लगभग 1500 ई.पू. के आसपास आधुनिक युग की शुरुआत के बाद से लोगों ने वातावरण में जहरीले पारे की मात्रा को सात गुना बढ़ा दिया है। इस बात का खुलासा हार्वर्ड जॉन ए. पॉलसन स्कूल ऑफ इंजीनियरिंग एंड एप्लाइड साइंसेज (एसईएएस) के नए शोध में किया गया है।
यह शोध पर्यावरण रसायन विज्ञान के प्रोफेसर फ्रेड कावली और पृथ्वी और ग्रह विज्ञान के प्रोफेसर एल्सी एम. सुंदरलैंड की अगुवाई में किया गया है। शोधकर्ताओं ने, पारे के सबसे बड़े, एक मात्र प्राकृतिक उत्सर्जक, ज्वालामुखी से सालाना कितना पारा उत्सर्जित होता है, इसका सटीक अनुमान लगाने के लिए एक नई विधि विकसित की। टीम ने पूर्व-मानवजनित वायुमंडलीय पारा स्तरों के आकलन के लिए उस अनुमान का उपयोग एक कंप्यूटर मॉडल के साथ किया।
शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया कि इससे पहले कि मनुष्य ने वायुमंडल में पारे को उत्सर्जित करना शुरू किया, इसमें औसतन लगभग 580 मेगाग्राम पारा था। हालांकि, 2015 में, सभी उपलब्ध वायुमंडलीय मापों को देखने वाले स्वतंत्र शोध ने अनुमान लगाया कि वायुमंडलीय पारा भंडार लगभग 4,000 मिलीग्राम था, जो कि इस अध्ययन में अनुमानित प्राकृतिक स्थिति से लगभग सात गुना अधिक है।
कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों, कचरे को जलाने, उद्योग और खनन से पारे के मानवजनित उत्सर्जन में अंतर आता है। यह शोध जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित हुआ है।
शोध के हवाले से शोधकर्ता सुंदरलैंड ने कहा कि, मिथाइलमर्करी एक शक्तिशाली न्यूरो-टॉक्सिकेंट है जो मछली और लोगों सहित अन्य जीवों में जैव संचय करता है। ज्वालामुखीय उत्सर्जन द्वारा संचालित प्राकृतिक पारा चक्र को समझना पारा उत्सर्जन को कम करने के उद्देश्य से नीतियों के लिए एक आधारभूत लक्ष्य निर्धारित करता है और हमें पर्यावरण पर मानव गतिविधियों के पूर्ण प्रभाव को समझने में मदद करता है।
वायुमंडल में पारे को मापने की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि, लोगों के स्वास्थ्य पर इसके अत्यधिक प्रभाव पड़ने के बावजूद, इसकी मात्रा बहुत अधिक नहीं है। एक घन मीटर हवा में, केवल एक नैनोग्राम पारा हो सकता है, जिससे उपग्रह के माध्यम से इसका पता लगाना लगभग असंभव हो जाता है। इसके बजाय, शोधकर्ताओं को एजेंट के रूप में पारा के साथ मिलकर उत्सर्जित एक अन्य रसायन का उपयोग करने की जरूरत पड़ती है। इस मामले में, टीम ने ज्वालामुखी उत्सर्जन के एक प्रमुख घटक सल्फर डाइऑक्साइड का उपयोग किया।
एसईएएस के शोधकर्ता बेंजामिन गेमन ने कहा, सल्फर डाइऑक्साइड के बारे में अच्छी बात यह है कि उपग्रहों का उपयोग करके इसे देखना वास्तव में आसान है। पारे के लिए एजेंट के रूप में सल्फर डाइऑक्साइड का उपयोग हमें यह समझने में मदद करता है कि ज्वालामुखीय पारा उत्सर्जन कहां और कब हो रहा है।
ज्वालामुखीय गैस प्लम में मापे गए पारा और सल्फर डाइऑक्साइड अनुपात के संकलन का उपयोग करके, शोधकर्ताओं ने रिवर्स इंजीनियर किया कि ज्वालामुखी विस्फोट के लिए पारे को कितना जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। फिर, जीईओएस-चेम वायुमंडलीय मॉडल का उपयोग करके, उन्होंने मॉडल बनाया कि ज्वालामुखी विस्फोट से पारा दुनिया भर में कैसे फैलता है।
टीम ने पाया कि जबकि पारा वायुमंडल में मिश्रित होता है और अपने निकले वाली जगह से लंबी दूरी की यात्रा कर सकता है, ज्वालामुखी उत्सर्जन धरती के अधिकांश क्षेत्रों में जमीनी स्तर की मात्रा के केवल कुछ प्रतिशत के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार है। हालांकि, ऐसे क्षेत्र हैं - जैसे कि दक्षिण अमेरिका, भूमध्य सागर और प्रशांत क्षेत्र में रिंग ऑफ फायर, जहां पारा के ज्वालामुखीय उत्सर्जन के स्तर से मानव उत्सर्जन का पता लगाना कठिन हो जाता है।
गेमन ने कहा कि, बोस्टन में, हम अपनी स्थानीय निगरानी कर सकते हैं और हमें यह सोचने की जरूरत नहीं है कि यह एक बड़ा ज्वालामुखी वर्ष था या एक छोटा ज्वालामुखी वर्ष था।
उन्होंने आगे कहा, लेकिन हवाई जैसी जगह में, आपको प्राकृतिक पारे का एक बड़ा स्रोत मिला है जो समय के साथ अत्यधिक परिवर्तनशील है। यह मानचित्र हमें यह समझने में मदद करता है कि ज्वालामुखी कहां बहुत अधिक है और कहां नहीं।
यह वास्तव में प्रभाव को समझने के लिए उपयोगी है मनुष्य, मछली, हवा और समुद्र में लंबे समय तक पारे के रुझान पर निर्भर हैं। उन स्थानों पर ज्वालामुखीय प्रभाव में प्राकृतिक परिवर्तनशीलता को ठीक करने में सक्षम होना महत्वपूर्ण है जहां हम सोचते हैं कि प्रभाव नगण्य नहीं हो सकता है।