“प्रवाह नदी का प्रयोजन है। नदी अगर बहेगी नहीं तो वह नदी नहीं रहेगी।
अपने अस्तित्व के लिए उसे बहना ही चाहिए।”
-अमृतलाल वेगड़
नर्मदानुरागी लेखक-चित्रकार
भू -वैज्ञानिक और पौराणिक दृष्टि से देश की प्राचीनतम नदियों में से एक नर्मदा मध्य भारत की जीवन रेखा सरीखी है। युगों-युगों से यह जीवन और संस्कृतियों को सींचती रही है। मध्य प्रदेश के जबलपुर से नर्मदा अंचल में प्रवेश करते ही हमें दो बातें बार-बार सुनने को मिलीं। पहली बात यह कि नर्मदा ऐसी अनूठी नदी है, जिसकी ‘परिकम्मा’ होती है। सैकड़ों वर्षों से श्रद्धालु नर्मदा की करीब 2600 किलोमीटर की परिक्रमा करते हैं। यह यात्रा एक संकल्प है, नदी और प्रकृति से आत्मीयता रखने बनाए रखने का। नर्मदा के विषय में दूसरी बात यह अक्सर सुनने को मिलती है कि यह देश की सबसे साफ-सुथरी नदी है। गंगा-यमुना जैसी मैली नहीं है।
एक तीसरी बात भी है। जिसका दर्द लोगों की जुबान पर जरूर आता है। ‘नर्मदा सौंदर्य के संवाददाता’ अमृतलाल वेगड़ के शब्दों में “…मेरी नर्मदा अब नहीं रही...पहली परिक्रमा (1977) के दौरान नर्मदा वैसी ही थी, जैसी वह सैकड़ों साल पहले थी। मगर अब नर्मदा वैसी नहीं रही। वह झीलों को जोड़ने वाली कड़ी बनकर रह गई। झील में प्रवाह नहीं होती। वह तो ठहरा हुआ पानी है। और नदी का मूल तत्व है प्रवाह, गति।…”
दरअसल, श्रद्धालुओं के साथ-साथ कई संकट भी नर्मदा की परिक्रमा करते रहे हैं। इनमें से कई संकट सरदार सरोवर बांध जैसे विशालकाय हैं तो कई आंखों से नजर भी न आने वाले प्रदूषकों जितने सूक्ष्म। जबलपुर में ग्वारीघाट से ही हमारा नर्मदा के इन संकटों से साक्षात्कार होने लगा। हमें नर्मदा की सैर कराते हुए नाविक मनोहर बर्मन किनारे से ज्यों ही आगे बढ़ा, नदी में तैरती हरी घास को देखकर मुंह पिचकाने लगा। “साहब ये घास बड़ी खतरनाक है। इसे अजोला कहते हैं। कई लोग इसमें फंसकर डूब चुके हैं। इससे बचना पड़ता है।” यह बताते-बताते उसने पूरी ताकत से नाव का रुख पानी में तैर रही उस हरी वनस्पति से दूर मोड़ लिया। फरवरी से मार्च के दौरान नर्मदा में खूब फैलने वाली यह वनस्पति अजोल टेरीडोफाइटा ग्रुप का एक जलीय खरपतवार है। इसकी मौजूदगी जल के दूषित होने का संकेत है। यह पानी में ऑक्सीजन की मात्रा को भी कम देता है, जो जलीय जैव-विविधता के लिए नुकसानदेह है।
पिछले दो दशकों से नर्मदा को प्रदूषणमुक्त बनाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहे जबलपुर निवासी पीजी नाजपांडे बताते हैं कि शहर के आसपास डेयरियों का गोबर परियट और हिरन जैसी सहायक नदियों से होते हुए नर्मदा में पहुंचता है। इसी की वजह से नर्मदा में खरपतवार फैलती है। हालत यह है कि सर्दियों में जबलपुर से लेकर ओंकारेश्वर तक नर्मदा का पानी हरा-हरा दिखाई देता है। नाजपांडे के मुताबिक, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण मंडल (पीसीबी) से इस बारे में रिपोर्ट तलब की है।
संकटों का उद्गम
अमरकंटक में अपने उद्गम से ही नर्मदा का सामना तरह-तरह के संकटों, संघर्षों से होने लगता है। महाशिवरात्रि के मौक पर यहां विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। इस दौरान मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने छह स्थानों नर्मदा कुंड, कोटी तीर्थ घाट, रामघाट, पुष्कर डेम, कपिल संगम और कपिलधारा में नर्मदा जल की जांच की थी। पता चला कि गत 23 से 27 फरवरी के दौरान महाशिवरात्रि के दिन नर्मदा उद्गम के आसपास टोटल कॉलीफॉर्म की मात्रा अचानक बढ़ गई थी। कॉलीफॉर्म, मानव मल के कारण पैदा होने वाला एक बैक्टीरिया है। पीसीबी की रिपोर्ट के अनुसार, कोटि तीर्थ में टोटल कॉलीफॉर्म की मात्रा 500 एमपीएन प्रति 100 मिलीलीटर तक, रामघाट में 300 और पुष्कर डेम में 220 एमपीएन प्रति 100 मिलीलीटर तक पायी गई। जबकि मानकों के अनुसार, पीने के पानी में यह मात्रा 50 या इससे कम एमपीएन प्रति 100 मिलीलीटर होनी चाहिए।
घने जंगलों में बसे एक शांत स्थल से अमरकंटक अब भीड़भाड़ वाले तीर्थस्थल में तब्दील हो चुका है। यहीं से गत 11 दिसंबर को मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने “नमामि देवि नर्मदे - नर्मदा सेवा यात्रा” की शुरुआत की थी। इस मौके पर जलपुरुष राजेंद्र सिंह ने नर्मदा के देश की दूषित नदियों में शुमार होने की आशंका जताते हुए उद्गम में ही घटते जलप्रवाह पर चिंता जताई थी। राजेंद्र सिंह के मुताबिक, अमरकंटक में कुछ प्रभावशाली लोग नियम-कायदों की जिस तरह धज्जियां उड़ा रहे हैं, सरकार इससे कैसे निपटेगी? यह बड़ा सवाल है।
प्रदूषण की आंख-मिचौली
मुड़ती-उमड़ती नर्मदा जैसे-जैसे अमरकंटक से आगे बढ़ती है, इसके दोहन की योजनाएं भी साथ-साथ बनती चलती हैं। मध्य भारत को अन्न-धन से परिपूर्ण बनाने वाली इस सदानीरा पर आबादी का बोझ पिछली एक शताब्दी में काफी बढ़ गया है। नर्मदा बेसिन में सम्मलित जिलों की आबादी सन 1901 में 78 लाख के आसपास थी, जबकि 2011 की जनगणना के अनुसार, इन जिलों की आबादी साढ़े तीन करोड़ से ऊपर पहुंच गई है। करीब सौ वर्षों में नर्मदा घाटी पर आबादी का बोझ पांच गुना से अधिक बढ़ गया है। जाहिर है नर्मदा और इसकी सहायक नदियों पर दोहन और प्रदूषण का बोझ भी इतना ही बढ़ गया है।
नर्मदा किनारे के छोटे-बड़े 52 शहरों का मलमूत्र नर्मदा में गिरता है। इसका विकराल रूप हमें जबलपुर में देखने को मिला। करीब 11 लाख आबादी वाला जबलपुर नर्मदा किनारे बसा सबसे बड़ा शहर है। यहां घरेलू सीवर की निकासी के लिए कोई केंद्रीकृत सीवरेज व्यवस्था नहीं है। शहर में ज्यादातर सेप्टिक टैंक वाले शौचालय हैं। साल 2011 में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के एक अध्ययन से पता चला था कि जबलपुर में कुल 1000 किलोमीटर लंबी छोटी नालियां हैं, जिनमें से 52 फीसदी कच्ची हैं। साल 2015 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल (सीपीसीबी) ने जबलपुर से गुजरने वाले नर्मदा के हिस्से को प्रदूषित करार दिया था। शहर का अधिकांश गंदा पानी चार बड़े नालों- ओमती, खंडारी, शाह और मोती के जरिये नर्मदा में पहुंचता है।
सीपीसीबी के मुताबिक, साल 2005-06 में जबलपुर शहर से रोजाना 143.3 एमएलडी सीवेज निकलता था, जिसके शोधन की कोई व्यवस्था नहीं थी। हाल के वर्षों में यहां ग्वारीघाट में 150 और 400 केएलडी क्षमता के दो सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) स्थापित किये गए हैं, जबकि कठौंदा में 50 एमएलडी क्षमता का एक एसटीपी बनकर तैयार हो गया है। शहर से निकलने वाली सीवर की मात्रा को देखते हुए ये संयंत्र नाकाफी हैं। जबलपुर के आसपास तीन और एसटीपी बनाने की योजना है। लेकिन ये सीवर ट्रीटमेंट प्लांट तब तक पूरी तरह कारगर साबित नहीं हो सकते, जब तक शहर में केंद्रीकृत सीवर नेटवर्क नहीं बन जाता। इस काम में बरसों लग सकते हैं। तब तक सेप्टिक टैंकों से निकला मलमूत्र नदियों तक पहुंचता रहेगा।
जबलपुर में नर्मदा को दूषित करने में शहर के आसपास स्थापित डेयरियों का भी बड़ा हाथ है। जबलपुर के आसपास करीब 100-150 डेयरियां है, जहां से निकलने वाला मवेशियों का मलमूत्र नर्मदा की सहायक नदियों - परियट और गौर में गिरता है। इस मामले को लेकर सन 1996 में जबलपुर हाईकोर्ट में याचिका दायर करने वाले पीजी नाजपांडे का कहना है कि हाईकोर्ट और एनजीटी के सख्त आदेशों के बावजूद डेयरियों के गंदे पानी को नदियों में गिरने से रोकने के पुख्ता इंतजाम नहीं किए गए हैं। यही कारण है कि परियट और गौर नदियां गोबर के नालों में तब्दील हो चुकी हैं। पीसीबी नोटिस जारी कर डेयरी संचालकों को ट्रीटमेंट प्लांट लगाने के निर्देश दे चुका है। लेकिन इन निर्देशों का सख्ती से पालन नहीं हो पा पाया।
नर्मदा को प्रदूषण से बचाने को लेकर बढ़ती चिंताओं के बीच पीसीबी ने गत दिसंबर में एक रिपोर्ट जारी कर बताया कि विभिन्न मॉनिटरिंग स्टेशनों पर नर्मदा जल की गुणवत्ता संतोषजनक पायी गई है। इस रिपोर्ट के आधार पर नर्मदा के जल को पीने के लिए सुरक्षित बताया जा रहा है। हालांकि, पर्यावरण संरक्षण से जुड़े नाजपांडे जैसे लोग पीसीबी की जांच के तरीके पर सवाल उठा रहे हैं। उनका कहना है कि नदी जल के नमूने किनारों के बजाय नदी की धारा के बीच से लिए गए। इस मामले पर उन्होंने एनजीटी में याचिका भी दायर की है। उधर, पीसीबी के अधिकारियों का कहना है कि पानी के नमूने तय प्रक्रिया के आधार पर ही लिए गए हैं। वैसे देखने से भी नजर आता है कि नर्मदा गंगा, यमुना की तरह अत्यधिक मैली नहीं है। लेकिन इस निर्मलता को बचाए रखना एक बड़ी चुनौती है।
भोपाल स्थित मौलाना आजाद नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में अनुप्रयुक्त रसायन विभाग की सविता दीक्षित का भी कहना है कि वर्ष 2007 के बाद से नर्मदा के जल की गुणवत्ता में सुधार हुआ है। उन्होंने होशांगाबाद में 2007 में नर्मदा जल की गुणवत्ता का परीक्षण किया था। उनके शोध के अनुसार, नर्मदा की ऊपरी धारा के मुकाबले निचली धारा में नाइट्रेट की मात्रा अधिक पायी गई। इससे भी नर्मदा में घरेलू सीवर और उद्योगों की गंदगी पहुंचने का संकेत मिलता है।
मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण मंडल भले ही नर्मदा को बेहद साथ-सुथरी बताये, लेकिन वर्ष 2015 की केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल की रिपोर्ट एक अलग तस्वीर पेश करती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, मध्य प्रदेश में मंडला से भेड़ाघाट के बीच 160 किलोमीटर, सेठानी घाट से नेमावर के बीच 80 किलोमीटर और गुजरात में गरुडेश्वर से भरूच के बीच नर्मदा प्रदूषित है। (मानचित्र देखें)
मध्य प्रदेश के जो शहर नर्मदा को दूषित कर रहे हैं उनके जबलपुर, होशंगाबाद और नेमावर प्रमुख हैं। इन शहरों से गुजरते हुए नर्मदा में बायोकैमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) की अधिकतम मात्रा 3.3 से 7.9 मिलीग्राम प्रति लीटर है, जो 3 से अधिक नहीं होनी चाहिए। गुजरात के बोलव, गरुडेश्वर और भरूच में तो बीओडी की अधिकतम मात्रा 5 मिलीग्राम प्रति लीटर तक पायी गई है। सीपीसीबी का यह अध्ययन वर्ष 2009 से 2012 के आंकड़ों पर आधारित है। हैरानी की बात है कि सिर्फ दो-तीन साल के अंदर नर्मदा इस दूषित स्थिति से स्वच्छ नदी में तब्दील हो गई।
पीसीबी के अधिशासी अभियंता एचएस मालवीय नर्मदा जल की गुणवत्ता में आए सुधार को सरकारी प्रयासों का नतीजा बताते हैं। इन प्रयासों के तहत होशांगाबाद और जबलपुर जैसे शहरों में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनवाने, गंदे नालों को डायवर्ट करने, अमरकंटक में फिल्ट्रेशन प्लांट और डिंडोरी में सीवर लाइन बिछाने और नर्मदा को दूषित करने वाली नगरपालिकाओं और फैक्ट्रियों के खिलाफ कार्रवाई करने जैसे उपाय शामिल हैं। मालवीय बताते हैं कि होशंगाबाद के कोरीघाट पर नर्मदा में गिरने वाले नाले को डायवर्ट कर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की ओर मोड़ दिया गया है। यह नाला होशंगाबाद शहर में नर्मदा के प्रदूषण का प्रमुख कारण था। नदियों को साथ-सुथरी रखने के लिए व्यापक जागरुकता अभियान चलाए जा रहे हैं। साथ ही अमरकंटक, डिंडोरी, भेड़ाघाट, जबलपुर, ओंकारेश्वर, मंडलेश्वर, महेश्वर की औद्योगिक इकाइयों के खिलाफ (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम 1974 के तहत कार्रवाई की गई है। मालवीय मानते हैं कि नर्मदा यात्रा से इन प्रयासों को बल मिलेगा।
हालांकि, नर्मदा से जुड़े मुद्दों पर सक्रिय होशंगाबाद के सामाजिक कार्यकर्ता योगेश दीवान पीसीबी के दावों को खारिज करते हुए कहते हैं कि आज भी सिक्योरिटी पेपर मिल का दूषित पानी सीधे नर्मदा में पहुंचता है। जब सरकारी फैक्ट्रियां ही नर्मदा को मैला करेंगी तो निजी उद्योगों से क्या उम्मीद की जाए। इस बारे में होशंगाबाद नगर पालिका के महापौर अखिलेश खंडेलवाल यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि सिक्योरिटी पेपर मिल के प्रदूषण की निगरानी नगर पालिका की जिम्मेदारी नहीं है। उधर, पीसीबी का कहना है कि नर्मदा में प्रदूषण फैलाने को लेकर सिक्योरिटी पेपर मिल के खिलाफ केस दर्ज किया था। वर्ष 2015 में मिल को नोटिस भी भेजा गया। एचएस मालवीय बताते हैं, “सिक्योरिटी पेपर मिल ने दूषित जल के पुन: प्रयोग का इंतजाम कर लिया है। ऑनलाइन मॉनिटरिंग भी की जा रही है। अब इस मिल से नदी में 3.5 एमएलडी दूषित पदार्थ ही नर्मदा में पहुंचता है। जबकि पहले यह मात्रा काफी अधिक थी।”
मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण मंडल के हालिया दावों से उलट होशंगाबाद जिले के पीपरिया में शासकीय पीजी कॉलेज में रसायन विज्ञान के मुकेश कटकवार का साल 2016 में प्रकाशित एक शोध भी बताता है कि घरेलू सीवर नर्मदा को काफी दूषित कर रहा है। इसमें बीओडी की मात्रा सुरक्षित मानकों से कहीं अधिक है। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ कैमिकल साइंसेज में प्रकाशित इस शोध के अनुसार, नर्मदा के आसपास रहने वाले समुदायों में त्वचा और पेट संबंधी बीमारियां आसानी से देखी जा सकती हैं।
नर्मदा और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर सक्रिय जबलपुर के वरिष्ठ पत्रकार जयंत वर्मा का कहना है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 277 में जलस्रोत या जलाशय को दूषित करने पर मात्र 500 रुपये के जुर्माने का प्रावधान है। जब तक ऐसे अपराधों के लिए तक कड़े दंड का प्रावधान नहीं किया जाता है, नदियों को प्रदूषण मुक्त करना बेहद मुश्किल है।
सीवेज और पुरानी गलतियां
नर्मदा की निर्मल-अविरल छवि पर तरह-तरह के खतरे भी इसके साथ-साथ आगे बढ़ते हैं। हर 100-50 किलोमीटर की दूरी एक नई समस्या और उससे निपटने के उपाय सामने आते हैं।
नर्मदा किनारे के शहरों में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट को गंदे नालों का प्रदूषण रोकने के बड़े उपाय के तौर पर देखा जा रहा है। इन शहरों में बड़ी तादाद में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाने की योजनाएं हैं।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की अगस्त, 2013 की एक रिपोर्ट बताती है कि समूचे मध्य प्रदेश में 25 प्रमुख शहरों से निकलने वाले कुल 1248 एमएलडी सीवर में से सिर्फ 186 एमएलडी यानी करीब 15 फीसदी सीवर के ट्रीटमेंट की क्षमता ही उपलब्ध है। इस मामले में दूसरे दर्जे के शहरों की स्थिति तो और भी खराब है।
नर्मदा को मैली होने से बचाने के लिए मध्य प्रदेश सरकार ने 18 शहरों में करीब 1500 करोड़ रुपये की समग्र सीवरेज परियोजनाएं लागू करने का फैसला किया है। ये सभी नर्मदा किनारे के शहर हैं, जहां सीवेज नेटवर्क और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) स्थापित करने की योजना है। लेकिन गंगा नदी के अनुभव बताते हैं कि जब तक शहरों गंदे पानी की निकासी और इसे ट्रीटमेंट प्लांट तक पहुंचाने के समुचित इंतजाम नहीं होते, तब तक एसटीपी कारगर साबित नहीं होते हैं।
गंगा की तरह नर्मदा के आसपास बसे शहरों में भी गंदे पानी की निकासी के लिए सीवेज प्रणाली नहीं है। कच्ची नालियों और नालों से बहने वाला शहरों का गंदा पानी नदियों के साथ-साथ भूजल को भी दूषित कर रहा है। इसलिए नर्मदा किनारे के शहरों में सीवेज सिस्टम पर ध्यान देना जरूरी है। लेकिन कुछ सावधानियां भी बरतनी होंगी।
अक्सर होता यह है कि सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट तो बन जाते हैं लेकिन पूरे शहर में सीवेज नेटवर्क नहीं बन पाता। इसलिए नदियां प्रदूषित होती रहती हैं। आशंका है कि यह गलती नर्मदा किनारे में शहरों में भी दोहरायी जा सकती है। अमृत योजना के तहत जबलपुर में सीवरेज और सेप्टाज प्रबंधन के लिए 600 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। इसी तरह होशंगाबाद में भी सीवेज प्रणाली में सुधार के लिए 150 करोड़ रुपये की योजना है।
पिछले दो दशकों के दौरान नदियों की निर्मलता के लिए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाने पर खूब जोर दिया गया है। देश में कुल 6,247 एमएलडी क्षमता के एसटीपी बनने थे, जिनमें से 3196 एमएलडी यानी करीब आधी क्षमता का ही निर्माण हो पाया। जो एसटीपी बने भी हैं, वे भी पूरी क्षमता के साथ काम नहीं कर रहे हैं।
नर्मदा के आसपास शहरों में सीवरेज की स्थिति
इन शहरों से निकलने वाला अधिकांश गंदा पानी कच्ची नालियों और नालों के जरिये नदियों में पहुंच रहा है
बूंद-बूंद दोहन
ताज्जुब की बात है कि जिस आबादी का मलमूत्र ढोने के लिए नर्मदा अभिशप्त है। वे सभी शहर पेयजल के लिए भी नर्मदा पर ही निर्भर हैं। राजस्थान में बाड़मेर से लेकर गुजरात में सौराष्ट्र और मध्य प्रदेश के 35 शहरों और उद्योगों की प्यास बुझाने का जिम्मा नर्मदा पर है। परंपरागत तौर पर नर्मदा कछार जल प्रबंधन की स्थानीय प्रणालियों के लिए जाना-जाता है। लेकिन अब यहां जलापूर्ति की केंद्रीकृत व्यवस्था पर निर्भरता बढ़ती जा रही है।
इंदौर, भोपाल समेत मध्य प्रदेश के 18 शहरों को नर्मदा का पानी दिया जा रहा है। नर्मदा के पानी को क्षिप्रा के बाद गम्भीर, पार्वती, ताप्ती, सहित मालवा, विन्ध और बुंदेलखंड तक पानी पहुंचाने की योजनाएं बनाई जा रही है।
नरसिंहपुर निवासी विनायक परिहार सवाल उठाते हैं कि कम ऊंचाई वाले नर्मदा बेसिन से अपेक्षाकृत अधिक ऊंचाई वाले क्षिप्रा बेसिन में पानी भेजा जा रहा है, जो उलटी गंगा बहाने जैसा है। नर्मदा क्षिप्रा लिंक का अनुभव देखें तो साल 2014 से आज तक मात्र कुम्भ मेले के समय ही पानी पहुंचाया जा सका है। पानी को पंप करने में बहुत अधिक ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। मिली जानकारी के अनुसार, बिजली खर्च बहुत अधिक होने की वजह से क्षिप्रा में नर्मदा जल की आपूर्ति बंद है।
दोहन का यह दबाब नर्मदा की हर बूंद निगल लेना चाहता है। मध्य प्रदेश के प्रमुख औद्योगिक शहर इंदौर में 70 किलोमीटर दूर से नर्मदा का पानी पहुंचता है। सन 1997-98 से 2004-05 के बीच स्थानीय झीलों और नर्मदा से इंदौर को पानी की आपूर्ति 238 एमएलडी से घटकर 204 एमएलडी रह गई है, जबकि पानी लाने का खर्च 100 फीसदी बढ़ गया है। अब नर्मदा से 180 एमएलडी पानी और इंदौर पहुंचाने की योजना है। भोपाल नगर निगम भी शहर में नर्मदा का पानी पहुंचाने के लिए एक हजार करोड़ रुपये खर्च कर चुका है।
देवास जैसे औद्योगिक शहर भी पानी की अपनी सारी जरूरत नर्मदा के जल से पूरी करना चाहते हैं। मानो शहरों के बीच नर्मदा को निचोड़ने की होड़ मची है। वर्ष 2002 में देवास इंडस्ट्रियल वाटर सप्लाई प्रोजेक्ट के तहत 168 किलोमीटर दूर नेमावर से पाइपलाइन के जरिये नर्मदा का पानी लाने की योजना बनाई गई थी। निजी भागीदारी (बीओटी) में चलाई जा रही इस योजना में देवास इंडस्ट्रियल एरिया तक 23 एमएलडी पानी पहुंचाने का जिम्मा एक निजी कंपनी को दिया गया है। इसके एवज में कंपनी फैक्ट्रियों से 26.50 रुपये प्रति किलो लीटर की दर से चार्ज वसूलेगी। कहा जा रहा है कि 23 एमएलडी में से 12 एमएलडी पानी उद्योगों को मिलेगा, जबकि बाकी पानी आसपास के गांवों को निशुल्क दिया जाएगा।
उधर, गुजरात में भी भरूच और दहेज के उद्योगों को नर्मदा का पानी चाहिए, इसलिए गुजरात सरकार उद्योगों को नर्मदा का ज्यादा पानी देने पर विचार कर रही है। एक तरफ जहां नर्मदा बेसिन में बारिश की कमी और नदी में प्रवाह घटने के संकेत मिल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर सिंचाई, पेयजल और औद्योगिक जरूरतों को पूरा करने के लिए नर्मदा का दोहन बढ़ता जा रहा है। पिछले तीन दशकों से नर्मदा को बचाने की मुहिम का नेतृत्व कर रही सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर कहती है कि जिस तरह नर्मदा जल के दोहन के नए-नए रास्ते निकाले जा रहे हैं, रेत का अंधाधुध खनन जारी है, जंगलों का विनाश हुआ है, वह नर्मदा के भविष्य के लिए दुखद संकेत हैं।
शायद ही दुनिया में ऐसी कोई दूसरी नदी होगी जो जल बंटवारे, जंगलों के विनाश, बड़े बांधों के निर्माण, लाखों लोगों के विस्थापन और पुनर्वास को लेकर दशकों तक नर्मदा की तरह जन आंदोलनों और विवादों से घिरी रही है। इनमें से कई संकट गहराते जा रहे हैं तो कई नए खतरे भी पैदा हो गए हैं।
जंगल और जल
गंगा-यमुना की तरह नर्मदा ग्लेशियर से निकली नदी नहीं है। यह मुख्य रूप से मानसूनी वर्षा और अपनी सहायक नदियों के जल पर निर्भर है। साल के सबसे शुष्क चार महीनों में इसमें कुल वार्षिक प्रवाह का 2 प्रतिशत से भी कम जल रह जाता है। वाशिंगटन डीसी स्थित वर्ल्ड रिर्सोसेज इंस्टीट्यूट ने वर्ष 2003 में नर्मदा को विश्व के छह संकटग्रस्त नदी बेसिनों में से एक माना था। दिसंबर, 2013 में इसी संस्थान की ओर से प्रकाशित एक वर्किंग पेपर में नर्मदा बेसिन को विश्व के 100 सबसे बड़े नदी बेसिनों में सर्वाधिक जल तनाव वाले 16 नदी बेसिनों में शुमार किया था। सबसे ज्यादा आबादी वाले 100 नदी बेसिनों में भी नर्मदा सर्वाधिक जल तनाव वाले 22 नदी बेसिनों में शामिल है।
ये तथ्य नर्मदा बेसिन में जल संकट की ओर से इशारा करते हैं। मध्य प्रदेश का करीब 28 फीसदी क्षेत्र नर्मदा कछार में आता है। अगर राज्य में वर्षा के आंकड़ों पर गौर करें तो बारिश पर निर्भर नर्मदा के संकट को समझा जा सकता है। मध्य प्रदेश कृषि विभाग के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2002-03 से 2015-16 के बीच राज्य में सिर्फ एक साल 2013-14 में औसत से अधिक बारिश हुई। जबकि इन 14 में से 12 साल ऐसे थे, जब राज्य में औसत से कम वर्षा हुई। सन 1971 के बाद से नर्मदा बेसिन में सबसे कम बारिश वर्ष 2000 में दर्ज की गई थी।
जल संसाधन मंत्रालय की वाटर ईयर बुक 2014-15 के मुताबिक, नर्मदा बेसिन के जिलों 1901-1950 के दौरान हुई औसत वार्षिक वर्षा की तुलना 2006-10 के बीच औसत वार्षिक वर्षा से करें तो पता चलता है कि नर्मदा के उद्गम वाले जिले शहडोल में औसत वार्षिक वर्षा 1397 मिमी से घटकर 916 मिमी रह गई है। अपर नर्मदा के मंडला जिले में भी औसत वार्षिक वर्षा 1570 मिमी से घटकर 1253 मिमी रह गई है। बेसिन के अधिकांश जिलों में यही स्थिति है। 1901-1950 के दौरान औसत वार्षिक वर्षा के मुकाबले 2006-10 के बीच हुई औसत वार्षिक वर्षा में भारी कमी दिखाई पड़ती है।
हाल के दशकों में नर्मदा घाटी का सामना कभी बाढ़ तो कभी सूखे से होता रहा है। वर्ष 2015 में चेन्नई स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी और रूड़की के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी का एक शोध बताता है कि सन 1989 से 2008 के बीच समूचे नर्मदा बेसिन में कई बार सूखा पड़ा है। सन 1951 के बाद से सूखे और भीषण तूफानों की घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी हुई है। नर्मदा घाटी का मध्य भाग जिसमें छिंदवाड़ा, होशंगाबाद, बैतूल, रायसेन, सिहोर, खंडवा जिले आते हैं, सबसे ज्यादा सूखाग्रस्त था। इस अध्ययन के मुताबिक, नर्मदा के ऊपरी हिस्से में जहां सबसे ज्यादा बारिश होती है, वहां भी सूखे की अवधि बढ़ गई है। इस क्षेत्र में शहडोल, मंडला, बालाघाट, जबलपुर, नरसिंहपुर, सागर, दमोह जिले आते हैं। इन इलाकों में अच्छी बारिश और वनों के वजह से ही नर्मदा में साल भर जल का प्रवाह बना रहता है। यहां सूखे की मार पड़ने का सीधा नर्मदा में पानी की मात्रा पर पड़ेगा।
दोहरी मार झेलती जलधाराएं
नर्मदा की छोटी-बड़ी कुल 41 सहायक नदियां हैं, जिनमें से 19 नदियां ऐसी हैं, जिनकी लंबाई 54 किलोमीटर से अधिक है। ये सहायक नदियां ही सतपुड़ा, विन्ध और मैकल पर्वतों से बूंद-बूंद पानी लाकर नर्मदा को सदानीरा बनाती हैं। लेकिन इनमें से कई नदियां सूखने के कगार पर हैं या फिर शहरों के आसपास नालों में तब्दील हो रही हैं। ‘जंगल रहे, ताकि नर्मदा बहे’ पुस्तक में भारतीय वन सेवा के अधिकारी पंकज श्रीवास्तव लिखते हैं कि सहायक नदियों द्वारा नर्मदा को मिलने वाली जलराशि में कमी को पिछले 100 वर्षों के आंकड़ों के आधार पर अधिकारिक तौर पर भी स्वीकार किया जाता है।
प्रवाह में कमी का एक मुख्य कारण तो यह बताया जाता है कि नर्मदा की प्रमुख सहायक नदियों पर बने बांधों में जल का संचय हो जाने से पहले की तुलना में अब नर्मदा तक कम जल पहुंचता है। परंतु उससे भी बड़ा कारण यह है कि इन नदियों के जलागम क्षेत्रों में सघन वनों के प्रतिशत में आती कमी के फलस्वरूप वनों के माध्यम से होने वाली पानी के अन्तारोधन की क्रिया ठीक से नहीं हो पाती है। नर्मदा पर यह दोहरी-तिहरी मार है। एक तरफ बुढ़नेर, दुधी, मछवासा और कोरनी जैसी सहायक नदियां सूखती जा रही हैं, वहीं तवा, बारना, कोलार और सुक्ता जैसी नदियों पर बांध बन गए हैं।
वनों का वर्षा, जल, मिट्टी और जीवन के साथ गहरा नाता है। अमरकंटक, सतपुड़ा और विन्ध की पहाड़ियों में फैले साल, सागौन, बांस और मिश्रित वन बारिश के पानी के साथ-साथ उपजाऊ मिट्टी को भी बह जाने से रोकते हैं। पेड़ों से रिसता हुआ यही पानी धीरे-धीरे साफ-सुथरा नदियों में पहुंचता है। बारिश का पूरा पानी तुरंत नदी-नालों में नहीं पहुंचने से बाढ़ का खतरा भी कम हो जाता है। इस तरह वन नर्मदा जैसे कछार में सदियों से अपनी दोहरी-तिहरी भूमिका निभाते आ रहे हैं। लेकिन हाल के दशकों में वनों की कटाई से इसमें बाधा उत्पन्न हुई है।
जल संसाधन मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, नर्मदा बेसिन का 32.88 फीसदी क्षेत्र वनों से ढका है। आंकड़ों में यह स्थिति ठीक-ठाक दिखाई पड़ती है। जबकि वास्तविकता यह है कि विगत दशकों में नर्मदा बेसिन में जंगलों की अंधाधुंध कटाई हुई है। वन स्थिति रिपोर्ट, 1991 के मुताबिक, मध्य प्रदेश के नर्मदा बेसिन के जिलों में वन आवरण कुल 52,283 वर्ग किलोमीटर था, जबकि वर्ष 2003 की रिपोर्ट के अनुसार 50,253 वर्ग किलोमीटर रह गया है। इसमें अति सघन वन सिर्फ 5.91 फीसदी हैं और 43.46 फीसदी क्षेत्र में विरल वन हैं। इस दौरान लगभग सभी जिलों में प्रति व्यक्ति सघन वन क्षेत्र में कमी दर्ज की गई है। बरसों से नर्मदा के सौंदर्य को कैमरे में कैद कर रहे छायाकार रजनीकांत यादव बताते हैं कि डिंडौली जिले का बैगाचक एक आदिवासी बहुल क्षेत्र था। यहां जंगलों की अंधाधुंध कटाई ने न सिर्फ नर्मदा घाटी का नुकसान पहुंचाया बल्कि बैगा आदिवासियों को जड़ों से काट दिया।
मध्य प्रदेश में कुल 1,447 परियोजनाओं में कुल 2.69 लाख हेक्टयर वन क्षेत्र का गैर वानिकी के लिए इस्तेमाल किया गया है, लेकिन वन संरक्षण अधिनियम के प्रावधानों कि अनदेखी करते हुए मात्र 23,493 हेक्टेयर गैर-वन भूमि पर वैकल्पिक वृक्षारोपण किया गया है।
हाल के वर्षों में नर्मदा की सहायक नदियों से मिलने वाले पानी में भी कमी देखी जा रही है। वनों विनाश इसकी एक बड़ी वजह है। इसलिए नर्मदा की अविरलता को बनाए रखने के लिए वनों के प्रसार के साथ-साथ अधिक से अधिक वर्षा जल को नदियों में पहुंचने के उपाय तलाशने जरूरी हैं।
पानी और गाद की मात्रा
नर्मदा बेसिन में पानी की मात्रा और राज्यों के बीच इसके बंटवारे को लेकर काफी विवाद रहा है। सन 1980 से 2000 के बीच नर्मदा में जल प्रवाह और गाद की मात्रा का विश्लेषण करने वाले भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रूड़की के हरीश गुप्ता बताते हैं कि इस नदी में अधिकांश जल मानसून के दौरान बहता है। नर्मदा पर कई बांध बनने से निलंबित तलछट प्रवाह काफी कम हुआ है। इन बांधों की वजह से 70-90 फीसदी मोटी रेत और करीब 50 फीसदी महीन रेत नदी में नहीं बह पाती। दरअसल विशाल जलाशयों में पानी के ठहराव के कारण यह गाद नीचे बैठ जाती है।
पिछले साल जुलाई में केंद्रीय जल संसाधन राज्य मंत्री ने राज्य सभा में दिए एक जबाव में कहा था कि देश की किसी भी प्रमुख नदी के प्रवाह में पिछले एक दशक के दौरान कोई कमी नहीं आई है। नर्मदा भी इनमें से एक है। यह अध्ययन किस मौसम (मानसून या गैर-मानसून) में किया गया, इसकी जानकारी नहीं दी गई है। इसलिए इस आधार पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचना मुश्किल है। इन आंकड़ों के अनुसार, सरदार सरोवर बांध के नजदीक नर्मदा की निचली धारा में 2010-11 के बाद जल प्रवाह बढ़ा है। लेकिन 2014-15 में यह घटकर 2004-05 के मुकाबले सिर्फ 37 फीसदी रह गया। यानी केंद्रीय मंत्री की ओर से पेश आंकड़ों का विश्लेषण किया जाए तो नर्मदा में पानी की कमी का अंदाजा लगाया जा सकता है।
केंद्रीय जल आयोग द्वारा गरुडेश्वर स्टेशन से जुटाए गए वार्षिक जल अपवाह के आंकड़े बताते हैं कि सन 1972-2015 के बीच सर्वाधिक 7406.1 करोड़ घन मीटर प्रवाह सन 1994-95 में और सबसे कम 449.2 करोड़ घन मीटर प्रवाह 2008-09 में दर्ज किया गया। हालांकि, 2008-09 के बाद वार्षिक अपवाह में 2013-14 तक वृद्धि हुई है लेकिन 2014-15 में यह घटकर 907.2 करोड़ घन मीटर रह गया। इन आंकड़ों से नर्मदा में पानी की कमी के संकेत मिलते हैं।
खनन से खोखली नर्मदा
नर्मदा घाटी में बॉक्साइट जैसे खनिजों की मौजूदगी भी पर्यावरण से जुड़े कई संकटों की वजह बनी है। नर्मदा के उद्गम वाले क्षेत्रों में 1975 में बॉक्साइट का खनन शुरू हुआ था, जिसके कारण वनों की अंधाधुंध कटाई हुई। हालांकि, बाद में वहां बॉक्साइट के खनन पर काफी हद तक अंकुश लगा। लेकिन तब तक पर्यावरण को काफी क्षति पहुंच चुकी थी।
अब ऐसा ही खतरा डिंडोरी जिले में सामने आया है। गत दिसंबर माह में डिंडोरी जिले में बॉक्साइट के बड़े भंडार का पता चला है। इसकी भनक लगते ही भौमिकी एवं खनकर्म विभाग ने जिले की दो तहसीलों में बॉक्साइट की खोज का अभियान शुरू कर दिया है। गौरतलब है कि अपर नर्मदा बेसिन के डिंडोरी और मंडला जिलों में वनस्पति और जानवरों के जीवाश्म बहुतायत में पाये जाते हैं। जबलपुर स्थित कृषि विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर एनडी शर्मा का कहना है कि ये दोनों जिले अंतरराष्ट्रीय महत्व के स्थल हैं। यहां जीवाश्म संबंधी कई महत्वपूर्ण खोज हुई हैं और बहुत-सा शोध कार्य अभी होना बाकी है। इसके अलावा ये जिले कान्हा नेशनल पार्क और अचानकमार-अमरकंटक बायोस्फियर रिजर्व को जोड़ते हैं। इसलिए यहां खनन संबंधी गतिविधियों को बढ़ावा देना कतई उचित नहीं है।
बॉक्साइट खनन जैसे भावी खतरों के अलावा रेत खनन जैसे मौजूदा हमले नर्मदा बेसिन को खोखला बना रहे हैं। नर्मदा किनारे के जिलों की टोह लेते हुए जब हम होशंगाबाद पहुंचे तो शहर से करीब आधा किलोमीटर की दूरी पर दिन में ही नदी से रेत निकालते ट्रैक्टर-ट्रॉली दिखाई पड़ गए। नर्मदा बचाओ अभियान से जुड़े राहुल यादव बताते हैं कि पर्यावरण से जुड़े नियम-कायदों को ताक पर रखते हुए नर्मदा में रेत खनन जारी है। जबलपुर, नरसिंहपुर होशंगाबाद, हरदा, सीहोर आदि जिलों में नावों के जरिए रेत निकाली जा रही है। रेत खनन का यह खेल नर्मदा के साथ-साथ बेसिन के तकरीबन सभी जिलों में बेरोकटोक जारी है।
नर्मदा को रेत माफियाओं के चंगुल से बचाने के लिए हाईकोर्ट और एनजीटी में कई याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं। नर्मदा समर्थ सत्याग्रह, नर्मदा बचाओ आंदोलन, नर्मदा मिशन,नर्मदा संरक्षण पहल, क्लीन नर्मदा, नर्मदा समग्र तथा अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अवैध खनन के मुद्दे पर हाई कोर्ट और एनजीटी का दरवाजा खटखटाया है। मिली जानकारी के अनुसार, नर्मदा बेसिन में अवैध खनन व प्रदूषण से संबंधित दर्जनों जनहित याचिकाएं विभिन न्यायलाओं में लंबित हैं।
अवैध रेत खनन के मामले में महाराष्ट्र के बाद मध्य प्रदेश देश में दूसरे नंबर पर है। अवैध खनन संबंधी केंद्रीय खनन मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2015-16 के दौरान मध्य प्रदेश में अवैध रेत खनन के 13541 मामले सामने आए थे, जिनमें से 13420 मामलों में मुकदमे दर्ज किये गए हैं। इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि सिर्फ दो साल के भीतर मध्य प्रदेश में अवैध खनन के मामले दो गुना से भी अधिक बढ़ गए हैं।
थर्मल और न्यूक्लियर प्लांट
नर्मदा की राह में अड़चनों की कमी नहीं है। एक संकट खत्म नहीं होता कि कोई दूसरी चुनौती सामने आ जाती है। बांधों के जाल में बुरी तरह फंस चुकी नर्मदा की गोद में थर्मल और न्यूक्लियर प्लांट भी पैर पसार रहे हैं। नर्मदा के आसपास के इलाकों में एक-दो नहीं बल्कि 18 थर्मल पावर प्लांट लगाने की तैयारी है। इनमें से पांच तो सिर्फ जबलपुर से होशंगाबाद के बीच बनने हैं। ये संयंत्र न सिर्फ भारी मात्रा में पानी का दोहन करेंगे बल्कि नर्मदा को दूषित भी कर देंगे।
बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ के संयोजक राज कुमार सिन्हा बताते हैं कि नर्मदा नदी के आसपास पांच थर्मल पावर प्लांट चल रहे हैं, जबकि बरगी बांध से मुश्किल से एक किलोमीटर की दूरी पर एक परमाणु संयंत्र लगाने की योजना है। हालांकि, इसके लिए अभी पर्यावरण मंजूरी नहीं मिली है, लेकिन भूमि अधिग्रहण का काम चल रहा है। सिन्हा का दावा है कि करीब 40 फीसदी लोगों ने मुआवजा लेने से इंकार कर दिया है। सिन्हा 1400 मेगावाट बिजली के लिए 25,000 करोड़ की चुटका परमाणु परियोजना के औचित्य पर भी सवाल उठाते हैं।
सत्तर के दशक में बने बरगी बांध के लिए 162 गांवों को विस्थापित किया गया था। इन गांवों के कई परिवार आज तक पुनर्वास के लिए भटक रहे हें। इन विस्थापितों पर अब दोबारा विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है। दो हजार हैक्टेयर में बनने वाले चुटका परमाणु पावर प्लांट की जद में 36 गांव आएंगे। सबसे पहले चुटका, कुंडा, भालीबाड़ा, पाठा और टाडीघाट गांव को हटाने की तैयारी है। परमाणु बिजलीघरों में बड़े पैमाने पर पानी की जरूरत और परमाणु कचरे के जोखिमों को देखते हुए चुटका परियोजना के खिलाफ लंबे समय से विरोध किया जा रहा है।
मेधा पाटकर का कहना है कि मप्र सरकार नर्मदा नदी की परिक्रमा कर रही है। नर्मदा को बचाने का अभियान चलाया जा रहा है। लेकिन नर्मदा किनारे रह रहे आदिवासी को न तो आज तक जमीन का पट्टा मिला है और न अधिकार दिया गया है। सरकार नर्मदा का व्यवसायिक रूप से दोहन करने के लिए यह यात्रा निकाल रही है।
बांधों में बंधी नर्मदा
नर्मदा को रेवा भी कहते हैं। यानी उछल-कूद कर आगे बढ़ने वाली नदी। लेकिन आजादी के बाद से ही नर्मदा घाटी में उपलब्ध जल दोहन के प्रयास तेज हो गए थे। नतीजन नर्मदा और इसकी सहायक नदियों पर बांध बनाकर सिंचाई व जल विद्युत परियोजनाओं के अंधाधुंध निर्माण का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आज तक जारी है। सन 1979 में नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण ने नर्मदा में उपयोग योग्य जल की मात्रा 34.54 अरब घन मीटर मानते हुए मध्य प्रदेश को 65.16 फीसदी, गुजरात को 32.14 फीसदी, राजस्थान को 1.78 फीसदी और महाराष्ट्र को 0.89 फीसदी पानी के इस्तेमाल का हक दिया था। तभी से राज्यों में नर्मदा जल के दोहन की होड़ मची है।
आज नर्मदा किन बांधाओं से गुजर रही है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि नर्मदा की मुख्य धारा पर 5 बड़े बांधों का निर्माण हो चुका है और 5 बड़े बांध प्रस्तावित हैं। इसी तरह नर्मदा की सहायक नदियों पर 20 बड़े बांध बनने हैं, जिनमें से 8 बांध बन चुके हैं। नर्मदा मास्टर प्लान के अनुसार, नर्मदा बेसिन में 30 बड़े, 135 मध्यम और 3,000 छोटे बांधों का निर्माण होना है। जिनसे इनसे 46.3 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई और 3 हजार मेगावाट से अधिक बिजली उत्पादन का लक्ष्य है।
फिलहाल नर्मदा घाटी में 21 बड़ी और 23 मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के लिए छोटे-बड़े कुल 277 बांधों का निर्माण हो चुका है। इनमें सबसे लंबा बरगी बांध पांच किलोमीटर से भी अधिक लंबा है।सिंचाई के अलाा उद्योगों और शहरों की प्यास बुझाने के लिए भी बड़े पैमाने पर नर्मदा जल का उपयोग किया जा रहा है। सत्तर के दशक से नर्मदा घाटी में विकास का जो खाका खींचा गया, उसके तहत बरगी (जबलपुर), इंदिरा सागर (पूर्वी निमाड़), ओंकारेश्वर (खंडवा), महेश्वर (जबलपुर), तवा (होशंगाबाद) और सरदार सरोवर (नर्मदा-गुजरात) जैसे विशाल बांधों का निर्माण हो चुका है।
इन बांधों के जरिए समूचे नर्मदा कछार में नहरों का जाल बिछ चुका है। नर्मदा बेसिन का करीब 30 फीसदी क्षेत्र विभिन्न सिंचाई परियोजनाओं की कुल 6,638 किलोमीटर लंबी नहरों के दायरे में आता है। बांधों और नहरों के इस जाल ने नर्मदा घाटी का स्वरूप बदल डाला है। कुल 1312 किलोमीटर की लंबाई में से करीब 446 किलोमीटर यानी करीब एक तिहाई हिस्से में नर्मदा का प्रवाह बड़े-बड़े जलाशयों की वजह से थमा हुआ है। नर्मदा बेसिन में उपयोग योग्य कुल 34.5 अरब घन मीटर सतही जल होने का अनुमान है, जिसमें से कुल 24.92 अरब घन मीटर जल संग्रह क्षमता यानी जलाशयों के निर्माण की योजना है। इनमें से 17.62 अरब घन मीटर क्षमता के जलाशयों का निर्माण हो चुका है। बाकी निर्माणाधीन अथवा प्रस्तावित हैं।
तीन दशक पहले खींचे गए विकास के इस खाके के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय नफे-नुकसान का आकलन करना जरूरी है। भोपाल में विकास संवाद के सचिन कुमार जैन कहते हैं कि भले ही देश की बाकी नदियों के मुकाबले नर्मदा साफ-सुथरी दिखाई देती हैं, लेकिन जिस तरह यहां अंधाधुंध बांधों का निर्माण हुआ और अब अवैध खनन व जल दोहन जारी है, वह नदी बेसिन के समूचे पारिस्थतिकी तंत्र के लिए खतरा है। बांधों के निर्माण में हरसूद जैसे शहर के शहर डूब गए, लाखों लोगों को विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा, आदिवासी समाज-संस्कृतियां अपना परिवेश गवां बैठीं, लेकिन फिर भी विकास के इस मॉडल का त्याग नहीं किया गया।
अतीत का आईना
नर्मदा देश की पांचवी सबसे लंबी और पूरब से पश्चिम को बहने वाली देश की सबसे बड़ी नदी है। इसका उद्गम मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा पर सतपुड़ा और विंध्य पर्वतमालाओं को जोड़ने वाली मैकल पर्वत श्रेणी के अमरकंटक नामक स्थान से होता है। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में कुल 1312 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद नर्मदा खम्भात की खाड़ी में मिलती है। इस दौरान नर्मदा मुड़ती-उमड़ती, कहीं मैदानी तो कहीं पहाड़ी रास्तों से गुजरती हुई 1079 किमी. की यात्रा मध्य प्रदेश में पूरी करती है। इसके बाद मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा पर 35 किमी. और गुजरात व महाराष्ट्र की सीमा पर 39 किमी. का सफर पूरा करती है। आखिरी में 159 किमी. यह गुजरात में बहकर अरब सागर की खम्भात की खाड़ी में मिलती है। नर्मदा बेसिन का कुल जलाग्रहण क्षेत्र 98,796 वर्ग किलोमीटर है। इसका करीब 86 फीसदी क्षेत्र मध्य प्रदेश, 11 फीसदी गुजरात, 2 फीसदी महाराष्ट्र और करीब एक फीसदी छत्तीसगढ़ में आता है। यह जिस विभ्रंश घाटी से होकर बहती है, उसमें पाई जाने वाली चट्टानें विश्व के प्राचीनतम शैल समूहों में से हैं, जिनकी उत्पत्ति प्री कैम्ब्रियन (460-57 करोड़ वर्ष पूर्व) या उससे भी पहले हुई थी। भू-वैज्ञानिकों का मानना है कि जहां आज नर्मदा घाटी है, लगभग 150 करोड़ वर्ष पूर्व वहां अरब सागर का एक हिस्सा संकरी धारा के रूप में लहराता था। इस घाटी में करोड़ों साल पुराने जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के जीवाश्म के अलावा प्राचीन मानव कपाल के अवशेष भी मिले हैं, जिसे ‘नर्मदा मानव’ या ‘इरेक्टस नर्मदेन्सिस’ कहा जाता है। पुरातत्व के लिहाज से यह अत्यंत महत्वपूर्ण खोज थी। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि आज से करीब छह करोड़ वर्ष पूर्व भूगर्भीय हलचलों की वजह से गर्म लावा ज्वालामुखी के जरिये बाहर निकला और धरती की सतह पर फैला गया। इस लावे में दबी वनस्पति और जानवरों के अवशेष ही आज जीवाश्म के रूप में सामने आ रहे हैं। |
नर्मदा सेवा यात्रा
छह मार्च तक यात्रा कुल 2,085 किमी की दूरी तय कर चुकी नर्मदा यात्रा 490 से अधिक गांवों से गुजर चुकी है। इस दौरान कुल 490 जनसंवाद कार्यक्रमों का आयोजन किया गया, जिसमें नर्मदा को प्रदूषण मुक्त बनाने के उपायों और जन जागरुकता पर जोर दिया जा रहा है। मुख्य यात्रा के अलावा आस-पास के स्थलों से भी उप यात्राओं का आयोजन किया गया और अब तक कुल 1,002 उपयात्राएं भी मुख्य यात्रा में सम्मिलित हो चुकी हैं। नर्मदा सेवा की वेबसाइट पर 60 हजार से ज्यादा नर्मदा सेवकों द्वारा अपना पंजीयन कराया जा चुका है। |
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान आजकल नर्मदा सेवा यात्रा के जरिये नदी संरक्षण के मुहिम में जुटे हैं। विभिन्न पड़ावों पर वे खुद भी जानी-मानी हस्तियों के साथ यात्रा में शामिल होते हैं। नर्मदा संरक्षण के इस अभियान को एक तरफ व्यापक जन समर्थन मिल रहा है तो कई मुद्दों को लेकर आलोचना भी हो रही हैं। खासतौर पर नर्मदा जल के अत्यधिक दोहन, वनों की कटाई, अंधाधुंध खनन रोकने में सरकारी की नाकामी पर सवाल उठाए जा रहे हैं। नर्मदा बेसिन में प्रस्तावित थर्मल व न्यूक्लियर प्लांट को लेकर भी चिंताएं जताई जा रही हैं। नर्मदा संरक्षण की इस पहल पर शिवराज सिंह चौहान से ‘डाउन टू अर्थ’ की बातचीत:
ऐसा कहा जाता है कि नर्मदा देश की प्रमुख नदियों में सबसे साफ है, किन्तु आप इसे बचाने के लिए एक बड़ा अभियान चला रहे हैं। क्या यह अभियान प्रदूषण से रोकने के लिए है या फिर वास्तविकता यह है कि नदी के ऊपर साफ होने का एक लेबल लगा दिया गया है, जो कि सत्य नहीं है।
यह तथ्य बिल्कुल सत्य है कि हमारी नर्मदा नदी देश की प्रमुख नदियों में सबसे शुद्ध, पवित्र और निर्मल है। हमने ‘‘नमामि देवि नर्मदे-नर्मदा सेवा यात्रा’’ अभियान इसलिए चलाया है कि हम मां की तरह पवित्र नर्मदा नदी को इसी तरह स्वच्छ बनाये रखना चाहते हैं। हमारा यह कदम सही समय पर उठाया गया कदम है। जल गुणवत्ता की दृष्टि से प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार नर्मदा नदी का जल ए-श्रेणी में आता है, यह इस बात का प्रमाण है कि अन्य नदियों की तुलना में नर्मदा नदी के जल की गुणवत्ता बहुत अच्छी है। हम इस बात में विश्वास करते हैं कि बीमारी से पहले ही लोगों को जागरूक और शिक्षित कर दें ताकि लोग बीमार ही न हों। इस अभियान के माध्यम से हम समय से पूर्व लोगों को यह बता रहे हैं कि नर्मदा हमारी जीवनदायिनी है, इसे स्वच्छ रखकर ही हम विकास कर सकते हैं। इसके अलावा हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए भी अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन माँ नर्मदा को स्वच्छ रखकर ही किया जा सकता है।
नर्मदा के लिए आपका क्या एजेंडा है?
मेरा यह मानना है कि पर्यावरण या नदी संरक्षण जैसे कार्य सामुदायिक जागरूकता और सहभागिता के बिना संभव नहीं हैं। जब आमजन स्वप्रेरणा से किसी सामाजिक जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए आगे आते हैं, तो उस अभियान में पूर्ण सफलता प्राप्त होती है। इस तरह के अभियान में लोगों के मन में जिम्मेदारी का भाव, उनकी सोच और मानसिकता में सकारात्मकता तथा उस दिशा में व्यवहार में बदलाव बहुत आवश्यक है।
हम इस अभियान के माध्यम से यही करने का प्रयास कर रहे हैं। हम यह भी मानते हैं कि जनसहयोग के बिना सरकार अकेले कुछ नहीं कर सकती है। हमें इस बात की प्रसन्नता है कि हमें अपार जनसहयोग एवं समर्थन इस अभियान में मिल रहा है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इस अभियान में मिले समर्थन से हमारा उत्साह बढ़ा है। आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर संघ चालक पूजनीय मोहन भागवत, सह कार्यवाह पूजनीय भैयाजी जोशी, अवधेशानंद महाराज, देश के प्रसिद्ध अभिनेता अमिताभ बच्चन, स्वर कोकिला लता मंगेशकर के समर्थन ने इस अभियान को अपने लक्ष्य की तरफ तेजी से बढ़ाया है। इस अभियान को लेकर हमारा सिर्फ यही एजेंडा है।
गांवों, कस्बों और शहरों से निकलने वाले नालों का गंदा पानी प्रदूषण फैलाने वाले एक बड़े कारक के रूप में सामने आया है। इन सभी का सम्बंध शहरों की योजनाओं के निर्माण से है। आप इसे किस तरह व्यवस्थित करने वाले हैं?
नर्मदा नदी को स्वच्छ रखने के लिए हमने निर्णय लिया है कि नदी के तटों पर स्थित 14 शहरों के प्रदूषित जल को नर्मदा नदी में नहीं मिलने दिया जायेगा। इसके लिए 1500 करोड़ रुपये की राशि से सीवेज ट्रीटमेंट प्लान्ट लगाये जायेंगे। नर्मदा नदी के दोनों किनारों पर बहने वाले 766 नालों के पानी को नर्मदा में जाने से रोकने के सुनियोजित प्रयास किये जायेंगे। नर्मदा नदी के तट के सभी गांवों और शहरों को खुले में शौच से मुक्त किया जायेगा। नदी के दोनों ओर हम सघन वृक्षारोपण करेंगे ताकि नर्मदा में जल की मात्रा बढ़ सके। नर्मदा के सभी घाटों पर शवदाह गृह, स्नानागार और पूजन सामग्री विसर्जन कुण्ड बनाये जायेंगे, जिससे मां नर्मदा को पूर्णतः प्रदूषणमुक्त रखा जा सके। नर्मदा तट के सभी गांवों और शहरों में पांच किलोमीटर की दूरी तक कोई भी शराब की दुकान नहीं होंगी।
नर्मदा नदी औद्योगिक प्रदूषण से बहुत अधिक प्रभावित नहीं है, किन्तु मध्यप्रदेश में तेजी से औद्योगीकरण हो रहा है। इस दृष्टि से आपकी सरकार ने नर्मदा संरक्षण के कौन से उपाय किए हैं?
आपने यह एक बहुत अच्छा प्रश्न किया है। हमारी सरकार के सुरक्षा प्रयासों का ही परिणाम है कि मध्यप्रदेश में तेजी से औद्योगीकरण होने के बाद भी नर्मदा नदी को हमने औद्योगिक प्रदूषण से मुक्त रखा है। हमने पर्यावरण के अनुकूल उद्योग नीति बनाई है, जिसमें हमने समन्वित एवं संतुलित विकास पर जोर दिया है। हमारा प्रयास है कि औद्योगिक विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन तो हो, किन्तु शोषण न हो। हम पर्यावरण संरक्षण के कानूनों का बहुत ही कड़ाई से पालन कर रहे हैं। नर्मदा नदी के आसपास जितने भी उद्योग हैं, उन सभी ने दूषित जल उपचार संयंत्र लगाया है। उन उद्योगों को हमारे सख्त निर्देश हैं कि दूषित जल उनके परिसर से बाहर नहीं जाना चाहिए। सभी इसका कड़ाई से पालन कर रहे हैं। हमारी नियंत्रण एजेंसियां इस पर लगातार निगरानी रखती हैं। यही वजह है कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में प्रदेश में हमें अच्छे परिणाम प्राप्त हुए हैं।
सामान्य तौर पर ऐसा नहीं होता है कि एक मुख्यमंत्री किसी नदी को बचाने का अभियान चलाये, वह भी जब कि गंगा ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा हो। इस अभियान में आपकी व्यक्तिगत और राजनीतिक प्रतिबद्धता को कौन प्रेरणा देता है?
निश्चित रूप से पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद से मिले संस्कार, अपनी आने वाली पीढ़ी के प्रति दायित्वभाव और मध्यप्रदेश में जन-जन से मिला प्रेम, सहयोग और समर्थन मुझे लगातार प्रेरित करते रहे हैं। मेरा मानना है कि कोई भी मुख्यमंत्री जब तक सामाजिक दायित्वों को समझते हुए विभिन्न विकास कार्यों में जन जागरूकता और जन सहभागिता को सुनिश्चित नहीं करेगा, तब तक वह अपने प्रदेश का विकास नहीं कर सकता है। नर्मदा नदी की प्रदेश में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है। नर्मदा नदी से प्रदेश की चार करोड़ की आबादी को पेयजल प्राप्त होता है, 17 लाख हेक्टेयर में सिंचाई होती है, 2400 मेगावाट बिजली उत्पन्न होती है, फिर ऐसे में उसे संरक्षित रखने का पहले मैं अपना दायित्व समझता हूं, उसके बाद यह जन-जन की जिम्मेदारी होती है।
मेरी चिंता पूरी दुनिया में नदियों को बचाने के प्रति है। नदियों की भूमिका हमारी सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों में बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। नदियां सुरक्षित हैं, तो यह सभी सुरक्षित रह सकते हैं, और तभी आने वाली पीढ़ी भी सुरक्षित रह सकेगी। अपनी इसी चिंता के कारण मैंने संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एन्टोनियो गुटेरिस को पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि वह पूरी दुनिया में नदियों को संरक्षित करने के लिए अभियान चलाने का प्रयास करें।
“पीढ़ियों से हम जंगलों में रहते आए हैं। जंगल ही हमारा साहूकार और हमारा बैंक है। संकट के दिनांे में हम उसी के पास जाते है। हम जंगल की गोद और मोटली माई नर्मदा के पेट में रहते हैं। मोटली नदी के गीत गाकर हम देव पूजते हैं। ये गीत नवाहे और दिवासा के त्योहारों पर गाए जाते हैं, यह हमें बताती है कि किस तरह से दुनिया बनी, मानव जाति कैसे पैदा हुई और मोटी (मोटली) नर्मदा कहां से आई। नर्मदा अपने पेट में रहने वालो को बहुत सुख देती है। उसके पानी में ढेरों मछलियां हैं।” -बाबा महरिया
आज से करीब दो दशक पहले जब मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को बाबा महरिया ने उपरोक्त चिट्ठी लिखकर अपनी व अपने समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक स्थिति समझाने का प्रयास किया था, तब लगा था कि शायद हमारे समाज व काल में संवेदनाओं के लिए कुछ गुंजाइश बची है। परंतु हम सभी गलत साबित हुए और विकास की आधुनिक अवधारणा और उसके क्रियान्वयन में बरती जा रही निष्ठुरता, निर्ममता व अहंकार ने अंततः मानव, उसके क्रमिक सामाजिक विकास और पंरपराओं से जुड़ी प्रत्येक मान्यता को सिरे से नकारते हुए स्वयं को स्थापित कर लिया। संभवतः यह कथन तमाम लोगों को एकतरफा सा प्रतीत होगा।
भारतीय पारंपरिक समाज, जिसमें आदिवासी और ग्रामीण दोनों इलाके शामिल हैं, का सामाजिक व आर्थिक तानाबाना कमोवेश बहुत सीमित दायरे में बंधा होता है। नर्मदा घाटी में बसने वाला समुदाय भी इससे कोई बहुत अनूठा नहीं है। यह अलग बात है कि वह अपने अतीत व वर्तमान दोनों में ही अत्यंत विरोधाभासी परिस्थितियों का साक्षी रहा है। वैसे तो करीब 6.5 करोड़ वर्ष पूर्व नर्मदा घाटी में नदी के प्रमाण मिले है।
कहते हैं कि इस नदी के अधिष्ठाता संत मार्केण्डेय ऋषि ने नर्मदा के साथ ही साथ इसकी सहायक नदियों की परिक्रमा तीन वर्ष, तीन माह व तेरह दिन में पूरी की थी। वर्तमान में हो रही परिक्रमा में कुल 2560 किलोमीटर का सफर किया जाता है। नर्मदा घाटी में कुल 30 बड़े 300 से ज्यादा मध्यम व 3200 के करीब छोटे बांध बांधना प्रस्तावित है। अभी तो इस पर कुल 5 बड़े बांध यथा, बरगी बांध, इंदिरा सागर बांध, ओंकारेश्वर बांध, महेश्वर बांध एवं सरदार सरोवर बांध ही बने हैं। इनके आधे-अधूरे निर्माण व क्रियान्वयन ने ही घाटी के सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक आधार को छिन्न भिन्न कर दिया है। बरगी बांध का बैकवाटर (जहां तक जलाशय का पानी पहुंचता है) करीब 70 किलोमीटर, इंदिरासागर बांध मैदानी इलाका होने के कारण डूब क्षेत्र का भ्रमण करीब 800 वर्ग किलोमीटर के बराबर बैठता है। ओंकारेश्वर बांध 42 किलोमीटर, महेश्वर बांध 42 किलोमीटर और सरदार सरोवर बांध 214 किलोमीटर। यह बहाव क्षेत्र में सीधे डूब में आने वाला क्षेत्रफल है। यदि इसमें सहायक नदियों को भी सम्मिलित कर लिया जाए तो यह आंकड़ा तकरीबन दो गुना तक हो सकता है। सरल शब्दों में कहें तो अब यहां नदी नहीं बहती, तालाब भरे रहते हैं। नदी और तालाब का अंतर व महत्व हम सभी बहुत अच्छे से समझते हैं।
भौगोलिक के पश्चात यदि सामाजिक परिप्रेक्ष्य में बात करें तो बरगी बांध में 164 गांव, इंदिरासागर बांध में 256 (वास्तव में करीब 280) गांव व करीब 40000 की जनसंख्या वाला कस्बा हरसूद, ओंकारेश्वर बांध में 31 गांव और महेश्वर बांध में 61 गांव डूब में आ रहे हैं। वहीं सरदार सरोवर बांध जिसका जलाशय मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र व गुजरात तीन राज्यो में फैला हुआ है, में कुल 244 गांव और एक कस्बा धरमपुरी (जनसंख्या 30,000) डूब में आ रहे है। इन गांवों में से 192 व एक कस्बा मध्यप्रदेश में, 33 गांव महाराष्ट्र में एवं 19 गांव गुजरात के हैं। मध्यप्रदेश में स्थित बड़े बांध महाकौशल, पूर्वी निमाड़ एवं पश्चिमी निमाड़ अंचल में निर्मित हैं। अतएव पहले यह अंदाजा लगाना आवश्यक है कि इन 680 गांवों और 2 कस्बों में जो लाखों हेक्टेयर कृषि एवं वन भूमि डूब में आई है, उसका कितने व्यापक समुदाय पर सामाजिक सांस्कृतिक और आर्थिक प्रभाव पड़ा होगा। इसी के साथ हमें वन्यजीवों व पालतु पशुओं पर हुए अत्याचार को भी रेखांकित करना होगा।
यदि सरदार सरोवर बांध से पड़ने वाले प्रभाव की बात करे तो सन 1979 में अनुमान लगाया गया था कि इससे करीब 6,000 परिवार विस्थापित होंगे। सन 1987 में यह आंकड़ा 12,000 तक पहुंचा। चार बरस बाद सन 1991 में अनुमानित संख्या 27,000 हो गई। इसके एक वर्ष पश्चात सरकार ने स्वीकारा कि कुल 40,000 परिवार प्रभावित होंगे। यह भी अंतिम नहीं था सरकारी आंकड़ा 40,000 से 41,500 परिवार के बीच अटका रहा। वहीं नर्मदा बचाओ आंदोलन का मानना है कि कुल 85,000 परिवार यानी कि करीब 5 लाख लोग प्रभावित होंगे। सर्वाेच्च न्यायालय के द्वारा दिए गए अंतिम निर्णय में भी विस्थापितों की संख्या सुनिश्चित नहीं है। जबकि मुआवजा संबंधी कार्यवाहियां पूर्ण कर 31 जुलाई 2017 तक बांध के गेट (137 मीटर) लगाने के लिए न्यायालय ने स्वीकृति दे दी है।
इस तरह कम से कम 2.5 लाख और अधिकतम 5 लाख लोग जो नर्मदा घाटी में निवास करते हैं वे सरदार सरोवर बांध की डूब से प्रभावित होंगे ही होंगे। सामाजिक और आर्थिक प्रभावों की विवेचना से पहले आवश्यक है कि डूब प्रभावित समुदाय जो पिछले तीन दशकों से अधिक से डर, संशय व अनिश्चितता की भावना में जी रहा है उसकी मानसिक अवस्था पर गौर किया जाए।
अरुंधती रॉय ने नर्मदा घाटी पर बन रहे बांधो को लेकर लिखा था, “भारतीय राज्य धूर्तता के साथ लड़ता है। अपनी ऊपरी शराफत से अलग इसका दूसरा हथियार इंतजार करने की इसकी सामर्थ्य है, लड़ाई को खींचते रहने की। विरोधी को थका देने की। राज्य कभी नहीं थकता है, कभी बुढ़ाता नहीं है, उसे कभी आराम नहीं चाहिए। यह एक अंतहीन दौड़ दौड़ता है। मगर लड़ते हुए लोग थक जाते हैं। वे बीमार और बूढ़े हो जाते हैं। लगभग बीस साल (यह बात उन्होंने सन 1999 में कही थी) से, पंचाट के फैसले के बाद, घाटी की यह अनगढ़ सेना बेदखली के डर के साथ जीती रही है।” अपनी बात समाप्त करते हुए उन्होंने कहा था, “कब तक टिकेंगे?” तमाम आशंकाओं के बावजूद वह पिछले 40 वर्षों से अधिक से संघर्षरत है और विगत 32 वर्षाें से नर्मदा बचाओ आंदोलन मेधा पाटकर के सक्रिय नेतृत्व के जरिए उन्हें थामे हुए है।
यह लंबा संघर्ष सिर्फ बाहरी समर्थन व मदद से नहीं चल सकता। इसके पीछे है नर्मदा घाटी के पठार एवं पहाड़ी क्षेत्रों की सामाजिक संरचना जो कि उन्हें आपस में बांधे हुए है और लगातार अपने अस्तित्व को बनाए रखने में मददगार है। यहां की सामाजिक व आर्थिक संरचना का मूलाधार विशिष्ट भूखण्ड पर स्थित वन संपदा और नर्मदा का प्रवाह रहा है। यह एक ऐसी सामाजिक संरचना है जिसकी अन्यत्र मिसाल मिलना भी कठिन है। गौरतलब है कि दुनिया में “भील” संभवतः एकमात्र ऐसा समुदाय है जिसमें कि पति अपनी पत्नी का प्रसव कराता है और जिसके अपने कुम्हार हैं। इतना ही नहीं करीब 4 शताब्दियों तक यहां भील शासकों ने शासन भी किया है। गौरतलब है कि नर्मदा के कुल जलग्रहण क्षेत्र का 86.8 प्रतिशत मध्यप्रदेश में आता है और इस नदी में आने वाले जल में से 99.5 प्रतिशत भी मध्यप्रदेश से ही मिलता है। परंतु सरदार सरोवर बांध के लिए बने जलाशय में से एक बूंद भी पानी लेने की अनुमति मध्यप्रदेश की जनता को नहीं है। नर्मदा से केवल 2 कि.मी. की दूरी पर स्थित गांव सोंडुल में सिंचाई का पानी 240 कि.मी. की दूरी तय करके आंेकारेश्वर की नहरों से आएगा। यह है विकास की हमारी आधुनिक अवधारणा।
सरदार सरोवर बांध से विस्थापित समुदाय को पांच श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं। ये है, मध्यप्रदेश से मध्यप्रदेश में, मध्यप्रदेश से गुजरात में, महाराष्ट्र से महाराष्ट्र में, महाराष्ट्र से गुजरात और गुजरात से गुजरात में विस्थापित। पुनर्वास नीति में भू-स्वामियों को जमीन के बदले जमीन का प्रावधान था। जबकि भूमिहीनों, छोटे दुकानदारों व अन्य के लिए भी विशिष्ट प्रावधान हैं। तमाम विसंगतियों के बावजूद सरदार सरोवर बांध परियोजना दुनिया की एकमात्र जलविद्युत परियोजना है जिसमें करीब 14,000 विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन मिली है। यह संभव हो पाया है इस समुदाय की सामाजिक चेतना और नबआ की सचेतनता की वजह से। इसके अन्तर्गत मध्यप्रदेश के 5,500 विस्थापितों और महाराष्ट्र के 700 विस्थापितों को और गुजरात के 4,300 विस्थापितों को गुजरात में जमीन के बदले जमीन मिली। महाराष्ट्र में स्थानीय 4,000 विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन मिली। वहीं मध्यप्रदेश जहां कि 50,000 से अधिक परिवार विस्थापित हांेगे, में से अब तक केवल 54 व्यक्तियों को मध्यप्रदेश में जमीन के बदले जमीन मिल पाई है।
पुनर्वास नीति में साफ लिखा है कि विस्थापित समुदाय की स्थिति उसने नये आवास में पूर्व में बेहतर होना चाहिए। परंतु ऐसा नहीं हो पाया। नीति के अनुसार एक गांव या बस्ती को एक इकाई (यूनिट) मानकर एक साथ बसाया या पुनर्वासित किया जाना चाहिए। जबकि वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। अधिकांश पुनर्वास डूब के हिसाब से हुआ। डूब में कोई क्षेत्र आया जिसमें पिता और पुत्र की संपत्ति में 5 मीटर ऊँचाई का अंतर है तो जाहिर है पहले निचली संपत्ति डूबेगी। ऐसे में उन्हें वहां से कहीं और ले जाकर बसा दिया। कुछ वर्ष पश्चात अन्य संपत्ति डूब में आने की स्थिति में उसे एक अन्य पुनर्वास बस्ती में बसाया गया। गई मामलों में यह दूरी 150 से 200 किलोमीटर तक है। इससे इनका आपस में मिल पाना कमोवेश असंभव सा हो गया और अंततः उनकी सामाजिक व्यवस्था व संस्कृति ही संकट में पड़ गई। मध्यप्रदेश के आदिवासी अलिराजपुर व झाबुआ जिले के निवासियों को गुजरात के बड़ौदा, खेड़ा आदि गांवों की पुनर्वसन बस्तियों में भेजा गया।
बाबा महरिया ने अपनी अपनी चिट्ठी में लिखा था, “हम गुजरात जाएंगे तो हमें बड़े-बड़े जमीन वाले पाटीदार और बनियों के साथ रहना होगा। वे हमें दबाएंगे भी। गुजरात में तो वहीं रहने वाले आदिवासियों की जमीनें छीन ली थीं। आज भी छीन रहे हैं। पहले तो वहां भी आदिवासियों की बस्ती ही थीं। फिर हम तो अनजाने लोग हैं। हमें न तो वहां की बोली आती है और न कायदा कानून। सम्पर्क और राज भी उन्हीं बड़े लोगों का है। इतनी लागत की खेती यदि हमसे न हो तो पैसे के लिए हमें उनके पास जमीनें गिरवी रखनी पड़ेगी और धीरे-धीरे वे हमारी जमीन छीन लेंगे। वहां के खास रहने वालों की छीन ली हैं, तो हमारी कैसे छोड़ेंगे।”
उनकी यह भविष्यवाणी अक्षरशः सही साबित हुई है। गुजरात के बड़ौदा जिले के डबोई तालुका की करनेट वसाहट क्रमांक-1 इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। यहां गुजरात के ही विस्थापितों, जिनमें राठवा और तड़वी शामिल हैं, को बसाया गया था। यहां लोगों का कहना है कि हमे मूल स्थान में फल, सब्जी और लकड़ी के अलावा 11 तरह का अन्न मिल जाता था। महुआ से तेल भी निकाल लेते थे और यहां कपास, मक्का, गेहूं, चावल और अरंडी! चावल! इसलिये क्योंकि खेत के कुछ हिस्सो में हमेशा दलदल बना रहता है। इस समुदाय का नकद फसलों से कोई लेना देना नहीं था। यानी बाजार उनके विचार में ही नहीं था। ठीक वैसे ही भाषा का अलग होना भी विध्वंसकारी साबित हुआ है। धरमपुरी बस्ती में न तो सिंचाई की सुविधा और जमीने डाब (जंगली घास) से भरी होकर बंजर है।
मध्यप्रदेश से लाकर बसाए गए समुदाय की स्थिति तो और भी चिंतनीय है। खेड़ा जिले की कपड़वंज तहसील के ग्राम ठाकुरकंपा की भूतिया बसाहट कुछ नया ही सामने लाती है। यहां स्थानीय पटेलों आदि से जमीनें खरीदकर दी गई हैं। परंतु व अभी भी इस पर अपना हक जमाते हैं। नए बसे लोगो को चोर मानते हैं। बेवजह पुलिस में शिकायत करते हैं। पुलिस भी इन्हीं का साथ देती है। इनकी जमीनों पर अवैध कब्जा हो रहा है। परंतु लाचार हैं। नदी किनारे रहने वाले समुदाय आज खरीदकर मछली खा रहा है। दबाव व खेती की बढ़ती लागत के चलते अपने खेत वार्षिक किराये पर देकर ये लोग बड़ौदा, राजकोट, अहमदाबाद, सूरत आदि स्थानों पर मजदूरी के लिए पलायन कर रहे हैं। यानी विस्थापन को साथ पलायन का दोहरा अभिषाप झेल रहे हैं। कुछ को पत्थर पीसने वाले कारखानों में मजदूरी करना पड़ रही है और कई लोग सिलिकोसिस जैसी लाइलाज बीमारी का शिकार हो रहे है।
महाराष्ट्र की पुनर्वास वसाहटो को देखकर साफ नजर आता है कि आंतरिक विस्थापन भी अपने साथ सामाजिक व आर्थिक विनाश लेकर ही आता है। जितनी भी पुनर्वास बस्तियों को देखा उनमें नंदूरबार जिले की वड़छिल सर्वश्रेष्ठ दिखाई दी। वास्तविकता तो यही है कि पारंपरिक खेती के स्थान पर इन्हें जिस तरह की नवाचार व उद्योग आधारित खेती ओर झुकना पड़ा उसने इन्हें गले-गले तक कर्जे में डाल दिया है। इनका कहना है वहां नदी नजदीक थी और बाजार दूर था और यहां हम बाजार के बीच में पड़े हैं और नदी का तो नामो निशान नहीं है। इतना ही नहीं पानी भी 300 फुट नीचे से खींचना पड़ता है। एक अन्य परिवर्तन यह है कि अब इन्हें पूरी तरह से आधुनिक चिकित्सा पद्धति पर निर्भर रहना पड़ता है।
मध्यप्रदेश जहां सर्वाधिक 194 गांव और धरमपुरी कस्बा डूब में आ रहे हैं, में तो स्थायी मातम जैसा माहौल बना रहता है। सरकारों द्वारा बैकवाटर स्तर लगातार घटाने-बढ़ाने से अनिश्चितता बनी रहती है। बरसों से डूब से सशंकित समुदाय को पता चलता है कि अब वह इससे बाहर है और कुछ ही समय बीतने पर पता चलता है कि यह तय नहीं है। जहां पर अभी पहाड़ी क्षेत्रों जहां आदिवासी ज्यादा निवास करते है, वहां डूब का ज्यादा प्रभाव पड़ा है। परंतु इन आदिवासियों ने अपना निवास नहीं छोड़ा। वे बढ़ते जलस्तर के साथ ही साथ पहाड़ों की ऊँचाई पर बसते जा रहे हैं।
स्थिति यह है कि उन्हें पीने का पानी लाने के लिए इतनी मशक्कत करना पड़ती है कि अब वे गधों पर लादकर पानी ऊपर लाते हैं। ककराना से जब मोटरबोट में बैठकर इन टापुओं जैसे पहाड़ो पर बसी बस्तियों का सफर करना शुरु करते हैं तो साथ में बैठे लोग नीचे प्रलयरूपी तालाब की ओर देखते हुए बताते हैं, देखिए यहां मेरा गांव था। थोड़े आगे बताते हैं यहां मेरा घर था। यहां नदी का घाट था। यहां मंदिर था। इस जगह घना जंगल था। सुनकर अंदर तक आत्मा कांप जाती है कि आधुनिक विकास का प्रलय किस कदर डरावना है। वैसे मध्यप्रदेश की पुनर्वास बस्तियां आबादी के अभाव और घटिया निर्माण की वजह से कमोवेश बसने के पूर्व ही खंडहर में बदलती जा रही हैं। फर्जी रजिस्ट्रयों और निर्माण कार्य की जांच के बने न्यायमूर्ति (से.नि.) एस. एस. झा आयोग ने भी सरकार व नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण को खूत लताड़ा लगाई है। परंतु मोटी चमड़ी पर कोई असर नहीं।
नर्मदा घाटी में सरदार सरोवर बांध के जलाशय से विस्थापन आई डूब ने दुनिया की सबसे पुरानी नदी घाटी सभ्यताओं में से एक के पुरातात्विक प्रमाणों को भी अपने में लीलने का निश्चत कर लिया है। नदी के ऊपर निर्भर मछुआरों, किसानों, कुम्हारों आदि की सामाजिक संरचना में आमूूलचूल परिवर्तन आया है। नदी के तालाब में परिवर्तित होने से यहां मछलियों और अन्य जलीय जन्तुओं की तमाम नस्ल समाप्त हो गई हैं। मछलियों का आकार छोटा हो गया है। और गुणवता में गिरावट आई है। उनकी संख्या में कमी आने से मछुआरों की आमदनी भी कम हुई है।
नर्मदा किनारों पर गाद भर जाने से पीने के पानी की उपलब्धता के अलावा तरबूज, खरबूज, ककड़ी आदि की खेती करने वाले किसान भी बेरोजगार हो गए है। ऐसा ही कुम्हारों के साथ भी हो रहा है। इस सबके बीच भूमिहीन श्रमिक तो कही गिनती में ही नहीं हैं जिनकी जीविका का आधार ही बेदखल हो गया है। इस बदले परिवेष का सबसे अधिक खामियाजा महिलाओं को भुगतना पड़ रहा है। विस्थापन और विभ्रम की सबसे गहरी चोट उन्हें ही पहुंची है। मूल निवास में उनको जो स्थान व सम्मान था वह अब न्यूनतम हो गया है। देखते ही देखते एक पूरी सभ्यता नष्ट होने के कगार पर पहुंच गई है। नर्मदा घाटी के एक बड़े हिस्से का सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवेश अब इतिहास की ऐसी गर्त में जाने को तैयार बैठा है, जिसका कोई लेखा-जोखा भी नहीं रखा गया है।
15 जनवरी 1961 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने एक बटन दबाकर नदी की दूसरी ओर विस्फोट कर इस परियोजना का निर्माण कार्य प्रारंभ किया था। आज 55 साल बाद भी परियोजना पूरी नहीं हो पाई है। यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि इन बांधो से देश की तस्वीर कितनी बदली और कितना प्रकाश फैला। परंतु यह तो तय है कि इन बांधों व जलविद्युत परियोजनाओं ने लाखों लोगों का जीवन व घर दोनों को अंधकारमय बना दिया है। उनका सामाजिक आर्थिक तानाबाना नष्ट कर दिया है। सम्मानित कवि अज्ञेय ने लिखा है,
जे पुल बनाएंगे/वे अनिवार्यतः
पीछे रह जाएंगे
सेनाएं हो जाएंगी पार/मारे जाएगें रावण
जयी होंगे राम
जो निर्माता रहे/इतिहास में
बंदर कहलाएंगे।
“मुझे सौ साल पहले जन्म लेना चाहिए था जब नर्मदा का सौंदर्य अक्षुण्ण था। जब हमने इसके घने जंगलों को काटा नहीं था। जब नर्मदा अबाध गति से प्रवाहित होती थी”
नर्मदा की पहली पदयात्रा वर्ष 1977 में शुरू की थी। इसमें करीब पंद्रह साल लगे। क्योंकि यह यात्रा टुकड़ों में होती रही। फिर अगली यात्रा मैंने और मेरी पत्नी ने वर्ष 2002 में शुरू की जो करीब छह साल चली। पहली यात्रा में मैंने पौने तीन हजार किलोमीटर की यात्रा की थी। दूसरी यात्रा में करीब सवा एक हजार किलोमीटर की यात्रा पूरी की।
दोनों यात्राएं करीब पच्चीस सालों के अंतराल पर हुईं। इन यात्राओं के अनुभव के आधार पर मैंने तीन किताबें लिखीं। इस दरम्यान नर्मदा के किनारे की जगहों में बहुत परिवर्तन हुआ। अच्छा और बुरा दोनों तरीकों का। जैसे पहले सड़कें नहीं थी, स्कूल नहीं थे। दूसरी यात्रा में यह सब मिला। नर्मदा के किनारे सारे गांव ऊपर बसे हैं। हम दिन भर की यात्रा के बाद थके-हारे शाम को जब किसी गांव में ठहरते थे। और पानी की छोटी-मोटी जरूरत के लिए वापस नीचे आना अखरता था। अब हरेक गांव में चापाकल लग गया। इन्हीं सारे अनुभव के आधार पर मैंने ये किताबें लिखी थी। बतौर चित्रकार और साहित्यकार मेरी यात्रा धार्मिक न होकर सांस्कृतिक थी।
पहली किताब ‘सौन्दर्य की नदी नर्मदा’ जिसका अंग्रेजी अनुवाद भी हुआ। दूसरी ‘अमृतस्य नर्मदा’ और तीसरी ‘तीरे तीरे नर्मदा’। शुरुआती दोनों किताबें नर्मदा के सौंदर्य से प्रभावित हैं। वहीं तीसरी किताब में सौंदर्य खुद-ब-खुद गायब हो गया। इसमें पर्यावरण की चिंता अधिक बढ़ती गई। तीसरी यात्रा के दरम्यान देखने को मिला कि पेड़-पौधे बेधड़क काटे जा रहे हैं। मूर्तियां विसर्जित की जा रही हैं। ऐसा नहीं कि पहले मूर्तियां विसर्जित नहीं की जाती थीं। बदलाव के बतौर यह था कि अब की मूर्तियां मिट्टी की न होकर प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी होती थीं। उस पर इस्तेमाल होने वाले रंग में रसायन मिला होता था, जो पानी में रहने वाले जीवों के लिए नुकसानदायक था।
पहले गोंड और बैगाओं के खूब लोकगीत सुनने को मिलते थे। बतौर चित्रकार, मैं उनके द्वारा बनाए गए भीतचित्र और रंगोली से अभिभूत था। उसमें लोक संस्कृति पर अत्यधिक बल होता था। नर्मदा के तट पर कई मेले लगते हैं। उन मेलों में लोग बम्बुलिया गाते हुए जाते हैं। बम्बुलिया में नर्मदा की महिमा गाई जाती है। इन मेलों में पहले लोग बैलगाड़ी से जाते थे और अब लोग ट्रेक्टर और ट्राली से जाते हैं। भीतचित्र तो गायब ही हो गए हैं और रंगोली का भी विषय बदलने लगा है। इन सब चीजों पर पोपुलर संस्कृति का असर अधिक दिख रहा है, जिसमें हिंदी सिनेमा की भी अहम भूमिका है।
जंगल के कटने से नर्मदा के किनारों का क्षरण हुआ। ये जंगल ही हैं जो बादलों को बुलाने के लिए हैलीपैड का काम करते हैं। नदी तो कहती है कि तुम मुझे जंगल दो हम तुम्हें पानी देंगे। यह नदी कोई पहाड़ से बर्फ पिघलने से थोड़ी न शुरू होती है। और फिर गर्मी के दिनों में भी इस नदी में पानी का मौजूद होना सामान्य बात नहीं है।
पानी आज भी उतना ही है, जितना डायनासोर के जमाने में था। एक बूंद कम नहीं हुआ है। िफर पानी को लेकर यह मारा-मारी क्यों हैं। युद्ध की स्थिति क्यों आ गई है। क्योंकि उसकी खपत बहुत ज्यादा बढ़ गई है। आबादी बहुत ज्यादा बढ़ गई है। कल-कारखानों, उद्योग-धंधों सबको पानी चाहिए। दुिनया के सारे देश जो खुशहाल हैं, उन्होंने अपनी जनसंख्या पर नियंत्रण रखा है। इसलिए वे खुशहाल हैं। जब हम आजाद हुए तब से खपत चार गुना ज्यादा बढ़ गई है। इतना पानी कहां से आएगा। चार गुना पानी बरसता तो नहीं है। जंगल काट डाले आपने। पानी तो अब और कम बरस रहा है। तो फिर नदियां प्रदूषित होंगी ही, पानी को लेकर युद्ध होंगे ही। लोग यह नहीं समझ रहे हैं कि पानी का कोई विकल्प नहीं है। ऊर्जा के कई विकल्प हैं। अगर पेट्रोल नहीं है तो डीजल है, डीजल नहीं है तो गैस है। सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा है। न दूध, न शहद, कोई पानी का विकल्प नहीं है। पानी की एक-एक बूंद मूल्यवान है। इसलिए हमको लोगों को समझाना होगा कि रसायन न केवल नदियों को प्रदूषित करते हैं, बल्कि वो रिसकर जमीन में जाते हैं और जो भूगर्भ जल है उसे भी विषाक्त करते हैं।
कभी-कभी मैं अपने-आप से पूछता हूं, जोखिम भरी यात्राएं मैंने क्यों की? हर बार मेरा उत्तर होता, अगर मैं यात्रा न करता, तो मेरा जीवन व्यर्थ चला जाता। जो जिस काम के लिये बना होता है, उसे वह काम करना ही चाहिए।
(अमृतलाल वेगड़ से हुई बातचीत पर आधारित)