नदी

तिल-तिल मरती बारहमासी नदियां

नदियों के प्रति केंद्र और राज्य सरकारों की नीतियां उदासीनता भरी रही हैं। जल नीति भी पूरी तरह विफल साबित हुई है

Venkatesh Dutta

मीठे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र के साथ अत्यधिक छेड़खानी ने भारत की हर नदी के प्राकृतिक परिदृश्य, उसके स्वरूप और प्रवाह को प्रभावित किया है। पिछले तीन दशकों में बारहमासी नदियां अब खंडित और रुक-रुक कर बहने वाली मौसमी नदियां बन रही हैं। भारत की मैदानी नदियां जैसे- गोमती, रामगंगा, चंबल, केन, बेतवा के प्रवाह का एकमात्र आधारभूत स्रोत भूजल और वर्षा जल है।

भारत की स्वतंत्रता के समय, प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता लगभग 5,200 क्यूबिक मीटर थी जो अब घटकर 1,500 क्यूबिक मीटर रह गई है। इसका मतलब यह है कि वर्तमान में उपलब्ध पानी को साझा करने के लिए पहले के मुकाबले बड़ी आबादी है। जनसंख्या, शहरीकरण और औद्योगिकीकरण में तेजी से वृद्धि के साथ-साथ, नदियों को बांधों और नहरों द्वारा नियंत्रित किया गया। वहीं कृषि, घरेलू और औद्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नदियों का अति दोहन किया गया।

हमने 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध से शुरू होने वाली “हरित क्रांति” और “पंप-क्रांति” के दौर में धान, गेहूं और गन्ने की अधिक उपज वाली फसलें उगाईं। इन फसलों ने मोटे अनाज, तिलहन और दालों की जगह ले ली। अधिक फसलों को उगाने के लिए हमने विभिन्न “क्विक-फिक्स” समाधानों का सहारा लिया, जो अंधाधुंध भूजल पंपिंग द्वारा किया गया था जिसके कारण कई नदियां सूख गईं। नदियां अनियोजित महानगरीय विकास के अधिकांश दुष्प्रभावों को सहन करती हैं। हमारी शहरी विकास परियोजनाएं ऐतिहासिक घाटों और पारिस्थितिक रूप से समृद्ध नदी-तटों से जीवन निचोड़ रही हैं। नदियों के बाढ़ प्रभावित क्षेत्र (फ्लडप्लेन्स) और रिवर-कॉरिडोर स्थानिक और बेमेल अनियोजित महानगरीय विकास के साथ संघर्ष कर रहे हैं। पारिस्थितिक और सांस्कृतिक संवर्धन के बिना, नदियों में बड़ी और दोषपूर्ण परियोजनाओं द्वारा जान फूंकने की कोशिश की जा रही है। फ्लडप्लेन्स और रिवर-कॉरिडोर्स तेजी से कृषि भूमि और शहरी बस्तियों में बदल रहे हैं। गंगा के साथ-साथ इसकी अधिकांश सहायक नदियों का बहाव 1978 के बाद कम होता गया। अकेली रामगंगा नदी का प्रवाह 2000 से 2018 के बीच 65 प्रतिशत तक गिर गया है।

कृष्णा नदी जल प्रवाह और नदी बेसिन क्षेत्र के मामले में भारत की चौथी सबसे बड़ी नदी है, लेकिन प्रत्येक गुजरते साल के साथ इसका प्रवाह कम हो रहा है। कृष्णा नदी डेल्टा को कई प्रमुख और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं से रेगिस्तान में परिवर्तित किया जा रहा है। स्थिति इतनी भयावह है कि बेलगावी जिले के कई गांवों में बोरवेल और कुएं भी सूखने लगे हैं। इसी तरह, कावेरी नदी पिछले कई वर्षों से गर्मियों के दौरान कई जगहों पर सूख रही है। कावेरी नदी तमिलनाडु में प्रवेश करने से पहले कर्नाटक में हासन, मांड्या और मैसूर जिलों से होकर बहती है। इसकी कई सहायक नदियां सूख रही हैं। गोदावरी नदी, जो तेलंगाना के लिए एक बारहमासी जल-स्रोत हुआ करती थी, अब अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। स्थानीय लोगों के अनुसार, नदियों के लिए यह समय पिछले 45 वर्षों में सबसे खराब है। वर्तमान में प्रवाह में गिरावट, प्रदूषण का बोझ और जलीय जीवन की स्थिति दयनीय है।

नदियों के प्रति केंद्र और राज्यों दोनों की नीतियां खराब रही है। यहां तक कि भारत की जल नीति नदी प्रणालियों को बहाल करने के लिए एक ठोस योजना तैयार करने में बुरी तरह से विफल रही है। मुख्य रूप से नदी के सीमित पानी का उपयोग कर बांध और नहरों का निर्माण किया गया है। नदियों का प्रबंधन अपने आप सिंचाई विभाग में चला गया है, जिसके इंजीनियर नदी के प्रवाह और संरक्षण की बहाली के बारे में बात नहीं करते। प्राकृतिक जल संसाधनों के स्रोत, जलग्रहण और कई प्राकृतिक चैनलों की अनदेखी करते हुए जल संरचना के रख-रखाव को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है। शहरी योजनाकारों ने कई तरह की रणनीतियों के साथ “नए शहरीवाद” का रुख किया है। शहरों के विस्तार के साथ नदियां काफी हद तक अदृश्य हो गईं।

गोमती की दुर्दशा

लखनऊ में सबसे खराब हालत है जहां गोमती नदी का अधिकांश हिस्सा एक नाली की तरह दिखता है। गोमती अपने जलग्रहण क्षेत्रों में भूजल के अधिक दोहन के कारण घटती हुई प्रवृत्ति दर्शा रही है। 1978 से 2016 के बीच इसके प्रवाह में लगभग 52 प्रतिशत की गिरावट आई है। शहीद पथ तक सीतापुर बाईपास से गोमती नदी में कुल 40 नालों का मल-मूत्र निकलता है। कई नालियों को अभी सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट में डायवर्ट किया जाना बाकी है। राइट साइड (सिस गोमती) से निकलने वाली नालियों का पीक डिस्चार्ज 660 एमएलडी है और लेफ्ट साइड (ट्रांस गोमती) साइड से निकलने वाले नालों का पीक डिस्चार्ज 515 एमएलडी है। जल निगम और नगर निगम केवल 401 एमएलडी सीवेज को ही ट्रीट कर सकते हैं। बाकी सीधे गोमती नदी में जाता है। नदी के दोनों ओर कंक्रीट मजबूत दीवार ने उसे बांध दिया है। दीवार की गहराई 16 मीटर है जो नदी के किनारे से 11 मीटर नीचे जाती है। इससे मछली की विविधता के साथ पानी की गुणवत्ता में भी गिरावट आई है। सीतापुर और लखनऊ के बीच कई चीनी कारखानों, कागज और प्लाईवुड उद्योगों, ऑटोमोबाइल कार्यशालाओं से नदी में अनुपचारित अपशिष्ट का निर्वहन होता है, जिसके परिणामस्वरूप मछलियों की मौत हो जाती है। पीलीभीत के निचले इलाकों में, कई सहायक नदियां जैसे- कथिना, भैंसी, सरायन, गोन, रीथ, सई, पिली और कल्याणी हैं, जो विभिन्न कस्बों और औद्योगिक इकाइयों के अपशिष्ट और औद्योगिक अपशिष्टों को नदी में ले जाती हैं।

प्रयास जरूरी

भारत की प्रमुख नदियां, छोटी सहायक नदियों और प्राकृतिक चैनलों पर निर्भर हैं। इनकी स्थिित बहुत खराब हो चुकी है। ताजे पानी का सबसे बड़ा हिस्सा, लगभग 85 प्रतिशत हमारे खेतों की सिंचाई करता है। अत्यधिक पंपिंग के कारण भूजल स्तर नदी के तल से काफी नीचे पहुंच गया है। इस वजह से बारहमासी नदियां मर रही हैं।

हमारी नदियों में बारहमासी प्रवाह के रख-रखाव के लिए आधार-प्रवाह (बेस-फ्लो) और नदी की निरंतरता महत्वपूर्ण है। इसलिए, बेस-फ्लो में सुधार के लिए कैचमेंट में भूजल के पुनर्भरण में सुधार के प्रयास किए जाने चाहिए। हिमालय क्षेत्रों में वर्षा के पुनर्भरण द्वारा धाराओं (स्प्रिंग्स) को बहाल किया जाना चाहिए। नदियों के पारिस्थितिक कार्यों का सम्मान किया जाना चाहिए और उनके साथ छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए।

नदियों के पारिस्थितिक कार्यों को बहाल करने और बनाए रखने के लिए इस क्षेत्र में उचित नीतिगत बदलाव लाने के सभी पहलुओं पर काम करने की आवश्यकता है जिसमें भूजल पुनर्भरण, पानी की गुणवत्ता में सुधार, जैव विविधता का रख-रखाव और स्वस्थ जलीय जीवन की निरंतरता और प्रवाह शामिल है। इसके अलावा नदी प्रणालियों के पारिस्थितिक-प्रवाह और नदी प्रणालियों पर निर्भर सभी गैर-मानव प्राणियों की आवश्यकता को पहचानने की जरूरत है। बेस-फ्लो में सुधार के लिए कैचमेंट में भूजल के पुनर्भरण में सुधार के प्रयास किए जाने चाहिए। पीलीभीत, हरदोई, सीतापुर और लखीमपुर खीरी जिलों में कई बड़े जल निकाय, आर्द्रभूमि और धाराएं हैं। उन्हें तुरंत पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। इन जल निकायों के भूजल के पुनर्भरण से नदी में पानी वापस आ जाएगा। इन जिलों में पानी खाने वाली फसलें जैसे “सथा धान” पर तुरंत रोक लगाई जानी चाहिए क्योंकि यह गर्मियों के दौरान अधिकतम भूजल लेती है। इसे पकने में 60 दिन लगते हैं और नियमित धान की तुलना में 10 गुना अधिक पानी की आवश्यकता होती है।

नदी के उद्गम स्थल से 90 किलोमीटर नीचे तक कुछ किसानों ने नदी के सक्रिय चैनल का अतिक्रमण किया है। नदी की भूमि नदी में वापस की जाना चाहिए। भूमि राजस्व विभाग को नदी की भूमि को ठीक से दर्ज करना चाहिए और नदी चैनल का सीमांकन करना चाहिए। बेस-फ्लो द्वारा समर्थित स्ट्रीम फ्लो के अंश (भूजल और सतह जल) को संयुक्त संसाधन के रूप में माना चाहिए ताकि बेसिन में वर्तमान और भविष्य के जल संसाधनों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित किया जा सके।

(लेखक नदी वैज्ञानिक और आंबेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)