प्रदूषण

“रात के कृत्रिम प्रकाश में रहने के लिए धरती पर कोई जीवन विकसित नहीं हुआ है”

Bhagirath

प्रकाश के प्रदूषण से पारिस्थितिकी तंत्र की गतिविधियां काफी हद तक खतरे में पड़ जाती हैं। क्या आप पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ने वाले इस असर के बारे में विस्तार से बताएंगे?

ज्यादा रोशनी से शिकारी और शिकार के प्राकृतिक संबंधों में खलल पड़ता है। कई प्रजातियां रात में सक्रिय होती हैं और प्रकाश की अधिकता शिकार को शिकारियों के सामने उजागर कर सकती है। इससे कई तरह के पौधों और जानवरों का मौसमी और रोज का चक्र भी बिगड़ जाता है। तेज रोशनी से प्रवासी पक्षी कई बार फ्लडलाइट और स्पॉटलाइट को चांद समझ लेते हैं और अपने प्रवास मार्ग से भटककर समय से पहले थक जाते हैं। सूरज की रोशनी में होने वाले मौसमी बदलाव पौधों में होने वाली कई प्रक्रियाओं पर असर डालते है। हो सकता है कि बसंत में वे जल्दी खिल जाएं और पतझड़ में वक्त के बाद झड़ें। इससे उन प्रवासी जीव-जन्तुओं का प्रवासन बाधित हो सकता है, जो रास्ते में उचित भोजन और मंजिल पर घोंसलों की उम्मीद में अपनी यात्रा पर निकलते हैं।

एक जाना-माना उदाहरण समुद्री कछुओं का है, जो अपने अंडों को अधिक गर्मी से बचाने के लिए रात की ठंड पर भरोसा करते हैं। वे अंधेरा होने के बाद समुद्र तटों पर अपने अंडे देते हैं, फिर उन्हें रेत में दबा देते हैं। कुछ महीनों के बाद कछुए के बच्चे समुद्र में अपना रास्ता खोजने के लिए निकलते हैं। वे प्राकृतिक परिस्थितियों में अंधेरे क्षितिज से दूर जाते हैं, ताकि खुद को पानी से छिटकने वाली चांदनी और तारों की रोशनी के लिए तैयार कर सकें। हालांकि, समंदर के किनारे पर लगीं स्ट्रीट लाइटें और बिल्डिंगों में जल रही रोशनी उन्हें भटका सकती हैं। वे पानी तक पहुंचने के लिए अपनी सीमित ऊर्जा का उपयोग कर रहे होते हैं, इसलिए एक भी गलत मोड़ उनके लिए खतरनाक हो सकता है। कृत्रिम रोशनी की तरफ आकर्षित होकर कीड़े भटक कर मर जाते हैं। इसके अलावा, वे तेज रोशनी में एक साथ जमा होते हैं, जिससे कीड़े-मकोड़े खाने वाले पक्षियों के लिए वे आसान शिकार भी बन जाते हैं। इन सभी वजहों से उनकी संख्या घट रही है। रोशनी से होने वाले प्रदूषण के कारण कीड़ों की सामान्य प्रजनन प्रक्रियाएं बाधित हो रही हैं। इसकी वजह से उन्हें दोहरा नुकसान हो रहा है।

संभवतः इस ग्रह पर जीवन प्राकृतिक प्रकाश की वजह से ही विकसित हुआ है। मानव-निर्मित रोशनी और इसके प्रभावों को देखते हुए क्या आपको लगता है कि इसका प्रजातियों के विकास पर प्रभाव पड़ेगा?

मेरा व्यक्तिगत मत है कि संभवतः इसका प्रभाव पड़ेगा। हालांकि, विकास को सामाजिक अनुकूलन से अलग करके देखा जाए, तो इसका फैलाव सहस्राब्दियों तक रहता है और तब तक वैसे भी बहुत देर हो चुकी होती है। दूसरी पर्यावरणीय समस्याओं की तरह, प्रकाश प्रदूषण को अगले ही कुछ वर्षों या फिर ज्यादा से ज्यादा कुछ दशकों के भीतर सुधार लेने की जरूरत है, ताकि वन्यजीवों को इसके बुरे असर से बचाया जा सके।

हम जानते हैं कि अन्य संसाधनों की तरह ही कुछ प्रजातियां रात में कृत्रिम रोशनी का गलत फायदा उठा सकती हैं, जिसकी वजह से दूसरों को नुकसान हो सकता है। दिन में भोजन तलाशने वाली प्रजातियों का रात की रोशनी का इस्तेमाल कर रात के समय को दिन की तरह प्रयोग में लाना इसका एक विशेष उदाहरण है। इससे एक प्रजाति को दूसरों पर प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त मिल सकती है और नॉन-नेटिव प्रजातियां आक्रमण का शिकार बन सकती हैं। रात को सक्रिय रहने वाली प्रजातियां कृत्रिम रोशनी की वजह से बनी स्थितियों का प्रमुखता से उपयोग कर सकती हैं। इसके मुख्य उदाहरण हैं चमगादड़ और उनका शिकार बनने वाली प्रजातियां। चमगादड़ स्ट्रीट लाइटों के आसपास जमा हुए कीड़ों को खा लेते हैं। शिकार बनने वाली प्रजातियां ऐसी रोशन जगहों की तरफ आकर्षित होती हैं, जहां से वे शिकारी को बेहतर ढंग से देख सकें।

प्रवासी पक्षियों और अंडे सेने वाली उन चिड़ियों पर कृत्रिम रोशनी का नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जो अपनी गतिविधियां निर्धारित करने के लिए पेड़-पौधों में कोंपले फूटने और कलियां निकलने जैसे प्राकृतिक संकेतों की मदद लेते हैं। इसी तरह, यूरोप में आम ओपेरोफटेरा ब्रुमाटा जैसे शीतकालीन कीड़े ठीक ऐसे निर्धारित समय पर अंडे देते हैं, जब पेड़ों पर नई और कोमल पत्तियां निकलने वाली होती हैं, ताकि अंडों से निकले कैटरपिलर्स को खाने के लिए मुलायम कोंपले मिल सकें। अगर पेड़ों पर एक निर्धारित वक्त से पहले ही पत्तियां उग आती हैं, तो कैटरपिलर्स को ऐसी सख्त पत्तियां खानी पड़ती हैं, जिनमें पौष्टिक तत्व तो कम होते ही हैं, साथ ही उनमें कीड़ों से बचाने वाला टैनिन नाम का तत्व भी बढ़ चुका होता है। इससे कैटरपिलर्स की संख्या कम हो जाएगी और सॉन्गबर्ड्स को खाने के लिए पर्याप्ता खाना नहीं मिल सकेगा।

प्रकाश से होने वाले प्रदूषण का पौधों और उनके जीवन पर असर पड़ता है। आखिर पौधे इससे कैसे प्रभावित होते हैं और इसके कारण हमें कैसे असर देखने को मिल सकते हैं?

पौधे फोटोपीरियड पर उतने ही निर्भर हैं जितने कि जानवर या शायद उनसे भी ज्यादा। यहां तक कि रात में प्रकाश की चंद मिनटों में एक लक्स से भी कम की अवधि भी पौधों की कई प्रजातियों के लिए दिन के समय जैसा माहौल बना देती है। इसी तरह, दिन के वक्त अंधेरा होने से पतझड़ की शुरुआत जैसे छोटे दिनों की तरह का प्रभाव पड़ता है। लगातार रोशनी में रहने से रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो जाती है। इसके उदाहरण हैं- लीफ क्लोरोसिस यानी क्लोरोफिल की कमी के कारण सामान्य रूप से हरी पत्तियों का पीला पड़ना, नेक्रोसिस यानी पत्तियों पर धब्बे पड़ना, बिगड़ा हुआ स्टार्च मेटाबॉलिज्म, और खराब क्लोरोफिल संश्लेषण। प्रयोगों से पता चला है कि लगातार प्रकाश में रहने से टमाटर के पौधों की सर्कैडियन रिदम बदल जाती है और वे चोटिल हो जाते हैं। आमतौर पर गुलदाउदी का विकास 16 घंटे की रोशनी और 8 घंटों के अंधेरे के दौरान होता है। हालांकि, रोशनी में 10 सेकंड के व्यवधान के साथ 8 घंटे की रोशनी और 16 घंटे के अंधेरे के साथ भी एक पौधे को भ्रमित कर पूरी गर्मी का एहसास दिलाया जा सकता है, और इससे वह तेजी से बढ़ने लगता है। जब ओक, गूलर, ऐश और बीच जैसे समशीतोष्ण पेड़ स्ट्रीट लैंप की रोशनी से नहाते हैं, तो उनके पत्तों का मौसमी विकास कई दिन पहले शुरू हो जाता है।

दक्षिण पश्चिम संयुक्त राज्य अमेरिका में, कार्नेगी गिगेंटिया नाम का सगुआरो कैक्टस परागण और प्रजनन के लिए अंधेरी रात पर निर्भर करता है। इसके फूल केवल 24 घंटों के लिए खिलते हैं। ये रात में खुलते हैं और अगले दिन पूरे दिन खुले रहते हैं। परागण के लिए इस सीमित समय में, ये सगुआरो प्रभावी ढंग से प्रजनन के लिए शाम को चमगादड़ और दिन के दौरान मधुमक्खियों, पक्षियों और अन्य परागणकों पर निर्भर करता है। रात के समय किसी भी तरह की कृत्रिम रोशनी इस सहजीवन को खतरे में डाल देती है।

कृत्रिम रोशनी रात के वातावरण में ऐसे बदलाव लाती है, जिसमें रहने के लिए धरती पर कोई जीवन विकसित ही नहीं हुआ है।

इंसान भी ऐसे वातावरण में रहने के लिए विकसित नहीं हुए हैं, तो उनकी सेहत पर इसका कैसा असर पड़ेगा?

आंखों के रेटिना में मौजूद रॉड और कोन्स सेल्स (शलाका और शंकु कोशिकाएं) की तरह ही रेटिनल गैंग्लियन सेल्स भी होती हैं। रेटिनल गैंग्लियन सेल्स इमेज तो नहीं बनातीं, लेकिन रोशनी को महसूस कर सकती हैं। इन्हीं विशेष कोशिकाओं की मदद से हमें अंधेरे का पता लगता है और शाम के धुंधलके को भी पहचान पाते हैं। ये कोशिकाएं गोधूलि यानी शाम की नीली रोशनी के प्रति संवेदनशील होती हैं और एक तरह से अवचेतन में रहते हुए गोधूलि के वक्त को डिटेक्ट करने का काम करती रहती हैं। इसीलिए इन्हें ट्विलाइट डिटेक्टर भी कहते हैं।

रेटिनल गैंग्लियन सेल्स संक्रमण, कैंसर समेत कई बीमारियों से लड़ने वाले हार्मोन के स्राव को नियंत्रित करने में मदद करती हैं। वातावरण में मौजूद प्राकृतिक रोशनी में कई तरह के रंग होते हैं। जबकि, सफेद रोशनी ढेर सारे चमकीले नीले रंग से भरी होती है। यह रोशनी गोधूलि का पता लगाने वाले डिटेक्टर्स को धोखा दे देती है और जिससे उनके लिए यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि अभी भी दिन का समय है या फिर शाम की शुरुआत हो गई है। ऐसे हालात में उन हार्मोंस का स्राव रुक जाता है, जो हमारे शरीर को ठीक करने में मदद करते हैं। कुछ घंटों बाद ये हार्मोंस कमजोर होने लगते हैं और आखिर में शरीर उन्हें फिर से अवशोषित कर लेता है। समय के साथ शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने वाली यह प्राकृतिक प्रक्रिया कमजोर पड़ती जाती है। रात के समय रोड पर गाड़ियों के ट्रैफिक को उदाहरण बनाते हुए देर रात की गतिविधियों पर एक रिसर्च की गई। इस रिसर्च से यह साफ हुआ कि अधिकतर लोग रात में सोते हैं और इस दौरान उन्हें घर से बाहर या फिर अंदर रोशनी की जरूरत नहीं होती। हालांकि, रात में खिड़की के जरिए अंदर आने वाली बाहर की कृत्रिम रोशनी कमरे को पूर्णिमा की तुलना में कहीं ज्यादा रोशन कर सकती है।

सूर्योदय के बाद हमारी भूख बढ़ जाती है, हम सजग हो जाते हैं और सुबह 10 बजे तक ये एहसास चरम पर पहुंच जाते हैं। करीब 3 बजे हमारा तालमेल और प्रतिक्रिया समय सबसे बेहतर होता है। हमारी हृदय प्रणाली और मांसपेशियों की ताकत 5 बजे सबसे अधिक होती है। रात 2 बजे के आसपास हम सबसे गहरी नींद में होते हैं। कृत्रिम रोशनी रात के वातावरण में ऐसे बदलाव लाती है, जिसमें रहने के लिए धरती पर कोई जीवन विकसित ही नहीं हुआ है। इंसान, जानवरों और पौधों तक की जैविक क्रियाएं अंधेरे और प्रकाश के चक्र के साथ इस कदर समायोजित हैं कि 24 घंटे की अवधि में हर एक क्रिया एक निश्चित समय पर ही होती है। हमारे शरीर का दैनिक चक्र रात की शुरुआत के साथ ही समायोजित यानी सिंक रहता है। रात की शुरुआत तब होती है, जब शाम की रोशनी पूर्ण चंद्रमा यानी पूर्णिमा की चमक से भी कम हो जाती है। इसका खास खयाल रखना चाहिए कि पूर्णिमा की रोशनी से ही रात की सबसे चमकदार प्राकृतिक रोशनी है। आराम से पढ़ने के लिए जितनी रोशनी चाहिए, रात की शुरुआत के वक्त उससे 1/10 से भी कम रोशनी होती है। आप इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि उस वक्त कितना कम प्रकाश होता है।