उत्तराखंड और नेपाल सीमा पर बह रही काली नदी पर मलबा बढ़ता जा रहा है। फोटो: पूरण बिष्ट 
नदी

बेतरतीब निर्माण कार्यों से काली नदी के अवरुद्ध होने का खतरा, सदानीरा धौली पानी के लिए तरसी

DTE Staff

पूरण बिष्ट 

बिजली की बढ़ती मांग, सामरिक दबाव और आदि कैलास जाने की होड़ ने पिथौरागढ़ जिले के चीन और नेपाल से लगे इलाकों को खतरे में डाल दिया है। भारत और नेपाल जिस तरह सड़क निर्माण का मलबा डाल रहे हैं, सीमा विभाजक काली नदी का बहाव कभी भी अवरुद्ध हो सकता है। यह आशंका यदि सच साबित हुई तो भारत का धारचूला, बलुवाकोट, जौलजीबी, झूलाघाट, टनकपुर और नेपाल के दार्चुला, जुलाघाट, समेत निचले इलाके की लाखों की आबादी को इसके परिणाम भुगतने होंगे। काली के दोनों किनारे विशालकाल बोल्डर और मलबे से पट गए हैं। नदी कई स्थानों पर बेहद संकरे मार्ग से बह रही है। ऐसे में एक छोटा भूस्खलन भी भरत-नेपाल की घाटियों के लिए खतरा बन सकता है।

भारत और नेपाल की सीमा बनाने वाली यह साझा नदी बेहद गुस्सैल है। अतीत में कई भूकंप और भूस्खलन इस इलाके में तबाही मचा चुके हैं। चीन की तरफ भारत से लगे लिपूलेक दर्रे के पास तक सड़क बना दी गई है। इसलिए सामरिक तैयारियों के तहत भारत सरकार भी लिपूलेख तक बनाने में जुटी हुई है। चारधाम परियोजना के तहत बनाये जा रहे इस टनकपुर-लिपूलेख मार्ग के निर्माण के लिए इन दिनों धारचूला से तवाघाट के बीच सड़क को चौड़ा किया जा रहा है।

सड़क निर्माण कर रही कंपनियां शक्तिशाली डायनामाइटों के जरिए चट्टानों को तोड़ रही हैं। सरकार ने निर्माण कार्यों का मलबा एकत्र करने के लिए डंपिंग जोन बनाने का नियम बनाया है। लेकिन इस तीखे ढलान वाली घाटी में डंपिंग जोन बनाना संभव नहीं है। इसलिए विस्फोटकों से तोड़ी जा रही चट्टानों का मलबा सीधे काली नदी में समा रहा है।

भारत के समानांतर नेपाल भी महाकाली कॉरीडोर परियोजना के तहत काली नदी के किनारे सड़क निर्माण कर रहा है। भारत की तरह नेपाल में भी डायनामाइट और जेसीबी मशीनों का इस्तेमाल किया जा रहा है। नेपाल की तरफ के बोल्डर और मलबा भी काली में समा रहा है। ‘पहाड़' पत्रिका के संपादक, इतिहासकार प्रो शेखर पाठक कहते हैं कि, यदि सड़क निर्माण के इन विनाशकारी तौर-तरीकों को नहीं रोका गया तो काली के कहर से निचले इलाकों को बचाना मुश्किल हो जाएगा।

धौली नदी भी बढ़ा रही खतरा
तवाघाट में दारमा घाटी से आने वाली धौली नदी, काली में मिल जाती है। काली की अपेक्षा धौली बेतरतीब सड़क निर्माण और बिजली परियोजनाओं से उत्पन्न संकट से अपेक्षाकृत ज्यादा जूझ रही है। काली नदी में नेपाल की सहमति के बिना बिजली परियोजनाएं स्थापित नहीं की जा सकती; इसलिए बिजली बनाने का सारा दबाव धौली पर है। तवाघाट-पांगू मार्ग पर छिरकिला में एनएचपीसी पहले ही 56 मीटर ऊंचा बांध बना चुका है।

इस बांध से ऐलागाड़ में पावर हाउस तक पानी टनल के जरिए जाया गया है। यह टनल ऐसे इलाके में बनी है, जो भूस्खलनों के लिए कुख्यात है। टनल के ऊपर बसे खेला, पलपला, स्यांकुरी आदि गांव धंस रहे हैं। जलस्रोत सूख गए हैं।

धौली और उसकी सहायक नदियों पर सेला उर्थिंग, बोलिंग में भी बांध प्रस्तावित हैं। प्रोः शेखर पाठक बताते हैं कि, अस्सी के दशक में धौली के जलागम क्षेत्र में विनाशकारी भूस्खलन हुए हैं। जिसमें अस्सी से अधिक लोगों को जान गंवानी पड़ी थी। मरने वालों सेना के जवान भी शामिल थे। इस सदी में भी लगातार भूस्खलन हो रहे हैं। 2013 में धौली और काली निचले इलाकों में कहर बरपा चुकी हैं। लेकिन योजनाकार इस खतरे को लेकर चिंतित नहीं हैं।

उन्हें हिमालय में सिर्फ चौड़ी सड़कें और भरपूर बिजली चाहिए। तवाघाट से पांगू के लिए बन रही सड़क और सोबला वाली सड़क के चौड़ीकरण का मलबा भी धौली में जा रहा है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि यह क्षेत्र भूकंप की दृष्टि से अति संवेदनशील एमसीटी (मेन सेंट्रल थ्रस्ट) के करीब है। अब तक रिक्टर पैमाने पर 5 से अधिक परिमाण वाले 12 भूकंप इस क्षेत्र में रिकार्ड किए गए हैं। राज्य सरकार ने आपदाओं की दृष्टि से पिथौरागढ़ जिले के जिन 20 असुरक्षित गांवों का चयन किया है उसमें इस घाटी के अधिकांश गांव शामिल हैं।

अब सिर्फ दो महीने बहती है धौली
छिरकिला में बांध बनने के बाद सदानीरा धौली अब साल में सिर्फ दो महीने ही बहती है। शेष दस महीने पूरा पानी टनल के जरिए बिजली बनाने के लिए ऐलागाड़ स्थित एनएचपीसी के पावरहाउस में भेज दिया जाता है। तवाघाट में दुकान चलाने वाले जीत सिंह धामी बताते हैं कि, बांध ओवरफ्लो हो जाने के कारण जुलाय और सितंबर में ही धौली में पानी छोड़ जाता है। पानी कम होेने के कारण तवाघाट का तापमान भी बढ़ गया है।

आदि कैलास की भारी भीड़ हिमालय के लिए खतरा
सड़क बनने से पहले बहुत कम संख्या में लोग चीन सीमा के पास स्थित आदि कैलास पहुंच पाते थे। लेकिन अब ज्योलिंङकांङ तक सड़क बनने और पिछले वर्ष अक्तूबर में प्रधानमंत्री मोदी के आगमन के बाद लोगों में आदि कैलास जाने की होड़ लग गई है। इस वर्ष एक मई से यात्रा शुरू हुई और अब तक दस हजार से अधिक यात्री, 18500 फीट की ऊंचाई वाले इलाके में पहुंच चुके हैं।

यहां स्थित पार्वती सरोवर में जिस तरह फूल, चुनरी आदि पूजा की सामग्री विसर्जित की जा रही है। उच्च हिमालय की इस झील के लिए संकट बन सकती है। धारचूला के स्थानीय लोगों का कहना है कि, सरकार वहां 500 कमरों का होटल बनाने की तैयारी कर रही है।

स्थानीय लोगों के विरोध के बाद फिलहाल यह कवायद रुकी हुई है। लोगों को यह भी शंका है कि, बदरीनाथ और केदारनाथ की तर्ज पर यहां भी व्यापक पैमाने पर नए निर्माण करने की तैयारी है। यदि ऐसा हुआ आदि कैलास अपना शांत, हिमालयी वातावरण खो देगा। आदि कैलास में उमड़ रही भीड़ से चिंतित चौदास घाटी के पांगू गांव की जयन्ती ह्यांकी कहती हैं, यात्रियों से क्षेत्र को आर्थिक तौर पर तो फायदा हो रहा है। लेकिन जिस तरह के लोग यहां पहुंच रहे हैं वे श्रद्धालु कम, पर्यटक ज्यादा नजर आते हैं। ऐसे लोगों से हिमालय के इस पवित्र स्थान के पर्यावरण के साथ साथ स्थानीय रं समाज की संस्कृति को भी खतरा पैदा हो सकता है।