1984 में लगभग 6,786 हेक्टेयर में फैली हुई कावर झील 2012 तक घटकर लगभग 2,032 हेक्टेयर रह गई। फोटो: राहुल कुमार गौरव 
नदी

बिहार: कावर झील की जमीन के सर्वे पर विवाद, किसानों ने खोला मोर्चा

बिहार में जमीन सर्वे का काम जारी है। सरकार का मकसद हैं कि जमीन विवाद को हमेशा के लिए बिहार में खत्म किया जाए

Rahul Kumar Gaurav

बिहार के बेगूसराय जिले कीकी कावर झील 16 गांव के कई किसानों और मछुआरे की आजीविका का स्रोत रही है। बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के वैज्ञानिक अशोक घोष की रिसर्च के मुताबिक 1984 में लगभग 6,786 हेक्टेयर में फैली हुई कावर झील 2012 तक घटकर 2,032 हेक्टेयर रह गई है।

वहीं दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया के शोधकर्ता मोहम्मद नवाजजोहा के मुताबिक झील में केवल 89 हेक्टेयर क्षेत्र में ही पानी है। झील के धीरे-धीरे लुप्त होने की वजह से किसानों और मछुआरे के बीच लगातार संघर्ष होता रहा है। मछुआरेे झील की सुरक्षा करना चाहते हैं क्योंकि यह उनकी आजीविका का स्रोत है, जबकि किसान इसके आसपास की भूमि का उपयोग कृषि के लिए करना चाहते हैं। 

बिहार में जमीन सर्वे का काम जारी है। सरकार का मकसद हैं कि जमीन विवाद को हमेशा के लिए बिहार में खत्म किया जाए। इसके लिए असली जमीन मालिकों को उनके जमीन का रिकॉर्ड मुहैया कराया जाए और मठ-मंदिरों के साथ बिहार सरकार की जमीन का भी पता लगाया जाए। जिसके बाद राज्य के कई जगहों पर जमीन विवाद का मामला सामने आया है। इसी सिलसिले में कावर झील की जमीन को वन विभाग के नाम पर करने की खबर के बाद किसानों का समूह लगातार इसका विरोध कर रहा है।

क्यों हो रहा है वन विभाग का विरोध?

4 सितंबर 2024 को किसान संघ ने बिहार में हो रहे सर्वे में झीलों की जमीन को रैयत यानी जमीन मालिक के नाम पर किए जाने को लेकर एसडीएम मंझौल के माध्यम से राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग को एक ज्ञापन सौंपा है। किसान शालिग्राम सिंह बताते हैं कि हम लोग जब सर्वे कार्यालय में कागज जमा करने गए, तब पता चला कि ताल भूमि क्षेत्र के सभी अधिसूचित भूमि का सर्वे वन विभाग के नाम पर किया जा रहा है। 

इस प्रकरण के बाद 10 सदस्यीय कमेटी के गठन किया गया है। इसके अध्यक्ष और सामाजिक कार्यकर्ता संतोष ईश्वर बताते हैं कि, कावर झील की जमीन को लेकर 6 सालों से अनुमंडल कोर्ट में मामला चल रहा है। अब सर्वे के वक्त किसानों की जमीन को वन विभाग के द्वारा दावा कर बिहार सरकार के गजट के अनुरूप खतियान बनाया जा रहा है।

इसके लिए अगर जोरदार आंदोलन करना पड़ा तो किया जाएगा। हम लोग आमरण अनशन पर बैठेंगे और बंदोबस्त कार्यालय को घेराव करेंगे। यह हमलोगों की विरासत है, इसे ऐसे ही नहीं जाने देंगे।" 9 सितंबर को किसानों के द्वारा बेगूसराय स्थित मंझौल इलाके को बंद भी किया गया था। जहां किसानों ने रोड जाम करके प्रशासन के खिलाफ नारेबाजी की। 

सकरा गांव के अमित कुमार बताते हैं कि बिहार सरकार के द्वारा कावर झील को 2012 में पक्षी अभयारण्य स्थल घोषित करने के बाद भी 2013 तक हम किसानों के द्वारा जमीन की खरीद-बिक्री होती थी। अभी मामला कोर्ट में चल रहा है। लेकिन जमीन वन विभाग के नाम सर्वे होने के बाद कोई उम्मीद ही नहीं बचेगी।

हमारी मांग है कि कावर झील के जमीन को सरकार के द्वारा संशोधित किया जाए। साथ ही किसानों को उनके हक से वंचित न किया जाए। जब से सरकार ने जमीन बिक्री पर रोक लगाई है, कई किसानों की स्थिति भुखमरी जैसी हो गई है। 

बेगूसराय स्थित मंझौल के एसडीओ प्रमोद कुमार कहते हैं कि कावर झील के रकबे में जो कमी हुई है, इसको लेकर पहले भी पत्र भेजा गया है। जिलाधिकारी से भी इस विषय पर बात करेंगे, लेकिन किसानों से भी निवेदन है कि कोई आंदोलन न करें।  

संघर्ष की कहानी 

बेगूसराय जिला स्थित मंझौल निवासी घनश्याम झा बेगूसराय के स्थानीय पत्रकार है। वो बताते हैं कि, "1986 में तत्कालीन डीएम ने कावर झील स्थित 15780 एकड़ जमीन को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 की धारा 18 के तहत संरक्षित किया था । जिसमें मंझौल मौजा, जयमंगलागढ़, रजौड़ और नारायणपीपर जैसे कई गांवों के किसानों की जमीन थी।

फिर 2008 को पूर्णिया के तत्कालीन वन संरक्षक सीपी खण्डूजा के द्वारा किसानों के समर्थन में अपर प्रधान मुख्य संरक्षक को पत्र भी लिखा गया। इसके बावजूद 2013 में तत्कालीन डीएम मनोज कुमार ने ताल परिक्षेत्र में जमीन की खरीद-बिक्री पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दिया। इसका मामला अभी भी कोर्ट में चल रहा है। क्षेत्र की मैपिंग नहीं होने के कारण यह मामला इतना पेचीदा हो रहा है।

मंझौल के स्थानीय निवासी नुनू बाबू कहते हैं कि, "अगर सरकार को जमीन की जरूरत है तो जरूर लें। झील के उत्तरी भाग में लगभग 1,600 हेक्टेयर जमीन सरकार ले सकती है, क्योंकि इसमें झील का पानी रहता है। कुछ ज्यादा भी ले सकती है, लेकिन फिर बाकी जमीन तो किसानों को दी जानी चाहिए।"

किसानों के मुताबिक 2019 में तत्कालीन मुख्य वन संरक्षक भारत ज्योति ने ताल क्षेत्र के पुनर्निर्धारण के लिए वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के बड़े अधिकारियों को पत्र लिखा था। इसके बाद राज्य के द्वारा यह भी मांग की गई थी कि ताल का क्षेत्र केवल 2,688 हेक्टेयर में फैला हुआ है। इसलिए पूरे अभ्यारण को 3000 हेक्टेयर के भीतर घोषित करना चाहिए। ​​हालांकि इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया।