नदी

कृत्रिम के खिलाफ कुदरत की लड़ाई के योद्धा थे बाबा आम्टे

26 दिसंबर बाबा आम्टे का जन्म दिवस है। इस मौके पर उन्हें याद करता एक संस्मरण

Anil Ashwani Sharma

1997 की जून की दोपहर। लू की गर्म हवाओं के बीच मैं उस कुटिया के सामने खड़े हो गया। झिझक हो रही थी कि क्या ऐसे समय में वे मेरे आने का बुरा तो नहीं मान जाएंगे। दोपहर के सन्नाटे को चीरते और पसीना पोछते मैं सोच रहा था कि कैसे आवाज लगाऊं। 

तभी अंदर से एक रोबदार आवाज आई कि इस कड़ी धूप में जो भी बाहर खड़ा है वो अंदर क्यों नहीं आ जाता? यह आवाज सुनते ही मैं हड़बड़ाकर अंदर चला गया और सामने पलंग पर खादी की बनियान और घुटने तक की पैंट पहने बाबा आम्टे लेटे हुए दिखे।

जानकारों ने बताया था कि भले ही बाबा आम्टे को दुनिया जानती हो, लेकिन उनसे मिलने के लिए कोई समय नहीं लेना पड़ता है। कोई भी, कभी भी उनसे मिल सकता है।

उनके बैठने का इशारा होते ही जैसे ही उनके पैर की तरफ बैठा तो उन्होंने प्यार से कहा कि अरे दोस्त, सिरहाने आकर बैठो और उन्होंने हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ बढ़ा दिया। ऐसा लगा, जैसे वह मुझे कितना पहले से जानते थे। बाबा की पहली सीख यही थी कि हमेशा सबसे बराबरी के भाव से मिलो।

मैंने अपना परिचय देते हुए कहा कि पत्रकार हूं और आपका साक्षात्कार लेना चाहता हूं। उन्होंने तपाक से बोला कि देखो भाई, अराम से गप करना है तो करो, लेकिन रटे-रटाए सवाल मत पूछो, क्योंकि उनका कोई मतलब नहीं होता है।

इसके साथ ही उन्होंने साधना ताई (बाबा आम्टे की पत्नी) को आवाज दी। उनकी आवाज के साथ ही कमरे में साधना ताई की मौजूदगी हुई और बाबा ने उनसे कहा, ‘ये हमारे दोस्त सीधे बड़वानी से पैदल ही हमसे इस दोपहरी में मिलने आ गए हैं तो इनको कुछ नाश्ता-पानी दो’।

मैंने कहा कि मैं खाकर आया हूं। बाबा ने ताई से कहा कि आज की नौजवान पीढ़ी झूठ बहुत बोलती है। इनका चेहरा बता रहा है कि इनके पेट में घंटों से अन्न का एक दाना भी नहीं गया है और कह रहे हैं कि खा-पीकर आया हूं।

फिर मेरीओर मुखातिब होकर बोले, जिस रास्ते से तुम आए हो उस रास्ते पर मैं पिछले दस सालों से रोज की सैर के लिए जाता हूं। मैं जानता हूं कि इस रास्ते में खाना तो दूर की बात है, कहीं पानी भी नहीं मिलता, क्योंकि लगातार सिर्फ खेत ही खेत हैं।

मैं थोड़ा सकुचाते हुए उनसे थोड़ी दूरी बना कर बैठ गया। इस  पर बाबा बोले, अरे दोस्त पास आओ तो मैं अपना स्टूल खींच कर उनके सिरहाने के पास पहुंच गया। इसके बाद उनसे बातचीत का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह शाम चार बजे जा कर खत्म हुआ।

‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में अपनी भागीदारी से लेकर कुष्ठ रोगियों के लिए काम की शुरुआत तक की यात्रा के बारे में विस्तार से बताया। उस समय वह उन आदिवासियों के कंधे से कंधा मिलाकर खड़े थे, जिनका गांव और घर बांध के पानी में डूबने वाला था। बाबा आम्टे भी नर्मदा नदी के किनारे डटे थे कि डूबेंगे लेकिन अपने पुरखों की जमीन को छोड़ कर हटेंगे नहीं।

पूरी बातचीत के दौरान बाबा कुटिया के लगातार चक्कर काटते रहे। जैसे लग रहा था कि बैठना उनके स्वभाव में ही नहीं है। बाबा ने बताया, "मैं तो हर सुबह-शाम आसपास के कम से कम दो-तीन गांव का चक्कर काट ही लेता हूं।"

यह सब तो हम जानते ही थे कि किस तरह से बाबा गांव की नौजवान पीढ़ी को अपने डूबते घर-गांव के लिए लड़ने के लिए तैयार कर रहे थे। उनकी आंखों में गांव के हर उस व्यक्ति की चिंता तैर रही थी] जिसका घर डूबने वाला था। वे उस विनाश लाने वाले विकास की ओर आगाह कर रहे थे जिसकी तरफ हमारा विकासशील देश चल पड़ा है।

उन्होंने कहा, "नदी को बांधना कुदरत के खिलाफ है। नदी कुदरती है तो बांध कृत्रिम। बांध के खिलाफ यह लड़ाई कृत्रिम के खिलाफ कुदरत की है।"

बाबा आम्टे ने मेरी तरफ देखते हुए कहा कि आप पत्रकार हो। आप भी हमेशा इस बात का ध्यान रखना कि आपकी कलम हारे हुए के साथ हो। आपके सवाल सत्ता पक्ष से उनके लिए हों, जिनके सवाल वहां तक पहुंच नहीं सकते हैं। कितने लोग हैं जो आज उन लोगों के पक्ष में लिख रहे जिनका सब डूब जाएगा। डुबोने वाली शक्तियों के साथ खड़े लोग जिन्हें विकास का विरोधी बता रहे दरअसल वे खुद को नहीं, इस धरती को बचाने की बात कह रहे हैं।

उन्होंने जब मुझसे कहा कि जंगल, पहाड़ के लिए लड़ रहे लोगों की कहानी लिखो तो जैसे वो तीन दशक पहले ही हमारे लिए उम्मीद जगा रहे थे कि आने वाला समय पर्यावरण बचाने वालों का होगा। वो एक तरह से पर्यावरण पत्रिका की बात कर रहे थे जो जल्द ही इस दुनिया की बड़ी जरूरत सी बन गई है।

जब मैंने बाबा आम्टे से जाने की अनुमति मांगी तो उन्होंने कहा, ‘बहुत अच्छा लगा तुमसे मिलकर। हां, एक काम करना अभी इस कुटिया से निकल कर वापस सीधे बड़वानी मत चले जाना। नर्मदा नदी के किनारे जाकर बैठना। कुछ देर के लिए बहती हुई मनोरम नदी को देखना और सोचना कि इसके प्रवाह को रोकने की क्या कोई जरूरत है?’

बाबा अप्रत्यक्ष रूप से कह रहे थे कि इस नदी के किनारे हजारों आदिवासी गांव बसे हुए हैं और एक बांध इन सबकी दुनिया को खत्म करने के लिए बनाया जा रहा है। क्या आप लोग इसके खिलाफ कुछ नहीं लिखेंगे?
उनकी कुटिया से निकलने के बाद हमने नदी का एक पूरा चक्कर लगाया। वहां से निकलते वक्त नर्मदा भी हमारे साथ बहती चल रही थी यह सवाल पूछते हुए कि मुझे बांधना जरूरी है क्या?