कोविड- 19 एक ऐसी समस्या है जिसने हमारा पूरा ध्यान खींच रखा है। हालात ऐसे हो चुके हैं कि हम उन चीजों के बारे में बेखबर हो चले हैं जो हमारे भूतकाल का हिस्सा होने के साथ साथ हमारे भविष्य के निर्माण के लिए भी जिम्मेदार हैं। हमारे जीवन में ऐसा ही एक मुद्दा है प्लास्टिक का। यह एक सर्वव्यापी पदार्थ है जो हमारी भूमि और महासागरों में फैलकर उन्हें प्रदूषित करता है और हमारे स्वास्थ्य संबंधी तनाव में इजाफा करता है। वर्तमान में चल रही स्वास्थ्य आपातकाल जैसी स्थिति ने प्लास्टिक के उपयोग को सामान्य कर दिया है क्योंकि हम वायरस के खिलाफ सुरक्षा उपायों के रूप में अधिक से अधिक उपयोग करते हैं। दस्ताने, मास्क से लेकर बॉडी सूट तक जैसे प्लास्टिक प्रोटेक्शन गियर कोविड-19 के खिलाफ इस युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका अवश्य निभा रहे हैं लेकिन अगर इस मेडिकल कचरे को ठीक से नियंत्रित एवं प्रबंधित नहीं किया गया तो यह हमारे शहरों के कूड़े के पहाड़ों की संख्या में इजाफा ही करेगा।
प्लास्टिक की राजनीति का पूरा किस्सा पुनर्चक्रण नामक एक शब्द में सन्निहित है। वैश्विक उद्योग जगत ने यह तर्क लगातार सफलतापूर्वक दिया है कि हम इस अत्यधिक टिकाऊ पदार्थ का उपयोग करना जारी रख सकते हैं क्योंकि इसका एक बार प्रयोग कर लिए जाने के बाद भी प्लास्टिक को रीसाइकिल किया जा सकता है। हालांकि यह अलग बात है कि इसका अर्थ सबकी समझ से परे है। वर्ष 2018 में चीन ने पुन: प्रसंस्करण के लिए प्लास्टिक कचरे के आयात को रोकने के लिए नेशनल सोर्ड पॉलिसी तैयार की जिसके फलस्वरूप कई अमीर देशों का कठोर वास्तविकताओं से सामना हुआ। प्लास्टिक कचरे से लदे जहाजों को मलेशिया और इंडोनेशिया सहित कई अन्य देशों ने अपने तटों से वापस कर दिया था। यह कचरा किसी के काम का नहीं था। हर देश के पास पहले से ही प्लास्टिक का अंबार है।
आंकड़े बताते हैं कि 2018 के प्रतिबंध से पहले यूरोपीय संघ में रीसाइक्लिंग के लिए एकत्र किए गए कचरे का 95 प्रतिशत और संयुक्त राज्य अमेरिका के प्लास्टिक कचरे का 70 प्रतिशत चीन भेज दिया जाता था। चीन पर निर्भरता का मतलब था कि रीसाइक्लिंग मानक शिथिल हो गए थे। खाद्य अपशिष्ट एवं प्लास्टिक को साथ मिलाकर उद्योग जगत ने कचरे के नए उत्पाद, डिजाइन और रंग बनाने में महारत हासिल की थी। इस सब के कारण कचरा अधिक दूषित हो जाता और उसके पुनर्चक्रण में भी कठिनाइयां आतीं हैं। हालात यहां तक पहुंच गए कि कचरे में भी व्यापार ढूंढ लेने में माहिर चीन जैसे देश को भी इसमें कोई फायदा नहीं नजर आया।
भारत की प्लास्टिक अपशिष्ट समस्या समृद्ध दुनिया के देशों जितनी भयावह तो नहीं है, लेकिन यह लगातार बढ़ती जा रही है। प्लास्टिक कचरे पर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की नवीनतम वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, गोवा जैसे समृद्ध राज्य प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति 60 ग्राम प्लास्टिक का उत्पादन करते हैं। दिल्ली 37 ग्राम प्रतिव्यक्ति, प्रतिदिन के साथ इस रेस में ज्यादा पीछे नहीं है। राष्ट्रीय औसत लगभग 8 ग्राम प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन है। दूसरे शब्दों में, जैसे-जैसे समाज अधिक समृद्ध होगा वैसे-वैसे प्लास्टिक कचरे की मात्रा भी बढ़ेगी । यह समृद्धि की वह सीढ़ी है जिस पर चढ़ने से हमें बचना होगा।
हालांकि, हमारे शहरों में फैले प्लास्टिक अपशिष्ट की इस भारी मात्रा को देखकर यह अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है कि हालात काबू से बाहर जा रहे हैं और कुछ ही समय में ऐसी स्थिति आएगी जब इस कचरे का निपटान हमारे बस में नहीं रहेगा। इस समस्या के समाधान के लिए अलग तरीके से सोचने और निर्णायक कदम उठाने की आवश्यकता है और आज हमारे समाज में इसकी भारी कमी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 में स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर एक ओजपूर्ण भाषण दिया और हमें प्लास्टिक की आदत छोड़ने का आह्वान करते हुए वादा किया कि उनकी सरकार इसके इस्तेमाल में कटौती के लिए महत्वपूर्ण योजनाओं की घोषणा करेगी। लेकिन उनकी सरकार इसका ठीक उल्टा कर रही है।
यहां भी सारी राजनीति रीसाइक्लिंग को लेकर है। उद्योग जगत ने एक बार फिर नीति निर्माताओं को यह समझाने में कामयाबी हासिल कर ली है कि प्लास्टिक कचरा कोई समस्या नहीं है क्योंकि हम लगभग हर चीज को रीसाइकल कर पुन: उपयोग में ला सकते हैं। यह कुछ-कुछ तंबाकू सा है। अगर हम धूम्रपान करना बंद कर देते हैं, तो किसान प्रभावित होंगे। यदि हम प्लास्टिक का उपयोग करना बंद कर देते हैं, तो छोटे स्तर पर चलने वाले रीसाइक्लिंग उद्योग जिसका अधिकांश हिस्सा अनौपचारिक क्षेत्र में है, बंद हो जाएंगे और उनमें काम कर रहे मजदूर बेरोजगार हो जाएंगे। पूरी व्यवस्था चरमरा जाएगी और कई नौकरियां जाएंगी।
आइए पहले चर्चा करें कि उस कचरे का क्या होता है जिसे रीसाइकल नहीं किया जा सकता है? सभी अध्ययन (सीमित रूप में) दिखाते हैं कि नालियों या लैंडफिल में जमा प्लास्टिक अपशिष्ट में कम से कम रिसाइकिल करने योग्य सामग्री शामिल होती है। इसमें बहुस्तरीय पैकेजिंग (सभी प्रकार की खाद्य सामग्री), पाउच , ( गुटखा या शैम्पू) और प्लास्टिक की थैलियां शामिल हैं। 2016 के प्लास्टिक प्रबंधन नियमों ने इस समस्या को स्वीकारा और कहा कि पाउच पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा और दो साल में हर तरह के बहुस्तरीय प्लास्टिक के उपयोग को समाप्त कर दिया जाएगा। वर्ष 2018 में इस कानून को लगभग पूरी तरह बदल दिया गया और केवल वैसे कचरे को इस श्रेणी में रखा जो रीसाइकल न किया जा सके। बशर्तें ऐसी कोई चीज हो।
यह कहना सही नहीं है कि सैद्धांतिक रूप से बहुस्तरीय प्लास्टिक या पाउच को रीसाइकल नहीं किया जा सकता है। उन्हें सीमेंट संयंत्रों में भेजा जा सकता है या सड़क निर्माण में उपयोग किया जा सकता है। लेकिन हर कोई जानता है कि इन खाली, गंदे पैकेजों को पहले अलग करना, इकट्ठा करना और फिर परिवहन करना लगभग असंभव है। इसलिए सब पहले के जैसा ही चल रहा है। हमारी कचरे की समस्या बरकरार है। दूसरा मुद्दा यह है कि हम वास्तव में रीसाइक्लिंग से क्या समझते हैं? हम जानते हैं कि प्लास्टिक के पुनर्चक्रण हेतु घरेलू स्तर पर सावधानी से कचरे का अलगाव करने की आवश्यकता है। यह हमारी और स्थानीय संस्थाओं की जिम्मेदारी बनती है। अतः अब समय या चुका है जब हम रीसाइक्लिंग की इस दुनिया को नए सिरे से निर्मित करें। मैं आपसे आने वाले हफ्तों में इसके बारे में चर्चा करूंगी।