प्रदूषण

आपके बच्चों के बौद्धिक विकास को प्रभावित कर सकता है सड़कों पर बढ़ता शोर

Lalit Maurya

क्या आप जानते हैं कि शहरों में सड़क यातायात से होने वाला ध्वनि प्रदूषण स्कूल जाने वाले छोटे बच्चों के लिए कहीं ज्यादा हानिकारक है। बच्चों पर की गई एक रिसर्च से पता चला है कि ट्रैफिक से जुड़ा यह शोर बच्चों में याददाश्त और ध्यान एकाग्र करने की क्षमता को प्रभावित कर सकता है।

देखा जाए तो वायु प्रदूषण के बाद शोर, स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाला दूसरा सबसे बड़ा पर्यावरणीय कारक है। जो व्यस्क लोगों में दिल के दौरे से लेकर मधुमेह तक का कारण बनता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार शोर का उच्च स्तर इंसानी स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुंचा सकता है। यह ऑफिस, घर और यहां तक की स्कूलों में बच्चों की दैनिक गतिविधियों को प्रभावित कर सकता है।

यह लोगों की नींद पर असर डालता है जिसके कार्डियोवैस्कुलर और साइकोफिजियोलॉजिकल प्रभाव पैदा होते हैं। जो लोगों के प्रदर्शन को प्रभावित कर सकते हैं।  इतना ही नहीं इसकी वजह से झुंझलाहट आदि होती है जो सामाजिक व्यवहार में बदलाव ला सकती है। डब्लूएचओ के अनुसार यूरोपियन यूनियन की लगभग 40 फीसदी आबादी 55 डेसीबल से ज्यादा ट्रैफिक से जुड़े शोर के सम्पर्क में है।

यह रिसर्च बार्सिलोना इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ द्वारा की गई है, जिसमें बार्सिलोना (स्पेन) के 38 स्कूलों स्कूलों में पढ़ने वाले 2,680 बच्चों को शामिल किया गया था। इन बच्चों की उम्र सात से 10 वर्ष के बीच थी और यह सभी प्राथमिक कक्षाओं में पड़ते थे।

यातायात के कारण होने वाले शोर का बच्चों के बौद्धिक विकास पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसके आंकलन के लिए शोधकर्ताओं ने याददाश्त और ध्यान एकाग्रित करने की क्षमता पर अपना ध्यान केंद्रित किया है।  गौरतलब है कि मनुष्य में यह दोनों क्षमताएं किशोरावस्था के दौरान तेजी से विकसित होती हैं और बच्चों के सीखने और पढ़ने के लिए अत्यंत जरुरी होती हैं। 

देखा जाए तो यहां एकाग्रचित्त होने का तात्पर्य किसी विशेष कार्य पर लम्बे समय तक ध्यान केंद्रित करना और उसमें भाग लेना शामिल है। वहीं याददाश्त, वर्किंग मेमोरी से जुड़ी प्रणाली है जो हमें सूचनाओं को दिमाग में रखने और थोड़े समय में उसमें हेरफेर करने की अनुमति देती है। जब भी हमें किसी जानकारी को दिमाग में रखने और प्रभावी ढंग से उसमें हेरफेर और बदलाव करने की जरुरत होती है तो हमारा दिमाग उसे वर्किंग मेमोरी में रखता है। 

जर्नल प्लोस मेडिसिन में प्रकाशित यह रिसर्च 12 महीनों तक चली थी, जिसके दौरान इसमें भाग लेने वाले बच्चों ने चार बार संज्ञानात्मक परीक्षण पूरा किया था। इन परीक्षणों का उद्देश्य न केवल उनकी वर्किंग मेमोरी और ध्यान एकाग्र करने की क्षमता का आंकलन करना था, बल्कि समय से साथ उसके विकास को भी समझना था। इस अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने स्कूल के भीतर कक्षा में, खेल के मैदान में और स्कूल के सामने होने वाले शोर को मापा था।

न केवल तेज शोर बल्कि उसमें आने वाला उतार-चढ़ाव भी डालता है असर

साल भर तक चले इस अध्ययन में जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनके अनुसार जिन स्कूलों के पास ट्रैफिक सम्बन्धी शोर बहुत ज्यादा था, वहां बच्चों में वर्किंग मेमोरी और ध्यान एकाग्र करने की क्षमता का विकास धीमा था।

उदाहरण के लिए दूसरे बच्चों की तुलना में जो बच्चे 5 डेसीबल ज्यादा ट्रैफिक शोर के सम्पर्क में आए थे उनकी स्मरणशक्ति में होने वाला विकास सामान्य से 23.5 फीसदी धीमा था। इसी तरह शोर में अतिरिक्त पांच डेसीबल की वृद्धि ने बच्चों की ध्यान एकाग्र करने की क्षमता में होने वाले विकास को करीब 4.8 फीसदी धीमा कर दिया था।

इतना ही नहीं शोध में जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनके अनुसार स्कूलों के बाहर भारी शोर और शोर के कम ज्यादा होने के कारण दोनों ही स्थितियों में बच्चों की बौद्धिक क्षमता पर बुरा असर पड़ा था। इसकी वजह से बच्चों के प्रदर्शन पर असर दर्ज किया गया था। कक्षा के भीतर शोर के स्तर में आने वाला उतार-चढ़ाव के चलते वर्ष के दौरान बच्चों की संज्ञानात्मक क्षमता पर बुरा असर पड़ा था।

इसी तरह अधिक शोर-शराबे वाली कक्षाओं के बच्चों ने दूसरे बच्चों की तुलना में जिनके स्कूल में ध्वनि प्रदूषण कम था, ध्यान एकाग्र करने के मामले में खराब प्रदर्शन किया था। हालांकि इसका प्रभाव वर्किंग मेमोरी से जुड़े परीक्षणों पर नहीं पड़ा था।  

इस बारे में शोध से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता मारिया फोस्टर का कहना है कि कक्षा के अंदर भारी शोर, औसत डेसिबल स्तर की तुलना में बच्चों के न्यूरोडेवलपमेंट के लिए कहीं ज्यादा नुकसानदेह हो सकता है। उनके अनुसार यह महत्वपूर्ण है क्योंकि शोर के लक्षण, शोर के औसत स्तरों की तुलना में कहीं ज्यादा असर डाल सकते हैं। हालांकि इस तथ्य के बावजूद इस शोर से जुड़ी वर्तमान नीतियां केवल औसत डेसिबल पर आधारित हैं।

वहीं शोध से जुड़े एक अन्य शोधकर्ता जोर्डी सनयर का कहना है कि बचपन, अत्यंत संवेदनशील होता है, जिसके दौरान बाहरी उत्तेजना जैसे शोर किशोरावस्था से पहले होने वाले संज्ञानात्मक विकास की तीव्र प्रक्रिया को प्रभावित कर सकता है।