वैज्ञानिकों ने दुनिया में सबसे अधिक मात्रा में पाए जाने वाले प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर बिना रसायनों के साबुन सहित हजारों अन्य घरेलू उत्पादों को बनाने का एक नया तरीका खोजा है। इस नए शोध को पोर्ट्समाउथ विश्वविद्यालय के नेतृत्व में प्रदर्शित किया गया है, जिसमें धान की पराली (राइस स्ट्रॉ) से एक ‘जैव-सक्रियक (बायोसर्फेक्टेंट) को बनाया गया, यह एक ऐसा विकल्प है जिनमें विषैली सामग्री का उपयोग नहीं किया गया है।
अब तक इस तरह की सामग्रियों को बनाने के लिए सिंथेटिक उत्पादों का उपयोग किया जाता है, जो पेट्रोलियम उत्पादों पर आधारित होते हैं। ‘जैव-सक्रियक’ (बायोसर्फेक्टेंट) : वे रसायन होते हैं जो सूक्ष्मजीवों द्वारा निर्मित होते हैं।
रोजमर्रा की जिंदगी में मानव निर्मित रसायनों की मात्रा को कम करने तथा धरती पर पड़ने वाले पर्यावरणीय समस्याओं में से एक को हल करने के लिए जैव प्रौद्योगिकी परियोजना निर्धारित की गई है। भारत में एमिटी विश्वविद्यालय और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के साथ मिलकर काम करते हुए यूनिवर्सिटी ऑफ पोर्ट्समाउथ के सेंटर फॉर एनजाइम इनोवेशन द्वारा इस काम को अंजाम तक पहुंचाया गया। यह अध्ययन साइंस डायरेक्ट पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
अध्ययन रासायनिक सर्फ़ेक्टन्ट के बदले प्राकृतिक तत्त्वों की तलाश के बारे में थी, सामग्रियों को बनाने में रसायनों के उपयोग के बदले प्राकृतिक तत्वों का उपयोग करना था। जिनमें -रासायनिक सफाई उत्पादों, चिकित्सा, सनक्रीम, मेकअप और कीटनाशकों के उत्पादन में मुख्य रुप से रसायनों का उपयोग किया जाता था मगर अब इन्हें प्राकृतिक तरीके से बनाए जाने का दावा किया गया है। सर्फ़ेक्टन्ट तेल और पानी को एक साथ रखता है, एक तरल की सतह के लचीलेपन को कम करने में मदद करता है, और उत्पाद की सफाई करने में सहायता करता है।
पोर्ट्समाउथ विश्वविद्यालय के माइक्रोबियल बायोटेक्नोलॉजिस्ट और टीजेन के निदेशक डॉ. पट्टानाथु रहमान ने 2015 से शिक्षाविदों और पीएचडी स्कॉलर श्री सैम जॉय के साथ काम किया, ताकि एंजाइमों के साथ धान की पराली (राइस स्ट्रॉ) को पीसकर ‘जैव-सक्रियक’ (बायोसर्फेकेंट) बनाया जा सके। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह पर्यावरण को हानि पहुंचाए बिना बने सामग्री का ही परिणाम है कि उद्योगजगत इस तरह की सामग्री की मांग कर रहे हैं।
डॉ. रहमान ने कहा कि डिटर्जेंट, फैब्रिक सॉफ़्नर, ग्लू कीटनाशक, शैम्पू, टूथपेस्ट, पेंट, लैक्सेटिव और मेकअप सहित हर जगह सर्फ़ेक्ट्स, अथवा रसायन से बना हैं। कल्पना कीजिए कि अगर हम सर्फ़ेक्टन्ट के बजाय पर्याप्त मात्रा में ‘जैव-सक्रियक’ (बायोसर्फेक्टेंट) बना सकें, तो मानव निर्मित इन उत्पादों से रसायनों को हटाकर इन्हें प्राकृतिक तरीके से बनाया जा सकता है। इस शोध से पता चलता है कि कृषि अपशिष्ट जैसे कि धान की पराली (राइस स्ट्रॉ) जो भरपूर मात्रा में उपलब्ध है, उसका उपयोग किया जा सकता हैं।
शोध के पीछे वैज्ञानिकों का मानना है कि धान की पराली (राइस स्ट्रॉ) या अन्य कृषि अपशिष्टों से निर्मित ‘जैव-सक्रियक’ (बायोसर्फेक्टेंट) का उपयोग करने से पारिस्थितिक पर कई सकारात्मक प्रभाव हो सकते हैं:
डॉ. रहमान बताते हैं कि जिन उद्योगों में उनका उपयोग किया जाता है, उनमें ‘जैव-सक्रियक’ (बायोसर्फेक्टेंट) के लिए आवश्यक शुद्धता का स्तर बहुत अधिक होता है। इस वजह से, वे बहुत महंगे हो सकते हैं। रहमान बताते है, हमारे द्वारा उत्पादित तरीके उन्हें बहुत अधिक किफायती बनाते हैं। यह उद्योगों की श्रेणी में उपयोग की जाने, की जबरदस्त तकनीक है।
अध्ययन से पता चलता है कि ‘जैव-सक्रियक’ (बायोसर्फैक्टेंट), सिंथेटिक सर्फेक्टेंट अणुओं का एक संभावित विकल्प हो सकता है। 2023 तक जिसका बाजार भाव US2.8 बिलियन डॉलर हो सकता है। हाल के वर्षों में बायोसर्फैक्टेंट्स के बायोडिग्रेडेबल होने, कम जहरीले एवं विशिष्टता के कारण इनमें काफी रुचि बढ़ी है। डॉ. रहमान का कहना है कि बायोसर्फेक्टेंट्स को बनाने की प्रक्रिया साबुन और सफाई उत्पादों के लिए एक नया दृष्टिकोण है।
उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि ज्यादातर लोग साबुन का उपयोग अपनी त्वचा से बैक्टीरिया को हटाने का एक प्रभावी साधन मानते हैं। हालांकि, हमने बैक्टीरिया से ही साबुन बनाने के तरीके की खोज की है। उनमें सूक्ष्म जीवों को हटाने के गुण हैं जो कॉस्मेटिक उत्पादों और बायोथेरेप्यूटिक्स के लिए उपयुक्त हैं। यह तरीका कचरे के प्रबंधन को हल करने में उपयोग किया जाएगा और रोजगार के नए अवसर पैदा करेगा।
भारत को होगा फायदा
भारत एक कृषि प्रधान देश होने के साथ-साथ यहां प्रदूषण की सबसे बड़ी समस्या भी है, खासकर कृषि से उत्पन्न कचरे को किसान अक्सर जला देते हैं जिससे वातावरण में प्रदूषण फैलता है। इस शोध से कृषि से उत्पन्न कचरे का उपयोग घरेलू उत्पादों को बनाने में किया जाएगा, जिससे वायु प्रदूषण पर कुछ हद तक लगाम लगने की संभावना है।