प्रदूषण

पंजाब-हरियाणा : जारी है फसल अवशेषों का जलाना, किसान खुद बन रहा वायु प्रदूषण का शिकार

पराली जलाने से होने वाले प्रदूषण की वजह से हंगामा दिल्ली-एनसीआर में होता है, लेकिन इस प्रदूषण की सबसे ज्यादा मार उन्हीं किसानों पर ज्यादा पड़ रही है

Vivek Mishra

पंजाब और हरियाणा में प्रतिबंध के बावजूद पराली जलाई जा रही है। दिल्ली-एनसीआर तक इस पराली का प्रदूषण पहुंचे, इससे पहले ही दोनों राज्यों के किसान वायु प्रदूषण के भुक्तभोगी बन रहे हैं। किसान यह भी जानते हैं कि पराली जलाने से उनकी ही सेहत को नुकसान है। इसके बावजूद हर बार की तरह धान से गेहूं की फसल पर जाने के दौरान (अक्तूबर-नवंबर) किसान यह काम करते हैं।

अमेरिका की अंतरिक्ष एजेंसी नासा के फायर इन्फॉर्मेशन फॉर रिसोर्स मैनेजमेंट सिस्टम (एफआईआरएमएस) की सेटेलाइट तस्वीरें और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के आंकड़ों से यह जाहिर होता है कि इस हफ्ते दिवाली से पहले 20 अक्तूबर से 25 अक्तूबर, 2019 के बीच पंजाब और हरियाणा के खेतों में जमकर पराली जलाई गई है। भारत के उत्तर पश्चिम हिस्सों में 100 से अधिक आग लगने वाली घटनाओं में पंजाब और हरियाणा के जिले शामिल हैं।

नासा के सेटेलाइट इमेज में पंजाब के अमृतसर जिले में तरण-तारण ताल और मरी मेघा गांव के पास व फिरोजपुर जिले में जबरदस्त पराली जलाई जा रही है। इसी तरह से कपूरथला जिले में डुमियान गांव के पास पराली जलाई जा रही है। पटियाला के होडल तहसील में भी पराली जलाने के 100 से अधिक मामले आए हैं। वहीं, अंबाला में भी बड़े पैमाने पर पराली जलाई जा रही है। जबकि हरियाणा में कैथल और कुरुक्षेत्र में सर्वाधिक पराली जलाई जा रही है।

जहां पराली जलाई जा रही है क्या वहां प्रदूषण है? केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के एक हफ्तों के आंकड़ों की पड़ताल बताती है कि प्रदूषण सिर्फ दिल्ली-एनसीआर में ही नहीं बल्कि उन स्थानों पर भी है जहां पराली जलाई जा रही है। वहीं, यह भी स्पष्ट है कि पराली के कारण खतरनाक पार्टिकुलेट मैटर 2.5 का उत्सर्जन भी होता है।  सीपीसीबी के आंकड़ों के मुताबिक 24 घंटों के आधार पर अमृतसर का वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) 25 अक्तूबर को 208 दर्ज किया गया। इसमें प्रभावी प्रदूषक पार्टिकुलेट मैटर 2.5 है। इस जिले में 20 अक्तूबर से लगातार पराली जलाई जा रही है। 201 से 300 एक्यूआई के बीच की वायु गुणवत्ता खराब श्रेणी में मानी जाती है। सामान्य या संतोषजनक वायु गुणवत्ता सूचकांक 100 तक माना जाता है। इसी तरह पंजाब के फिरोजपुर जिले और कपूरथला जिले में वायु गुणवत्ता सूचकांक मापने की कोई व्यवस्था नहीं है। जहां सर्वाधिक पराली जलाई जा रही है।

अमृतसर की वायु गुणवत्ता 21 अक्तूबर से ही सामान्य नहीं है। पूरे हफ्ते वायु गुणवत्ता मॉडरेट यानी मध्यम और खराब प्रदूषण वाली ही रही है। सीपीसीबी के आंकड़ों के मुताबिक 113 से 240 के बीच वायु गुणवत्ता सूचकांक मापा गया। वहीं, पराली जलाए जाने से अंबाला के हवा की स्थिति भी खराब है। यहां 25 अक्तूबर को 24 घंटों के आधार पर एक्यूआई 225 यानी खराब गुणवत्ता वाला रिकॉर्ड किया गया। पूरे हफ्ते ही एक्यूआई खराब श्रेणी 167 से 253 तक बनी रही। सभी जगह प्रभावी प्रदूषण पीएम 2.5 रहा।


इसी तरह से हरियाणा में सिरसा, जींद, हिसार, कैथल और कुरुक्षेत्र में भी 20 अक्तूबर से 25 अक्तूबर तक वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) मध्य से खराब श्रेणी के बीच झूलता रहा है। इन दोनों जिलों में 100 से अधिक बार पराली जलाए जाने के मामले सामने आए हैं। इन जिलों को छोड़कर एनसीआर के जिले पहले से ही वायु प्रदूषण के शिकार हैं। जिनका प्रदूषण ग्राफ ठंड सीजन की सुगुबुगाहट के बीच बढ़ने लगा है।

आखिर किसान पराली क्यों जला रहा है? डाउन टू अर्थ के भागीरथ ने इस मामले में पंजाब के संगरुर जिले के धादरियां गांव में सरपंच गुरुचरण सिंह से इस बारे में बात की। गुरुचरण सिंह ने कहा कि प्रदूषण केवल शहर में रहने वाले लोगों को ही परेशान नहीं करता। यह उन किसानों को भी परेशान करता है जो पराली में आग लगाते हैं। हमारे बच्चे जब पराली में आग लगाते हैं, तब अक्सर बीमार पड़ जाते हैं। गांव के लोगों को भी आंखों में जलन होती है और सांस लेने में दिक्कत आती है। किसान मजबूरी में पराली जलाता है। उसे पर्यावरण की फिक्र भी है और स्वास्थ्य की थी। समस्या यह है कि हमारे पास कोई दूसरा विकल्प ही नहीं है। कहने को सरकार हैप्पी सीडर जैसी अत्याधुनिक मशीनों को खरीदने के लिए सब्सिडी देती है। लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरा जैसी है। किसान तो किसी तरह गुजर-बसर कर रहा है।


पराली से आर्थिक क्षति का आकलन करने वाले अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (आईएफपीआरआई) के शोधार्थी ने भी कहा है कि हरियाणा और पंजाब में किसानों द्वारा कृषि फसल के अवशेषों के धुएं से प्रदूषित होने वाली हवा वहां के लोगों के लिए श्वास रोग संक्रमण के जोखिम को तीन गुना बढ़ाते हैं। इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएआरआई) ने 2012 में अनुमान लगाया था कि प्रतिवर्ष 50 से 55 करोड़ टन फसल अवशेष देश में निकलता है। इनमें धान की फसल से निकलने वाले अवशेष की हिस्सेदारी 36 फीसदी वहीं गेहूं की 26 फीसदी है। वहीं, 2016 कानपुर आईआईटी की रिपोर्ट बताती है कि प्रतिवर्ष देश में कुल 9 करोड़ टन फसल अवशेष जलाया जाता है। जबकि पंजाब और हरियाणा में करीब 80 फीसदी धान से निकला फसल अवशेष खुले खेत में जलाया जाता है। इसके लोगों की सेहत पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ते हैं।


वहीं नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में 2013 में याची विक्रांत तोंगड़ ने याचिका दाखिल की थी। याची का आरोप था कि 2014 में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने पंजाब, यूपी, हरियाणा के मुख्य सचिवों को चिट्ठी लिखकर अपने यहां फसल अवशेष जलाने पर रोक लगाने के लिए कहा था। इसके बाद संबंधित राज्यों ने अधिूसचना जारी कर फसल अवशेष जलाने पर रोक लगाई थी। इन आदेशों पर अमल नहीं हो रहा। .इस याचिका पर लंबी सुनवाई के बाद 5 नवंबर, 2015 को एनजीटी ने किसानों पर जुर्माना लगाने और जागरुता फैलाने का आदेश दिया। वहीं,10 दिसंबर 2015 को एनजीटी ने याचिका पर फैसला सुनाया। फैसले में एनजीटी ने पराली रोकने के लिए कई उपाय सुझाए।

एनजीटी ने 2 एकड़ से कम खेत वाले किसानों को मुफ्त में मशीन मुहैया कराने का आदेश दिया था। सरकार ने पराली निस्तारण के लिये संबंधित सरकारों को 2 एकड़ से कम खेत वाले किसानों को पराली निस्तारण के लिये मुफ्त में मशीन मुहैया कराने का आदेश दिया था। वहीं, 2 एकड़ से 5 एकड़ तक खेत रखने वाले किसानों को 5000 रुपये में मशीन मुहैया कराने और 5 एकड़ से ज्यादा खेतिहर जमीन रखने वाले किसानों को 15,000 रुपये में मशीन मुहैया कराने के आदेश दिया था। अभी तक इन आदेशों पर अमल नहीं हो पाया है।  किसान गुरुचरण सिंह कहते हैं कि किसान हैप्पी सीडर मशीन खरीदने की स्थिति में नहीं है। जिस हैप्पी सीडर मशीन को पराली प्रदूषण खत्म करने का उपाय बता रही है, वह मशीन 70 हजार रुपए की लागत में तैयार हो जाती है। यही मशीन 1 लाख 75 हजार रुपए में किसानों को बेची जाती है। अगर सरकार किसानों को 25-30 प्रतिशत सब्सिडी देती भी है तो भी गरीब किसान उसे नहीं खरीद सकता। जो अमीर किसान हैप्पी सीडर खरीद चुका है, वह भी पराली जलाता है। सरकार इस समस्या को दूर करना चाहती है तो उसे किसानों के खेतों से पराली ले जानी चाहिए। पराली से बहुत से जैविक उत्पाद बनाए जा सकते हैं। सरकार को ऐसे उत्पाद बनाने वाली फैक्ट्रियों को प्रोत्साहित करना चाहिए।