13 फरवरी, 2023 को जल शक्ति मंत्रालय के राज्य मंत्री विश्वेश्वर टुडू ने संसद में बताया कि नमामि गंगे कार्यक्रम के बलबूते गंगा में प्रदूषण का भार कम हुआ है। उन्होंने कहा कि गंगा नदी को साफ करने के लिए 2014 से अब तक केंद्र ने 32,912 करोड़ रूपए की 409 परियोजनाएं बनाई हैं।
संसद में दिए गए इस बयान के उलट यदि जनवरी, 2023 में गंगा नदी के जल नमूनों की जांच आंकड़ों का विश्लेषण करें तो अब भी 71 फीसदी निगरानी स्टेशन पर फीकल कोलीफॉर्म की स्थिति चिंताजनक है। फीकल कोलीफॉर्म जीवाणुओं का एक समूह है जो कि समतापी प्राणियों (वार्म ब्लडेड एनिमल्स) के आंतों और मल में पाया जाता है।
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पानी के नमूनों में इसका उपस्थित होना यह संकेत देता है कि संबंधित पानी इंसानों के या दूसरे जानवर के मल से संक्रमित है। नदियों में यह संक्रमण बिना शोधित किए गए सीवेज के डिस्चार्ज से पहुंचता है। नदी के जल नमूनों में इसकी वांछनीय मात्रा 500 मोस्ट प्रोबेबल नंबर (एमपीएन) प्रति 100 मिलीलीटर है जबकि अधिकतम मात्रा 2,500 एमपीएन प्रति 100 मिलीलीटर होती है।
प्रदूषण का यह आंकड़ा और भी बड़ा हो सकता है क्योंकि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने जनवरी, 2023 में कुल 97 निगरानी स्टेशनों में से महज 59 स्टेशन (61 फीसदी) के जांच नमूने लिए थे (देखें : अब भी प्रदूषित,)।
डाउन टू अर्थ को सूचना के अधिकार, 2005 कानून के तहत सीपीसीबी से मिले जनवरी, 2023 के गंगा जल नमूनों की जांच आंकड़ों से पता चलता है कि उत्तराखंड के सभी 12 स्टेशन पर फीकल कोलीफॉर्म अपने तय मानक सीमा में है, जबकि उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में स्थिति अत्यंत खराब है। झारखंड से तो कोई सैंपल तक एकत्र नहीं किया गया। बिहार और पश्चिम बंगाल में फीकल कोलीफॉर्म की सामान्य से अत्यधिक मात्रा सभी 37 स्टेशनों पर पाई गई।
वहीं, उत्तर प्रदेश में 10 में से 5 निगरानी स्टेशनों पर उच्च स्तरीय फीकल कोलीफॉर्म पाया गया। 42 प्रदूषित स्टेशनों में 34 ऐसे हैं जहां फीकल कोलीफॉर्म की मात्रा सामान्य मानक (2,500 एमपीएन प्रति 100 एमल से कम) से चार गुना ज्यादा 11,000 मोस्ट फ्रोबेबल नंबर (एमपीएन) प्रति 100 एमएल है। बिहार के सात निगरानी स्टेशन ऐसे मिले जहां नमूनों में फीकल कोलीफॉर्म सामान्य से 37 गुना ज्यादा यानी 92,000 एमपीएन प्रति 100 एमएल तक है।
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राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड 15 दिनों के अंतराल पर गंगा के निगरानी स्टेशनों से मैनुअल सैंपल एकत्र करते हैं। हालांकि इस विश्लेषण के लिए डाउन टू अर्थ ने जनवरी, 2022 और जनवरी 2023 के मासिक जल नमूनों की जांच के आंकड़ों को लिया है।
स्पष्ट चूक
सीपीसीबी ने 2021, 2022 और 2023 जनवरी के आंकड़ों को आरटीआई के जवाब में मुहैया कराया और अपने कवरिंग नोट में 2022 (जनवरी-दिसंबर) में एजेंसी ने प्रदूषित निगरानी स्टेशनों को चिन्हित कर उनके नाम बताए हैं। हालांकि, जनवरी 2023 में ज्यादातर प्रदूषित स्टेशनों की निगरानी नहीं की गई। मिसाल के तौर पर सीपीसीबी के आरटीआई जवाब के आधार पर उत्तर प्रदेश में 2022 (जनवरी-दिसंबर) में सात स्टेशनों पर फीकल कोलीफॉर्म प्रदूषण तय मानक से ज्यादा यानी प्रदूषित पाया गया।
इनमें बाथिंग घाट (जाजमऊ ब्रिज), कानपुर डाउनस्ट्रीम, मिर्जापुर डाउनस्ट्रीम, चुनार, वाराणसी डाउनस्ट्रीम एट मालवीय ब्रिज, गोमती रिवर भूसौला और गाजीपुर में तारीघाट शामिल थे। जबकि जनवरी 2023 में इनमें से तीन स्टेशनों की निगरानी नहीं की गई। वहीं, सीपीसीबी ने आरटीआई जवाब में बताया कि 2022 में बिहार और बंगाल के सभी निगरानी स्टेशन में फीकल कोलीफॉर्म उच्च मात्रा में पाया गया। जनवरी, 2022 में पश्चिम बंगाल के 14 स्टेशनों पर नमूने लिए गए इन सभी में उच्च फीकल कोलीफॉर्म संक्रमण पाया गया था। जबकि जनवरी, 2023 में सिर्फ पांच स्टेशन पर निगरानी की गई।
बिहार में जनवरी, 2022 और जनवरी, 2023 में सभी 32 स्थानों पर निगरानी की गई। 2023, जनवरी में सिर्फ तीन स्टेशन ऐसे पाए गए जिनमें फीकल कोलीफॉर्म तय सीमा के अंदर पाया गया।
बीमारू प्रयास
जुलाई 2022 को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने 1985 से चली आ रही गंगा प्रदूषण से जुड़ी हुई एमसी मेहता की कई याचिकाओं के मामले में सुनवाई करते हुए यह कहा कि गंगा के प्रमुख पांच राज्यों में 60 फीसदी सीवेज बिना शोधन के ही सीधे गंगा नदी में गिराया जा रहा है। गंगा नदी उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल राज्यों से होकर बहती है। गंगा के इन पांच राज्यों के जरिए कुल 10,139.3 मिलियन लीटर प्रति दिन (एमएलडी) सीवेज पैदा होता है। जबकि इसमें से सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) के जरिए महज 3,959.16 एमएलडी सीवेज यानी 40 फीसदी का ही शोधन होता है।
एनजीटी ने पाया कि उत्तराखंड अकेला राज्य है जहां पर्याप्त मात्रा में सीवेज शोधन हो रहा है। ट्रिब्यूनल ने इसके बाद राज्यों से गंगा में सीवेज प्रदूषण की स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने को कहा था। दिसंबर, 2022 में उत्तर प्रदेश की ओर से स्थिति रिपोर्ट एनजीटी में दाखिल की गई। डाउन टू अर्थ ने उत्तर प्रदेश की इस ताजा स्थिति रिपोर्ट का विश्लेषण किया तो पाया कि कुल 1,340 नाले गंगा और उसकी सहायक नदियों में सीधे जुड़े हैं। इनमें से 895 (66.5 फीसदी) नाले में जाने वाले गंदे पानी का किसी तरह का कोई उपचार नहीं हो रहा।
बड़ी चुनौती
गंगा नदी में पानी के नमूनों को लेकर सीपीसीबी अभी पांच मानकों पर प्रदूषण की जांच कर रही है। इनमें घुलनशील ऑक्सीजन (डीओ), पीएच वैल्यू, जैव रसायन ऑक्सीजन मांग (बीओडी) और फीकल कोलीफॉर्म व फीकल स्ट्रेप्टोकोकी शामिल है। 2022 (जनवरी-दिसंबर) में सीपीसीबी ने पाया कि नदी में घुलनशील ऑक्सीजन (डीओ) और अम्लीय यानी पीएच मान की मात्रा ठीक है। हालांकि, फीकल कोलीफॉर्म और बीओडी की मात्रा कई स्टेशनों पर ठीक नहीं पाई गई।
घुलनशील ऑक्सीजन यह दर्शाता है कि नदी में जलीय जीवों के लिए ऑक्सीजन की कितनी मात्रा मौजूद है जबकि पीएच मान यह दर्शाता है कि क्या संबंधित पानी को जलीय जीव इस्तेमाल कर सकते हैं। 2022 में 17 निगरानी स्टेशन ऐसे रहे जहां पूरे साल बीओडी तय सीमा (3 एमजी प्रति लीटर) से अधिक पाया गया। साइंस डायरेक्ट जर्नल के मुताबिक, अधिक बीओडी का आशय हुआ कि पानी में सूक्ष्मजीवों को कार्बनिक पदार्थों को समाप्त करने के लिए अतिरिक्त ऑक्सीजन की जरूरत पड़ रही है। पानी में मौजूद ऑक्सजीन तत्व में कमी आ रही है। बीओडी यह भी दर्शाता है कि पानी में प्रदूषण मौजूद है। जनवरी 2023 में 10 स्टेशन ऐसे पाए गए जिनमें उच्च बीओडी स्तर रहा।
ढीली निगरानी
ऐसे समय में जब केंद्र गंगा को साफ करने पर ध्यान केंद्रित कर रही है, आंकड़ों को जुटाना और उन्हें समझ पाना एक बड़ी चुनौती बन गया है। 2018 में एनजीटी के आदेश के अनुसार, सीपीसीबी को सुटेबिलिटी ऑफ रिवर गंगा का एक मैप बनाकर आम लोगों को यह बताना था कि गंगा में नहाने और पीने लायक पानी की गुणवत्ता कैसी है। डीटीई ने 22 मार्च, 2023 को जब इस पेज को खंगाला तो पाया कि कुछ निगरानी स्टेशनों पर तीन महीने पुराने दिसंबर, 2022 के आंकड़े प्रदर्शित हैं जबकि उत्तराखंड के कुछ स्टेशन पश्चिम बंगाल के परिणाम बता रहे।
इस मामले में डीटीई ने जब सीपीसीबी के वाटर क्वालिटी मॉनिटरिंग के डिवीजन हेड एम सुधाकर से पूछा तो उन्होंने कहा कि निगरानी स्टेशनों पर राज्यों द्वारा सैंपलिंग प्रत्येक 15 दिनों पर ली जाती है। सॉफ्टवेयर लिमिटेशन के कारण मासिक आंकड़े ही सार्वजनिक रूप में प्रदर्शित हो रहे हैं।
राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन के तहत गंगा में मैनुअल मॉनिटरिंग स्टेशनों की संख्या 134 होनी चाहिए लेकिन इस वक्त सिर्फ 97 मॉनिटरिंग स्टेशन ही मौजूद हैं। वहीं, गंगा में की जा रही प्रदूषण की निगरानी और अधिक प्रभावी होनी चाहिए। पांच मानकों पर प्रदूषण की जांच दरअसल पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 2000 की अधिसूचना के तहत की जा रही है। तब से अब तक दो गाइडलाइन जारी की जा चुकी है। पहली 2007 में और दूसरी 2017 में जारी की गई थी। इन गाइडलाइन में शाश्वत नदियों की 25 पैरामीटर पर जांच करने की बात कही गई थी।
इन गाइडलाइन को अधिसूचित करने के लिए भी कहा गया था हालांकि आज तक इन गाइडलाइन को अधिसूचित नहीं किया गया। आंशिक तौर पर इन गाइडलाइन का पालन किया जा रहा है। 25 के बजाए सिर्फ पांच बिंदुओं पर नदी के प्रदूषण को जांचना दरअसल हमें नदियों की सेहत का अर्धसत्य ही बता रहा है।