोर्ट में कहा कि सिंचाई के लिए जिस नहर का इस्तेमाल हो रहा है उसमें उच्च स्तरीय क्रोमियम (3.97 एमजी प्रति लीटर) नमूनों में पाया गया। क्रोमियम एक कैंसरकारी तत्व है।

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में गंगा प्रदूषण मामले में 2022 में दाखिल अनुपालन रिपोर्ट में बताया गया कि जाजमऊ औद्योगिक क्षेत्र से डिस्चार्ज होने वाले टैनरी के प्रवाह में भारी धातुएं मौजूद हैं जो मिट्टी प्रदूषण की प्रमुख वजह हैं और फूड चेन को प्रभावित कर रही हैं। कानपुर के जाजमऊ क्षेत्र में अवैध तरीके से टैनरी इकाइयां काम कर रही हैं। एनजीटी 3 सितंबर, 2024 को इस मामले में कानपुर के निवासी रजत वर्मा की ओर से एक याचिका दाखिल की गई है। याचिका में आरोप है कि इन टैनरीज का डिस्चार्ज आस-पास के क्षेत्रों को प्रदूषित कर रहा है।

इस मामले में एनजीटी ने नोटिस जारी कर प्राधिकरणों से जवाब मांगा है और मामले की सुनवाई फिलहाल 27 नवंबर, 2024 को होनी है।