नदी

“किसके लिए बना रहे भाडभूत बांध”, नर्मदा के घटते पानी से हताश मछुआरों का सवाल

सरदार सरोवर बांध बनने के बाद मछलियां बहुत कम हो गईं, इसलिए मछुआरों को अपना पुश्तैनी काम छोड़ना पड़ रहा है

Varsha Singh

भाडभूत गांव आकर लगता है कि शायद ये यहां के मछुआरों की आखिरी पीढ़ी है जो अपनी नावों को लेकर नर्मदा सागर की लहरों में मछलियां पकड़ने निकली है। ये गांव नर्मदा नदी और अरब सागर के मिलन क्षेत्र के किनारे बसा है और दक्षिण गुजरात के भरूच जिले में आता है। 2017 में सरदार सरोवर बांध (एसएसडी) बनने के साथ-साथ यहां नर्मदा में पानी कम होता चला गया। नतीजतन, मछलियां कम होती गईं। मछुआरों की आमदनी कम होती गई।

एसएसडी से 125 किलोमीटर आगे नर्मदा के निचले हिस्से में, और नदी के समंदर में मिलने से करीब 25 किमी पहले, भाडभूत बांध का निर्माण करीब 30 प्रतिशत तक पूरा हो गया है। मछुआरे उस तरफ निराशा से देखते हैं, इसके पूरा होते ही नर्मदा सागर में बची-खुची मछलियां, मछुआरे और नावें भी बाहर हो जाएंगी।   

नर्मदा भारत की पांचवीं सबसे बड़ी और पश्चिम की ओर बहने वाली नदी है। भरूच जिले में 50 किलोमीटर का सफर पूरा कर नर्मदा नदी का मीठा पानी यहां खंभात की खाडी में अरब सागर के खारे पानी से मिलता है। समंदर से कम खारा और नदी जल से कम मीठा पानी का ये खास इलाका, हिल्सा नदी का प्रजनन क्षेत्र है।

मानसून के 4 महीने हिल्सा मछलियां यहां प्रजनन के लिए आती हैं। इस समय पूर्णिमा और अमावस्या के दौरान समंदर के ज्वार में आई मछलियों को पकडने की होड़ में मछुआरे अपनी नींद तक त्याग देते हैं। ये समय मछुआरों के लिए सालभर की रोजीरोटी का इंतजाम कर देता है। इन 4 महीनों में महिलाएं, किसान, वाहन चालक, मछली बेचने वाले, पैकिंग करने वाले समेत दूसरे काम कर रहे लोग भी सिर्फ मछलियों के कारोबार में जुट जाते हैं। हिल्सा के साथ झींगा समेत अन्य मछलियां और जलीय जीवों पर स्थानीय समुदाय की आमदनी और खाद्य सुरक्षा टिकी है। 

भाडभूत गांव के मछुआरों की आखिरी पीढ़ी!

नर्मदा में पानी और भाडभूत गांव की उम्मीदें दोनों घट रही हैं। कल्पेश लखीलाल माछी 10 साल पहले मछली पकड़ने का धंधा छोड़ चुके हैं। अपने साथी मछुआरे की नाव में वे मुझे नर्मदा सागर पर बन रहे भाडभूत बांध दिखाने साथ चलते हैं।

“10 साल पहले तक मैं मछली का धंधा करता था। बरसात के 4 महीने हिल्सा और बाकी 8 महीने झींगा, इंडी और कई मछलियां पकड़ते हैं। सरदार सरोवर बांध बनने के बाद मछलियां बहुत कम हो गईं। अब भाडभुत बांध बन रहा है। अब इसमें कोई धंधा नहीं बचा। इसलिए मैंने मिस्त्री का काम चालू किया। मैं लकड़ी का फर्नीचर बनाता हूं। ऐसे ही गांव का कोई मछुआरा दर्जी बन गया। कोई यहां की केमिकल कंपनियों में मजदूरी करने चला गया। बहुत से लोगों ने अपने धंधे बदल लिए”।

कल्पेश भाई के दो बेटे भी मिस्त्री का काम करते हैं। “मेरे बेटों ने 12वीं की है। मैं मछली नहीं पकड़ता तो उन्होंने भी ये काम नहीं सीखा। वे कंपनियों में भी काम करने गए लेकिन नौकरी करना उन्हें अच्छा नहीं लगा”। 

पुरुषों ने मछली पकड़ना छोडा तो मछलियों की साफ-सफाई करने, सुखाने और बेचने का काम करने वाली परिवार की महिलाओं का काम भी छूट गया।

जिस मछुआरे की नाव में हम नर्मदा की लहरों पर सफर कर रहे थे, उनका बेटा आईटीआई का प्रशिक्षण ले रहा है। वह (अपना नाम नहीं जाहिर करना चाहते) कहते हैं कि इतनी मुश्किलें देखकर अब कोई नौजवान मछली पकड़ना नहीं चाहता। हमारी नदी और समंदर लेकर सरकार कहती है कि मछुआरों को तालाब बनाकर देंगे। ये भी सिर्फ कहा भर है। इतने साल हो गए हमें तालाब मिला तो नहीं।

नर्मदा सागर में युवा मछुआरे दिखाई नहीं देते। ज्यादातर नावें किनारों पर लगी हैं। 

आईसीएआर- सेंट्रल इनलैंड फिशरीज रिसर्च इंस्टीट्यूट की वर्ष 2021 की सालाना रिपोर्ट में भी लिखा गया है कि बांध बनने से नर्मदा सागर में मछलियों का आवागमन प्रभावित हुआ है, उपलब्धता कम हुई है, मछुआरों की मेहनत और लागत बढ़ी है और आमदनी कम हुई है।

नदी में घटते पानी से मछलियां कम होने के साथ-साथ गांव में कई और समस्याएं पैदा हो रही हैं। 

पारिस्थितिक असंतुलन 

भारत में समंदर में सबसे ज्यादा ऊंची लहरें (11 मीटर) खंभात की खाड़ी में उठती हैं। इस दौरान समंदर का पानी नर्मदा नदी में प्रवेश करता है। लेकिन नर्मदा पर एक के बाद एक बने कई बांध जैसे इंदिरा सागर, ओंकारेश्वर, महेश्वर और विशेष तौर पर सरदार सरोवर बांध बनने से नदी के निचले हिस्से में पानी बेहद कम हो गया।

भाडभूत गांव के सरपंच सुनील कुमार कहते हैं “नदी का मीठा पानी यहां समंदर के खारे पानी को घुसने से रोकता था। अब नदी में पानी पहले से बहुत कम है तो ज्वार में समंदर का बढा पानी गांवों के भीतर तक आता है। भूजल में भी अब कई जगह खारा पानी निकलता है”। सरपंच कहते हैं “गांव में सरकारी पाइपलाइन से पानी नहीं आता। ग्रामीण बोरिंग से पानी निकालते हैं”।

सरपंच सुनील के मुताबिक भरूच जिले की केमिकल-पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री का अपशिष्ट जल इस समस्या को तीव्र कर रहा है। “नदी में पानी कम होने से कंपनियों का अपशिष्ट जल समंदर के पानी के साथ आ रहा है। हमारे पास शिकायत आती है कि मछली का स्वाद बिगड़ रहा है। ये सब केमिकल की वजह से हो रहा है”। 

नर्मदा का प्रवाह बढाने की अपील

नर्मदा में घटता पानी स्थानीय लोगों की आजीविका और सेहत दोनों पर असर डाल रहा है। नर्मदा प्रदूषण निवारण समिति और भरूच नागरिक परिषद ने एनजीटी में अपील दायर की थी। जिसमें मांग की गई कि सरदार सरोवर बांध से छोड़ा जा रहा 600 क्यूसेक पानी पर्याप्त नहीं है और भरूच जिले तक  आते- आते   नर्मदा नदी एक छोटी धारा में सिमट रही है। बांध से नदी के निचले इलाकों में रोजाना 1500 क्यूसेक पानी छोड़ने की मांग की गई है।

एनजीटी ने वर्ष 2019 में ये कहकर सुनवाई नहीं की, कि नदी से जुडे मुद्दों के लिए जल विवाद न्यायाधिकरण और नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण गठित किए गए हैं। समिति ने एनजीटी के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। 

26 अक्टूबर 2023 और फिर 12 जनवरी 2024 को इस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने वापस इस मामले को एनजीटी के पास भेज दिया है।

नर्मदा प्रदूषण निवारण समिति से जुडे जयेश पटेल कहते हैं “4 साल बाद सुप्रीम कोर्ट से ये मामला फिर एनजीटी में आ गया है। नदी का पर्यावरणीय प्रवाह (ई-फ्लो) कम होने का असर स्थानीय लोग महसूस कर रहे हैं। हम पर दोतरफा मार पड़ी है। बरसात के 4 महीनों में सरदार सरोवर डैम से पानी छोड़ने पर बाढ़ का खतरा है।

मॉनसून में सरदार सरोवर बांध से पानी छोड़ने की वजह से साल 2019, 2020 और 2023 में हमें बाढ झेलनी पडी। बाकी 8 महीनों में प्रवाह कम होने पर समंदर का ज्वारीय जल अपस्ट्रीम में 70 किमी तक आ जाता है। इससे खारेपानी की समस्या हो रही है। भूजल और खेती प्रभावित हो रही है”।

जयेश कहते हैं कि यदि एसएसडी से पर्याप्त पानी छोडा जाता तो भाडभूत बांध की जरूरत ही नहीं थी।

भाडभूत बांध की जरूरत क्यों

निर्माणाधीन भाडभूत बांध का उद्देश्य हाईटाइड के दौरान समंदर के खारेपन से नर्मदा नदी के जल की गुणवत्ता का संरक्षण करना, बाढ़ से बचाव के साथ-साथ दहेज, अंकलेश्वर, साइका क्षेत्र की औद्योगिक इकाइयों की पानी की आवश्यकता को पूरा करना भी है। 

खंभात की खाड़ी में नर्मदा नदी के दक्षिणी छोर पर बना दहेज बंदरगाह राज्य का सबसे तेजी से बढ़ता बंदरगाह है। दहेज पीसीपीआईआर बनने के बाद यहां औद्योगिक गतिविधियां तेज हुई हैं। सूरत और अहमदाबाद से यहां ट्रैफिक का दबाव बढ़ा है। मौजूदा 6 लेन के राष्ट्रीय राजमार्ग पर ट्रैफिक जाम की स्थिति बन जाती है। 

करीब 30 किलोमीटर लंबा भादभूत डैम नर्मदा के उत्तरी और दक्षिणी छोर को जोडते हुए सूरत, हनसोट, भाडभूत और दहेज के बीच एक 6 लेन का तटीय मार्ग बनाएगा।

पर्यावरण कार्यकर्ता, बांध और जल विशेषज्ञ हिमांशु ठक्कर का मानना है कि एसएसबी के दुष्प्रभाव को कम करने के लिए भाडभूत बांध की जरूरत पड़ी। यह एक गलती को दुरुस्त करने के लिए की जा रही दूसरी गलती है। वह याद करते हैं जब वर्ष 2017 में भाडभूत बैराज की आधारशिला रखने आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भरूच जिले के 250 मछुआरों ने 40 नावों में सवार होकर काले झंडे दिखाए थे। 

“एसएसबी के बाद नर्मदा के निचले इलाकों में बढी खारेपन की समस्या को कम करने के लिए अब वे भाडभूत बांध बना रहे हैं। इसके लिए कोई जनसुनवाई नहीं हुई। पर्यावरण की निगरानी की कोई बात नहीं हुई। दोनों बांधों को मिलाकर नदी और समुदाय पर क्या असर होगा, ये देखने की बात है”, हिमांशु कहते हैं।

औद्योगिक अपशिष्ट जल के चलते नदी और समंदर में प्रदूषण को लेकर वह कहते हैं “1974 में जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम बना था। ये इस कानून का स्वर्ण जयंती वर्ष है। प्रदूषण नियंत्रण में हम पूरी तरह नाकाम रहे हैं। कंपनियां अपने औद्योगिक अपशिष्ट जल का ट्रीटमेंट कर उसे रिसाइकल क्यों नहीं करती”।

नर्मदा की हार 

नर्मदा सागर तट पर कुछ मछुआरे मछली पकड़ने की जाली तैयार कर रहे हैं। अंबालाल मोहन माछी कहते हैं “हमें मकान बनाना हो, बच्चों की शादी करनी हो या परिवार का कोई बड़ा काम करना हो तो यहां का बैंक हमें लोन नहीं देता लेकिन मछली का व्यापारी हमें कर्ज दे देता था। क्योंकि सबको पता था कि यहां मछली का कारोबार अच्छा चलता है”। 

वह कहते हैं “10 साल पहले एक नाववाला एक दिन में 1000-1500 मछलियां पकड़ता था, अब 500-700 मछली पकड़ता है। अब हिल्सा ज्यादा नहीं आती, जैसे पहले आती थी। हमारे छोकरा लोग भी अब मछली पकड़ने के काम में नहीं आना चाहते”। 

गैर-सरकारी संस्था भरूच जिला माछीमार समाज के अध्यक्ष और वकील कमलेश एस मधीवाला कहते हैं भाडभूत बांध 15,000 मछुआरा परिवारों की आजीविका पर असर डालेगा। पिछले साल भरूच में हिल्सा मछली का 1000-1200 करोड़ रुपए का धंधा किया था। मछली पकड़ने वाले परिवारों ने 5 से लेकर 15 लाख रुपए तक कमाए। सब पर बेरोजगारी का खतरा आ गया है। जब आपके पास इतने सारे परिवारों को रोजगार देने का साधन नहीं है तो आप इनसे इनका पारंपरिक रोजगार क्यों छीन रहे हैं। किसके लिए भाडभूत बांध बना रहे हैं

मछलियां कम होने से मछुआरों के साथ-साथ इस इसके व्यापार की श्रृंखला से जुडे अन्य कामगारों की मुश्किल भी बढ़ गई है। भरूच नगरपालिका के मछली बाजार में दोपहर 12 बजे तक मछलियां बेचकर साफ-सफाई कर रही महिलाओं का समूह अब घर लौटने को है। नर्मदा सागर में मछलियां कम हुईं तो इनके तराजू पर वजन भी कम हो गया। यहां काला कव्वा और सफेद बगुला समान भाव से मछलियों के अवशेष से अपने भोजन का जुगाड़ कर रहा है। 

मछली बेचकर परिवार चलाने वाली शारदा बेन कहती हैं “हमारी अगली पीढी अब मछलियों का काम नहीं करेगी”।

(वर्षा सिंह सेंटर फॉर फाइनेंशियल एकाउंटबिलिटी में रिसर्च फेलो हैं)