इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई
प्रदूषण

प्रदूषण और घटती संवेदनशीलता: मानवता के लिए खतरे की घंटी

वातावरण में फैलता प्रदूषण जीवों की संवेदी क्रियाओं के साथ उससे जुड़ी महत्वपूर्ण गतिविधियों को प्रभावित कर रहा है

Kushagra Rajendra, Vineeta Parmar

मनुष्य अपने पांच संवेदी अंगों के साथ सिर्फ और सिर्फ अंगूठे की वजह से दूसरे जीवों पर शासन का हक समझ बैठा है। जबकि संवेदी अंगों, उससे जुड़ी सूचना के आदान-प्रदान और उसके उपयोग में हमारी क्षमता एक चींटी जितनी भी नहीं है।

बाहरी वातावरण से निकलने वाली संवेदी सूचनाओं (जिसमें सूंघना, सुनना और देखना शामिल है) को पहचान पाने के मामले में मनुष्य तुलनात्मक रूप से अन्य जीवों के मुकाबले कमजोर नजर आता है। एक चींटी को खाने के सामान के होने की गंध दूर से ही लग जाती है, मछलियों को समुद्र में दूर उठने वाले सुनामी की खबर होती है, कुत्ते की मनुष्य से 30 गुणी ज्यादा सूंघने और उसे स्मरण कर प्रतिक्रिया करने की क्षमता से तो हम सब वाकिफ ही हैं।

वहीं उल्लू, चमगादड़ सहित कई जीव बाहरी वातावरण में इस कदर संवेदन (सेंसेशन) क्षमता से मजबूत होते हैं कि इन्हें रोजमर्या के कार्यों के लिए प्रकाश तक की जरूरत नहीं होती।

प्रकृति में प्राणियों के बीच सूचना का आदान-प्रदान रोज के कार्यों का महत्वपूर्ण भाग है जो हजारों-लाखों साल में जगह और वातावरण के हिसाब से विकसित हुए हैं। आवाज, दृश्य या गंध के रूप में सूचना का आदान-प्रदान एक जटिल पर प्रभावी तरीका है जिसमें गलती की गुंजाइश नहीं होती।

सूचना बहुत ही खास तरीके के उत्तेजक या प्रेरक के रूप में उत्पन्न होती है और आवाज, दृश्य या गंध के रूप में प्रसारित होकर किसी खास जीव जो लक्ष्य होता है, द्वारा ग्रहण की जाती है। वातावरण में फैलता प्रदूषण जीवों की इसी संवेदी क्रियाओं (सेंसरी एक्शन) के साथ उससे जुड़ी महत्वपूर्ण गतिविधियों यथा फसल उत्पादन और फूलों के निषेचन आदि को प्रभावित कर रहा है।

हर जीवित प्राणी की दिनचर्या एक खास समयबद्ध और नियम अनुसार चलती है, जिसे तकनीकी शब्दावली में “सरकेडियन रिदम” कहते हैं जो एक जैविक घड़ी की तरह काम करती है। आज हमारी यातायात प्रणालियां, हमारे शहर, आधुनिक कृषि पद्धति, औद्योगिकीकरण आदि से जीवों का प्राकृतिक अधिवास कम हो रहे हैं।

शहरों की रोशनी की चकाचौंध जो रात में चंद्रमा और सितारों के नैसर्गिक रोशनी की असफल नकल करती है या फिर उन्हें ढंक दे रही है। इससे जानवरों और पक्षियों के न सिर्फ सोने-जागने के समय पर प्रभाव पड़ा है, बल्कि ठीक से सोने की क्षमता भी घटी है, यानी उनकी पूरी दिनचर्या या सरकेडियन रिदम या शरीर के नैसर्गिक रूप से काम करने में सहायक जैविक घड़ी का तारतम्य बिगड़ता जा रहा है।

जंगलों में मानवीय घुसपैठ ने बेजा आवाज, प्रकाश आदि पैदा कर जानवरों के सोने-जागने के साथ उनके जीवनयापन के लिए महत्वपूर्ण शिकार करने की क्षमता, पर नकारात्मक रूप से असर डाला है। बड़े-बड़े गगनचुंबी घरों और उन पर लगे शीशे की दीवार ने पंछियों के उड़ने के रास्ते में खलल डालने के साथ-साथ उन्हें भ्रम में भी डाल रखा है। शहरों में इमारतों से टकरा कर पक्षियों के मरने की घटनाएं आम हो चली हैं। यहां तक कि लम्बी दूरी के प्रवासी पंछी भी रास्ते के निर्माण कार्य, शहरों की चकाचौंध भरी रोशनी, हाईवे की कानफोडू आवाज आदि से अपना रास्ता भटक जाते हैं।

दूसरी तरफ विभिन्न उद्योगों और खेती से निकलने वाले रासायनिक गैसें और वायु-प्रदूषण पेड़-पौधों की अति-संवेदनशील प्रक्रिया परागण और निषेचन पर असर डालने लगे हैं। विभिन्न मानव जनित प्रक्रिया जिसमें वायु-प्रदूषण, फैक्ट्रियों से निकलने वाला धुआं, खेती-बड़ी में इस्तेमाल होने वाला कीटनाशक और खाद आदि शामिल हैं, फूलों से निकलने वाली गंध से मिलकर उसकी कीट पतंगों को आकर्षित करने की क्षमता काफी घटा देती है। यहां तक ये रसायन कीट पतंगों के प्रजनन को भी प्रभावित करते हैं।

नतीजा, गंध की तीव्रता तो कम होती ही है और कीट पतंगों की सूंघने की क्षमता भी घट जाती है। इस प्रकार संवेदी प्रदूषण की दोहरी मार परागण और निषेचन में कमी के फलस्वरूप फसल, फल-फूल का उत्पादन प्रभावित करता है। साथ ही साथ सूंघने वाले अंग की क्रियाशीलता में कमी के कारण जानवरों की प्रजनन, व्यवहार और अन्य जानवरों के साथ तारतम्य सहित तमाम जीवन-यापन की प्रक्रियाएं नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रही है।

आने वाले भूकंप, सुनामी या आंधी-तूफान का पूर्वानुमान होने पर गली-मोहल्ले में कुत्ते रोने लगते थे, लेकिन आजकल जानवरों के इस व्यवहार में भी बदलाव देखा जा सकता है। यहां तक कि कीटनाशकों के अधिक प्रयोग का असर को चींटियों के सामाजिक जीवन और तितलियों के व्यवहार में हो रहे परिवर्तन से जोड़ के देखा जा सकता है।

हाल के एक शोध में पाया गया है कि धरती की सतह वाली ओजोन और नाइट्रेट रेडिकल्स जैसे सामान्य वायु प्रदूषक, मॉथ के द्वारा होने वाली परागण की क्षमता को काफी हद तक कम कर देता है, जिसमें ओजोन के मुकाबले नाइट्रेट रेडिकल्स को ज्यादा प्रभावी पाया गया। इन प्रदूषकों ने सुगंध के लिए जिम्मेदार रासायनिक अणुओं से प्रतिक्रिया कर उनकी संख्या और प्रभाव दोनों घटा देती है, जिसके कारण न सिर्फ सुगंध का प्रसार दूर तक नहीं हो पाता हो बल्कि आसपास के बहुत कम मॉथ को ही फूल आकर्षित कर पाता है।

इससे कीट पतंगों के फूलों तक आने की आवृति घटती है। सुगंध के रसायन में ही वायु-प्रदूषण के कारण में हुए बदलाव से न सिर्फ निषेचन कम हुआ बल्कि फूल और पौधे का स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है। इस विषय पर एक और शोध के मुताबिक, शहरी क्षेत्र में लगातार वायु प्रदूषण के कारण कीट पतंगों द्वारा फूलों की महक को महसूस करने की प्रभावी दूरी और क्षमता घटी है। अब ये कीट अपनी क्षमता से इतर थोड़ी सी भी ज्यादा दूरी होने से फूलों की महक को महसूस नहीं कर पाते हैं।

लगातार बढ़ते शोरगुल और ध्वनि से मनुष्य सहित तमाम जीवों के दिमाग और शरीर के आंतरिक और बाह्य नियंत्रण प्रणाली प्रभावित होती है। मौजूदा समय में हजारों की संख्या में होने वाले ऑयल ड्रिल्स, समुद्री यातायात, व्यापार के लिए इस्तेमाल होने वाले जलयान की वजह से जमीन के मुकाबले शांत समुद्र में गैर जरूरी शोरगुल का स्तर प्रभावी रूप से बढ़ा है। समुद्र में, खास कर गहरे समुद्र में प्रकाश के अभाव में समुद्री जीवन में सूचना प्रणाली मुख्य रूप से ध्वनि आधारित ही विकसित हुई है। समुद्र में बढ़ती आवाज ने जलीय जीवों की आपसी संचार प्रणाली, जो कम स्तर के खास किस्म की आवाज पर आधारित होती है, को असंतुलित करने लगा है। सबसे अधिक असर गहरे समुद्री बड़े जीव जिसमें ह्वेल, डॉल्फिन, शार्क आदि शामिल हैं, के खानपान की आदतों, प्रजनन और माइग्रेशन के तरीके में बदलाव देखा गया है। हाल के एक अध्ययन के मुताबिक, केवल समुद्री यातायात के कारण विश्व की सबसे बड़ी परभक्षी ह्वेल की संख्या में एक-चौथाई तक की कमी आई है। अवांछित शोरगुल जंतु ही नहीं पेड़-पौधों तक को अपने शिकार बना रहे हैं। कैलिफोर्निया पॉलिटेक्निक स्टेट यूनिवर्सिटी के एक शोध के अनुसार, ध्वनि प्रदूषण, शोर समाप्त होने के बाद भी पौधों के जीवन की विविधता पर प्रभाव डालता रहता है। ध्वनि प्रदूषण एक साइलेंट किलर की तरह मानवीय मनोदशा के साथ पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं के परासंवेदी क्रियाओं पर मारक प्रहार डाल रहा है और बढ़ते शोर के साथ गुणात्मक रूप से बढ़ भी रहा है।

प्रदूषकों का यह प्रभाव कहीं वृहत् स्तर पर है तो कहीं बहुत ही सूक्ष्म, पर बीतते समय के साथ प्रभावी होता जा रहा है। इस बात को मानने में कोई दुविधा नहीं कि हमारे परासंवेदी अंगों की क्षमता में बढ़ोतरी की जगह कमी हुई है जो आने वाले समय के लिए खतरा है। हम बड़े ही सूक्ष्म तरीके से प्रकृति को एक नए किस्म के संवेदी प्रदूषण से दो चार कर रहे हैं, कही न कहीं यह एक प्रकार का असंतुलन है जो आने वाले समय के लिए एक नए किस्म की खतरे की घंटी है।

(कुशाग्र राजेंद्र एमिटी विश्वविद्यालय हरियाणा के स्कूल ऑफ अर्थ एंड एनवायरमेंट साइंस के प्रमुख व विनीता परमार विज्ञान शिक्षिका एवं “बाघ विरासत और सरोकार” पुस्तक की लेखिका हैं)