प्रदूषण

लम्बे समय तक नाइट्रोजन डाइऑक्साइड का संपर्क, फेफड़ों को पहुंचा सकता है नुकसान

शोध में सामने आया है कि लम्बे समय तक नाइट्रोजन डाइऑक्साइड के संपर्क में रहने से फेफड़ों की कार्यक्षमता कम हो गई थी और पल्मोनरी डिजीज का खतरा बढ़ गया था

Susan Chacko, Lalit Maurya

मैसूर के एक रिहायशी इलाके में पांच साल तक किए एक अध्ययन में सामने आया है कि लम्बे समय तक नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (एनओ2) के संपर्क में रहने से फेफड़ों की कार्यक्षमता कम हो गई थी और पल्मोनरी डिजीज का खतरा बढ़ गया था। यह शोध 29 अप्रैल 2021 को जर्नल एनवायर्नमेंटल रिसर्च कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित हुआ था|

शोध में दावा किया गया है कि शहरों में रहने वाले स्वस्थ व्यक्ति जो गरीब तबके से सम्बन्ध रखते हैं, वायु प्रदूषण के कारण उनके फेफड़ों की काम करने की क्षमता में गिरावट दर्ज की गई है| यह शोध कर्नाटक में मैसूरु शहर के एक आवासीय क्षेत्र में 2012 से 2014 और 2017 से 2018 तक पांच वर्षों की अवधि में किया गया था।

इस शोध में शोधकर्ताओं ने फेफड़ों की कार्यक्षमता को जांचने के लिए स्पाइरोमिट्री टेस्ट की मदद ली थी| स्पाइरोमिट्री टेस्ट या पल्मोनरी फंक्शन टेस्ट की मदद से फेफड़े और सांस से जुड़ी बीमारियों का पता लगाया जा सकता है। साथ ही शोधकर्ताओं ने अलग-अलग स्तर पर रैंडम तरीके से वयस्कों के एक समूह में फेफड़ों के कार्यक्षमता सम्बन्धी आंकड़ों को एकत्रित किया था|   

इस शोध के पहले चरण में मैसूरु नगरपालिका के सभी 17 वार्डों को नमूने के लिए चुना गया था। वहीं दूसरे चरण में, प्रत्येक वार्ड के 10 घरों का एक समूह बनाते हुए उनसे नमूने लिए गए थे| इसके तीसरे चरण में, 35 वर्ष या उससे अधिक आयु के सभी व्यक्तियों को इसमें शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया था।

जुलाई 2012 से जुलाई 2014 के बीच कुल 725 व्यक्तियों से फेफड़ों की कार्यक्षमता सम्बन्धी आंकड़ें एकत्र किए गए थे| वहीं वायु प्रदूषण के जोखिम का पता लगाने के लिए 2016-17 के आंकड़ों का उपयोग किया गया था|

स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है हवा में मौजूद 40 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर से ज्यादा एनओ2

यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा नाइट्रोजन डाइऑक्साइड के लिए तय मानकों के देखें तो वो 40 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर या 21.3 पार्टस प्रति बिलियन है। अध्ययन से पता चला कि शहर के कुछ हिस्सों में वायु प्रदूषण का स्तर इस आंकड़े को पार कर गया था।

नाइट्रोजन डाइऑक्साइड तब बनता है जब कोयले, तेल, गैस और डीजल जैसे जीवाश्म ईंधन को उच्च तापमान पर जलाया जाता है। इसके साथ ही यह लकड़ी और प्राकृतिक गैस को जलाने से भी बनता है| यह फेफड़ों के कार्यक्षमता को घटा देता है और अस्थमा होने की सम्भावना को बढ़ा देता है| इस शोध में शामिल अधिकतर करीब 99 फीसदी प्रतिभागियों के घरों में खाना पकाने के लिए एलपीजी का उपयोग किया जाता था| यह एलपीजी कनेक्शन उन्हें प्रधान मंत्री उज्ज्वला योजना (पीएमयूवाई) के तहत मिले थे|

"स्वच्छ ईंधन, बेहतर जीवन" के नारे के साथ केंद्र सरकार नें 1 मई 2016 को उज्ज्वला योजना शुरू की थी।सरकारी आंकड़ों के अनुसार अब तक इस योजना के तहत गरीब तबके को रियायती दर पर करीब 8 करोड़ एलपीजी कनेक्शन दिए जा चुके हैं।

इससे पहले ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित एक अन्य शोध में भी नाइट्रोजन डाइऑक्साइड के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर का खुलासा किया था| इस शोध के मुताबिक एनओ2 के स्तर में हुई मामूली सी वृद्धि भी हृदय और सांस सम्बन्धी मौतों के जोखिम में इजाफा कर सकती है।

शोध  अनुसार यदि पिछले दिन की तुलना में प्रति घन मीटर 10 माइक्रोग्राम एनओ2 की वृद्धि होती है तो उससे मरने वाले की कुल संख्या में 0.46 फीसदी का इजाफा हो सकता है, जबकि इससे सांस सम्बन्धी बीमारियों के कारण होने वाली मौतों में 0.47 फीसदी का इजाफा हो सकता है।